जैन और बौद्धदर्शन में समाजवादी चेतना
साभार : आखरमाला : श्री ओम प्रकाश कशयप
हितोपदेश की एक सुभाषित है : अयं निज परोवेति गणना लघुचैतसाम्। उदार चरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम् यानी ‘यह अपना है, वह पराया है—यह सोच क्षुद्र वृत्ति की उपज है. उदारचरितों, सज्जनों के लिए तो पूरा विश्व एक परिवार के समान है, पृथ्वी पर रहने वाले सभी नर-नारी उनके परिजन हैं.’—जिस दौर की यह उक्ति है वह मानवीय मेधा के प्रस्फुटन का था. जैन और बौद्ध दर्शन का उदय उससे करीब तीन सौ वर्ष पहले हो चुका था. जिन दिनों पंचतंत्रादि ग्रंथों की रचना हुई ये दोनों दर्शन देश की सीमाओं से बाहर निकलकर दुनिया को अपनी कल्याणकारी मेधा से प्रभावित कर रहे थे. उल्लेखीय है कि बौद्ध दर्शन का उद्भव वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया में हुआ था. वेदों में बहुदेववाद, कर्मकांड और युद्धों का इतना विशद् वर्णन है कि उनके आगे उनकी दार्शनिक, नैतिक, आध्यात्मिक चिंतनधारा म्लान दिखने लगती है.इसलिए वे तत्व-चिंतन के नाम पर कर्मकांड, धर्म के बजाय पाखंड, नीति के स्थान पर ऊंच-नीच और आडंबर रचते हुए नजर आते हैं. पुरोहित वर्ग उनके माध्यम से धर्म-दर्शन की स्वार्थानुकूल और मनमानी व्याख्याएं थोपने का प्रयास करता है. राजनीति के सहयोग से वह इस धृष्टता में कामयाब भी होता है. धर्म और राजसत्ता परस्पर मिलकर लोगों के शोषण के लिए नए-नए विधान गढ़ते हैं. समाजार्थिक शोषण का यह सिलसिला लगभग पांच शताब्दियों तक निरंतर चलता है. ऐसा भी नहीं है कि शेष समाज शोषण को अपनी नियति मान चुका था. बल्कि जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है,ब्राह्मणवाद का विरोध उसके आरंभिक दिनों से ही होने लगा था. मगर उसको रचनात्मक दिशा देने का काम किया था, जैन और बौद्ध दर्शन ने. इन दोनों दर्शनों ने वेदों की बुद्धिवाद की उस धारा को नई एवं युगानुकूल दिशा देने का काम किया, जो कर्मकांड और मिथ्याडंबरों के बीच अपनी पहचान लगभग गंवा चुकी थी.
जैन और बौद्ध धर्म के प्रवर्त्तक क्रमशः महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध, ईसा से छह शताब्दी पहले, क्षत्रिय कुल में जन्मे थे. अपने-अपने दर्शन में दोनों ने ही कर्मकांड और आडंबरवाद का जमकर विरोध किया था. दोनों ही यज्ञों में दी जाने वाली पशुबलियों के विरुद्ध थे. दोनों ने शांति और अहिंसा का पक्ष लिया था, और भरपूर ख्याति बटोरी. जैन और बौद्ध, दोनों ही दर्शनों को भारतीय चिंतनधारा में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इनमें से जैन धर्म अहिंसा को लेकर अत्यधिक संवेदनशील था, जबकि जीवन को लेकर बुद्ध का दृष्टिकोण व्यावहारिक था. अहिंसा के प्रति अत्यधिक आग्रहशीलता के कारण जैन दर्शन प्रचार-प्रसार के मामले में बौद्ध दर्शन से पिछड़ता चला गया.व्यावहारिक होने के कारण बौद्ध दर्शन को उन राजाओं आ समर्थन भी मिला जो ब्राह्मणवाद से तंग हो चुके थे; और उपयुक्त विकल्प की तलाश में थे.
गौतम बुद्ध ने कर्मकांड के स्थान पर ज्ञान-साधना पर जोर दिया था. पशुबलि को हेय बताते हुए वे अहिंसा के प्रति आग्रहशील बने रहे. वेद-वेदांगों में आत्मा-परमात्मा आदि को लेकर इतने अधिक तर्क-वितर्क और कुतर्क हो चुके थे कि बुद्ध को लगा कि इस विषय पर और विचार अनावश्यक है.इसलिए उन्होंने आत्मा, परमात्मा, ईश्वर आदि विषयों को तात्कालिक रूप से छोड़ देने का तर्क दिया. उसके स्थान पर उन्होंने मानव-जीवन को संपूर्ण बनाने पर जोर दिया. समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दिया. जिसमें पहला शील है, अहिंसा. जिसके अनुसार किसी भी जीवित प्राणी को कष्ट पहुंचाना अथवा मारना वर्जित कर दिया गया था. दूसरा शील था, अचौर्य. जिसका अभिप्राय था कि किसी दूसरे की वस्तु को न तो छीनना न उस कारण उससे ईर्ष्या करना. तीन शील सत्य था. मिथ्या संभाषण भी एक प्रकार की हत्या है. सत्य की हत्या. इसलिए उससे बचना, सत्य पर डटे रहना. तीसरे शील के रूप में तृष्णा न करना शामिल था. व्यक्ति के पास जो है, जो अपने संसाधनों द्वारा अर्जित किया गया, उससे संतोष करना. आवश्यकता से अधिक की तृष्णा न करना. इसलिए कि यह पृथ्वी जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है, मगर तृष्णा एक व्यक्ति की भी भारी पड़ सकती है. पांचवा शील मादक पदार्थों के निषेद्ध को लेकर है.पंचशील को पाने के लिए उन्होंने अष्ठांगिक मार्ग बताया था, जिसमें उन्होंने सम्यक दृष्टि(अंधविश्वास से मुक्ति), सम्यक वचन(स्पष्ट, विनम्र, सुशील वार्तालाप), सम्यक संकल्प(लोककल्याणकारी कर्तव्य में निष्ठा, जो विवेकवान व्यक्ति से अभीष्ट होता है), सम्यक आचरण(प्राणीमात्र के साथ शांतिपूर्ण,मर्यादित, विनम्र व्यवहार), सम्यक जीविका(किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना), सम्यक परिरक्षण(आत्मनियंत्रण और कर्तव्य के प्रति समर्पण का भाव), सम्यक स्मृति(निरंतर सक्रिय एवं जागरूक मस्तिष्क)तथा सम्यक समाधि(जीवन के गंभीर रहस्यों पर सुगंभीर चिंतन) पर जोर दिया था.
बुद्ध की चिंता थी कि किस प्रकार मानव-जीवन को सुखी एवं समृद्ध बनाया जाए. सुख से उनका अभिप्राय केवल भौतिक संसाधनों की उपलब्धता से नहीं था. इसके स्थान पर वे न केवल मानवजीवन के लिए सुख की सहज उपलब्धता चाहते थे, बल्कि समाज के बड़े वर्ग के लिए सुख की समान उपलब्धता की कामना करते थे. यह वैदिक ब्राह्मणवाद के समर्थकों से एकदम भिन्न था. जिन्होंने परलोक की काल्पनिक भ्रांति के पक्ष में भौतिक सुखों की उपेक्षा की थी, जबकि उनका अपना जीवन भोग और विलासिता से भरपूर था. यही नहीं वर्णाश्रम व्यवस्था के माध्यम से उन्होंने समाज के बहुसंख्यक वर्गों, जो मेहनती और हुनरमंद होने के साथ-साथ समाज के उत्पादन को बनाए रखने के लिए कृतसंकल्प थे, सुख एवं समृद्धि से दूर रखने की शास्त्राीय व्यवस्था की थी. शूद्र कहकर उसको अपमानित करते थे.और इस आधार पर उन्हें अनेक मानवीय सुविधाओं से वंचित रखा गया था.
उल्लेखनीय है कि वेदों के आडंबरवाद का विरोध उन्हीं दिनों शुरू हो चुका था.उस समय के महानतम विद्वान कौत्स तो वैदिक ऋचाओं को शब्दाडंबर मात्र मानते थे. समाज का बड़ा वर्ग वैदिक परंपराओं का खंडन करता था. इस कारण वेद समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच घमासान भी होते रहते थे.जिनसे कूटनीति और छल के कारण ब्राह्मणवादियों को विजय प्राप्त हुई थी.दरअसल यह बुद्ध ही थे जिन्होंने दर्शन को वायवी आडंबर से बाहर लाकर आचरण और व्यवहार के धरातल पर लाकर अवस्थित किया था. उन्होंने दर्शन को निरर्थक और अनुपयोगी प्रश्नों के चक्र से बाहर लाकर जीवन से जोड़ा. मानव मन की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं के सापेक्ष नैतिकता को केंद्र में लेकर आए. पंडितों और पुरोहितों से अलग भाषा अपनाते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि धर्म और दर्शन, दोनों का उद्देश्य इस विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्मांड की उत्पत्ति की व्याख्या नहीं. आज प्रयोगों द्वारा सिद्ध हो चुका है कि ब्रह्मांड की व्याख्या वैज्ञानिक नियमों द्वारा ही सटीक ढंग से की जा सकती है. नैतिकता से कटा हुआ धर्म महज आडंबर है. विरोधियों की आलोचना की परवाह न करते हुए उन्होंने आगे कहा कि सृष्टि का केंद्र मनुष्य है, न कि ईश्वर. धर्म के बारे में उनका कहना था कि उसका केंद्र-विषय नैतिकता है. वे जीवन में दुःख को अवश्यंभावी मानते थे. साथ ही उनका मानना था कि दुःखों से मुक्ति संभव है. इसके लिए जीवन के प्रति संपूर्ण समर्पण अनिवार्य है.
पुरोहितों और पंडितों के चंगुल से आमजन को बचाने के लिए उन्होंने अष्ठांग मार्ग का प्रवर्त्तन किया. जीवन की पवित्रता के लिए उन्होंने उसको संपूर्णता के साथ अपनाने की सलाह दी. बात-बात पर पुरोहितों और धर्माचार्यों की शरण में जाने वाले लोगों को उन्होंने नेक सलाह दी—अप्प दीपो भवः! अपना दीपक स्वयं बनो. उन्होंने जोर देकर कहा कि सुख केवल शीर्षस्थ वर्गों की बपौती नहीं है. गृहस्थ के लिए धनार्जन न तो पाप है, न कोई अभिशाप. जीवन के प्रति मध्यमार्गी दृष्टिकोण अपनाते हुए उन्होंने धर्नाजन को गृहस्थ के लिए अनिवार्य उपक्रम माना. वे पहले धर्माचार्य थे, जिन्होंने गणतंत्र का पक्ष लिया, यह उस युग में एकदम क्रांतिकारी था. परिणाम यह हुआ कि सांसारिक सुखों के प्रति जनसामान्य पापबोध लगातार घटने लगा.शिल्पकर्मियों को शूद्र का दर्जा देकर उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता था. बौद्ध धर्म में जाति-वर्ण के लिए कोई स्थान न था. बल्कि सभी के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार था. इसलिए जातीय उत्पीड़न का शिकार रही जातियां बड़ी तेजी से बौद्धधर्म में शामिल होने लगीं. देखते ही देखते वह देश की सीमाएं पार कर, विदेशी भूमियों पर अपनी पकड़ बनाता गया.
बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे. उनके समकालीन महावीर स्वामी भी क्षत्रिय ही थे. दोनों ने ही राजनीतिक सुख-सुविधाओं को ठुकराकर अध्यात्म-चिंतन का मार्ग चुना था. राजघराना छोड़कर उन्होंने चीवर धारण किया था. इसलिए बाकी वर्गों में विशेषकर उन लोगों में जो ब्राह्मणों और उनके कर्मकांडों से दूर रहना चाहते थे, जैन और बौद्धधर्म की खासी पैठ बनती चली गई. मगर सामाजिक स्थितियां बौद्ध धर्म के पक्ष में थीं. इसलिए कि एक तो वह व्यावहारिक था.दूसरे जैन दर्शन में अहिंसा आदि पर इतना जोर दिया गया था कि जनसाधारण का उसके अनुरूप अपने जीवन को ढाल पाना बहुत कठिन था.यज्ञों एवं कर्मकांडों के प्रति जनसामान्य की आस्था घटने से उनकी संख्या में गिरावट आई थी. उनमें खर्च होने वाला धर्म विकास कार्यों में लगने लगा था. पहले प्रतिवर्ष हजारों पशु यज्ञों में बलि कर दिए जाते थे. महात्मा बुद्ध द्वारा अहिंसा पर जोर दिए जाने से पशुबलि की कुप्रथा कमजोर पड़ी थी.उनसे बचा पशुधन कृषि एवं व्यापार में खपने लगा. शुद्धतावादी मानसिकता के चलते ब्राह्मण समुद्र पार की यात्रा को निषिद्ध और धर्म-विरुद्ध मानते थे.बौद्ध धर्म में ऐसा कोई बंधन न था. इसलिए अंतरराज्यीय व्यापार में तेजी आई थी. चूंकि अधिकांश राजाओं द्वारा अपनाए जाने से बौद्ध धर्म राजधर्म बन चुका था, इसलिए युद्धों में कमी आई थी, जो राजीनितिक स्थिरता बढ़ने का प्रमाण थी. व्यापारिक यात्राएं सुरक्षित हो चली थीं. जिससे व्यापार में जोरदार उछाल आया था.
ये सभी स्थितियां जनसामान्य के लिए भले ही आह्लादकारी हों, मगर ब्राह्मण-धर्म के समर्थकों के लिए अत्यंत अप्रिय और हितों के प्रतिकूल थीं.इसलिए उसका छटपटाना स्वाभाविक ही था. अतएव महात्मा बुद्ध को लेकर वे ओछे व्यवहार पर उतर आए थे. बुद्ध का जन्म शाक्यकुल में हुआ था, जो वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार क्षत्रियों में गिनी जाती थी. ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र कहकर लांछित किया, जिसको बुद्ध इन बातों से अप्रभावित बने रहे.दर्शन को जनसाधारण की भावनाओं का प्रतिनिधि बनाते हुए उन्होंने दुःख की सत्ता को स्वीकार किया. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दुःख निवृत्ति संभव है. उसका एक निर्धारित मार्ग है. दुःख स्थायी और ताकतवर नहीं है.बल्कि उसको भी परास्त किया जा सकता है.
बुद्ध का दर्शन वर्जनाओं का दर्शन है. सबसे पहले वह वर्णाश्रम व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. उस व्यवस्था पर प्रहार करते हैं, जो ब्राह्मणों को विशेषाधिकार संपन्न बनाती है. पुरोहितवाद की जरूरत को नकारते हुए वे कहते हैं—‘अप्प दीपो भव!’ अपना दीपक आप बनो. तुम्हें किसी बाहरी प्रकाश की आवश्यकता नहीं हैं. किसी मार्गदर्शक की खोज में भटकने से अच्छा है कि अपने विवेक को अपना पथप्रदर्शक चुनो. समस्याओं से निदान का रास्ता मुश्किलों से हल का रास्ता तुम्हारे पास है. सोचो, सोचो और खोज निकालो. इसके लिए मेरे विचार भी यदि तुम्हारे विवेक के आड़े आते हैं, तो उन्हें छोड़ दो. सिर्फ अपने विवेक की सुनो. करो वही जो तुम्हारी बुद्धि को जंचे. उन्होंने पंचशील का सिद्धांत दुनिया को दिया. उसके द्वारा मर्यादित जीवन जीने की सीख दुनिया को दी. कहा कि सिर्फ उतना संजोकर रखो जिसकी तुम्हें जरूरत है. तृष्णा का नकार…हिंसा छोड़, जीवमात्र से प्यार करो. प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि तुम्हें है. इसलिए अहिंसक बनो.झूठ भी हिंसा है. इसलिए कि वह सत्य का दमन करती है. झूठ मत बोलो.सिर्फ अपने श्रम पर भरोसा रखो. उसी वस्तु को अपना समझो जिसको तुमने न्यायपूर्ण ढंग से अर्जित किया है. पांचवा शील था, मद्यपान का निषेध. बुद्ध समझते थे वैदिक धर्म के पतन के कारण को. उन कारणों को जिनके कारण वह दलदल में धंसता चला गया. दूसरों को संयम, नियम का उपदेश देने वाले वैदिक ऋषि खुद पर संयम नहीं रख पा रहे थे. अपने आत्मनियंत्रण को खोते हुए उन्होंने खुद ही नियमों को तोड़ा. मांस खाने का मन हुआ तो यज्ञों के जरिये बलि का विधान किया. कहा कि ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’और अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए पशुओं की बलि देते चले गए. नशे की इच्छा हुई तो सोम को देवताओं का प्रसाद कह डाला और गले में गटागट मदिरा उंडेलने लगे. ऐसे में धर्म भला कहां टिकता. कैसे टिकता!
बुद्ध पहले महात्मा थे, साहचर्य का पाठ दुनिया को पढ़ाया. उससे पहले आश्रम सहजीवन की पहचान हुआ करते थे. लेकिन वहां गुरु का नाम चलता था. सारे आश्रम गुरु के नाम से जाने जाते थे. वौद्ध विहार किसी एक भिक्षु की संपत्ति नहीं थे. वे सबसे साझे थे. बुद्ध का कहना था कि जो है, सबका है.जितना है, उसको मिलबांटकर उपयोग करो. उनके भिक्षुसंघ की व्यवस्था ही ऐसी थी. प्रारंभ में गौतम बुद्ध का शिष्यत्व धारण करने वाले अधिकांश भिक्षु राजपरिवारों से आए थे. संघ के नियमानुसार प्रत्येक भिक्षु को चीवर धारण करना पड़ता था. जिसका अर्थ है जीर्ण-शीर्ण परिधान. उस समय आम आदमी के यही वस्त्र थे. वह मेहनत मजदूरी करता और अपने राजा के लिए कमाता था. जमीन या संपत्ति पर उसका अधिकार न था. वह राजा की मानी जाती थी. लगान चुकाने के बाद जो बचता उससे वह सिर्फ आधा तन ही ढक पाता था. बहुत बाद में अपने राजनीतिक गुरु गोविंदवल्लभ पंत के कहने पर गांधी जी जब ‘भारत को जानने’ के लिए यात्रा पर निकले तो उन्होंने भी एक नदी तट पर ऐसे ही अंधनंगे स्त्री-पुरुषों को देखकर अपने वस्त्र उनकी ओर बहा दिए थे. उसके बाद साबरमती का वह फकीर अधनंगे तन की अंग्रेजों से जूझता रहा. वह जनता के दुःख-दर्द को पहचानकर उसके करीब आने की,राजा से रंक बनने की कोशिश थी. बिना इसके लोगों के दिल में बनाना आसान न था. बौद्ध संघों के नियम भी ऐसे थे कि जो भी वहां आए, अतीत के वैभव को बिसराकर सच्चे मन से आए.
बुद्ध के कुछ शिष्यों को अच्छा नहीं लगा कि उनका गुरु ऐसे जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण करे. यह उनका प्रेरक रहा होगा. मगर यह उस सत्ता की प्रतीति का भी परिणाम था, जो धर्मसत्ता के संगठित होते-होते आकार ले लेता है.ऐसे शिष्यों ने बुद्ध के लिए नए कपड़े से बुना चीवर लाकर दिया. प्रार्थना की कि उसको पहनें. बुद्ध ने अपने शिष्यों पर निगाह डाली. वे भी जीर्ण-शीर्ण चीवर में थे. ‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है. लेकिन संघ में तो सभी बराबर हैं.बाकी भिक्षु भी पुराने वस्त्र क्यों धारण करें. उस दिन के बाद से संघ में पुराने कपड़े का बना चीवर पहनने की शर्त हटा दी गई.
ऐसा ही एक और उदाहरण है. गौतम बुद्ध की मां माया तो उन्हें जन्म देने के नवें दिन ही मर चुकी थीं. उन्हें मां का स्नेह देकर पालने वाली थी, गौतमी,जिन्हें वे सदैव मां का सम्मान देते रहे. गौतम बुद्ध ने भिक्षु संघ की स्थापना की तो गौतमी भी उसमें सम्मिलित हो गई. सर्दी का मौसम था. गौतमी ने बुद्ध को एकमात्र चीवर में देखा तो उनका वात्सल्य मचलने लगा. जानती थीं कि राजपाट को ठोकर मार चुका उनका संन्यासी बेटा सर्दी से बचाव के लिए भी अन्य वस्त्र धारण नहीं करेगा. इसलिए उन्होंने रातदिन लगकर बुद्ध के लिए एक गुलुबंद तैयार किया. उसको लेकर वे खुशी-खुशी उनके पास पहुंची और उनसे पहनने का आग्रह किया. बुद्ध ने बाकी भिक्षुओं की ओर देखा. वे सभी एकमात्र चीवर में थे. उन्होंने गुलुबंद लेने से इनकार कर दिया. बोले कि यदि यह उपहार है तो सभी भिक्षुओं के लिए होना चाहिए. सिर्फ उन्हीं के लिए क्यों? गौतमी ने बहुत अनुनय-विनय की. लेकिन बुद्ध नहीं माने.समाजवाद की, सहजीवन की पहली शर्त है, संसाधनों में बराबर की हिस्सेदारी.इसके लिए उनका राष्ट्रीयकरण. बुद्ध ने भिक्षु संघ की जो व्यवस्था की थी,उसके अनुसार समस्त संपत्ति संघ की मानी जाती थी. संपत्ति और संसाधनों के समान बंटवारे के अतिरिक्त भिक्षु संघ में अधिकारों का भी एकसमान विभाजन था. सभी निर्णय सहमति के आधार पर लिए जाते थे.भिक्षु संघ के बीच महात्मा बुद्ध की हैसियत अधिक से अधिक एक प्रधान सचिव जैसी थी. किसी को भी मनमानी करने अथवा अपना निर्णय थोपने का अधिकार नहीं था. महात्मा बुद्ध वैशाली गणतंत्र के प्रशंसक थे. ऐसी ही व्यवस्था वे भिक्षु संघ में चाहते थे. जीवन के उत्तरार्ध में कम से कम दो अवसर ऐसे आए, जब उनसे उनके उत्तराधिकारी के बारे में पूछा गया था.कहा गया कि जिसको वे उपयुक्त समझते हों उसको संघ की व्यवस्था सौंप सकते हैं. उस समय यदि वे चाहते तो किसी भी व्यक्ति को यह दायित्व सौंपकर उपकृत कर सकते थे. मगर हर बार उन्होंने यही कहा कि धम्म ही संघ का सेनापति है. और आजकल के कथावाचक टाइप स्वयंभू भगवानों को देखें, जो धर्म के नाम पर बने अपने संगठन को भी किसी कारपोरेट कंपनी की भांति चलाते हैं. धर्म के नाम पर जनसाधारण की भावनाओं का दोहन कर मुनाफा बटोरना और पूंजी बटोरना ही उनका ही उनका व्यवसाय है.शंकराचार्य की गद्दी पाने के लिए षड्यंत्र किए जाते हैं, हत्याएं तक होती हैं.
बुद्ध कोरे अध्यात्म पर जोर नहीं देते. बल्कि व्यक्ति की दैनंदिन की समस्याओं पर भी विचार करते हैं. बुद्ध का दुःख की शाश्वतता को स्वीकारना और उसे अपने चिंतन की परिधि में लाना उन्हें व्यावहारिक और जनसाधारण के निकट लाता है. मगर दुःख की बात कहकर, वे डराते नहीं हैं.वे स्पष्ट कहते हैं कि दुःख की सत्ता है, और उसका कारण भी है. कारण का निवारण कर दुःख से मुक्ति संभव है. इसके लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है. खुद को पहचानो. अपने भीतर छिपे प्रकाश को पकड़ो.
यूं तो हिंदू दर्शन भी चार पुरुषार्थों को मान्यता देता है. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष. लेकिन काम और मोक्ष को लेकर भारतीय परंपरा विरोधाभासों का शिकार रही है. एक ओर तो व्यक्ति को अर्थ और काम के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा है, दूसरे उन्हें माया और भ्रांति कहकर पारलौकिक सुख का लालच दिया जाता रहा. बुद्ध मुक्ति की बात नहीं कहते. मुक्ति का अभिप्राय वैदिक आचार्यों को लिए आत्मा का परमात्मा से सम्मिलन रहा है. बुद्ध आत्मा और परमात्मा को अचिंत्य मानते थे. इसलिए उन्होंने निर्वाण का पक्ष लिया. मुक्ति के लिए मृत्यु अनिवार्य है. निर्वाण इसी जीवन में संभव है. बस उसके लिए चित्त-वृत्ति-निरोध और आत्मसंयम की आवश्यकता है. भिक्षु के लिए उन्होंने किंचित कठोर नियम बनाए थे. संन्यासी को संचय की आवश्यकता ही क्या. यदि संचय से लगाव था तो संन्यास की आवश्यकता ही क्या थी. अतः भिक्षु को चाहिए कि वह प्रतिदिन पहनने के लिए तीन वस्त्र(त्रीचीवर), एक कटिबांधनी यानी कमर में बांधने वाली पेटी, एक भिक्षापात्र, वाति यानी उस्तरा, सुई-धागा तथा पानी साफ करने के लिए एक छननी अथवा छन्ना के अतिरिक्त कुछ और न रखे. भिक्षु के लिए महंगी धातुएं यथा सोना, चांदी पहनना या पास में रखना निषिद्ध था. डर था कि सोने को बेचकर वह विलासिता का प्रतीक बाकी वस्तुएं भी खरीद सकता है.
एक ओर जहां भिक्षु के लिए इतने सख्त नियम थे, वहीं गृहस्थ को उन्होंने उदारतापूर्वक संपत्ति संचय की छूट दी थी. इस संबंध में एक कथा है—
अनाथ पिंडक गौतम बुद्ध का प्रिय शिष्य था. एक बार उसने सोचा कि गौतम बुद्ध ने भिक्षुओं की संचय की प्रवृत्ति के निषेध के लिए काफी कठोर नियम बनाए हैं. इसलिए उसके मन में जिज्ञासा जगी कि बुद्ध से व्यक्तिगत संपत्ति के बारे में उनका मत जाना जाए. निर्वाण की लालसा तो जितनी भिक्षु को है, करीब-करीब उतनी ही गृहस्थ को भी होती है.इसलिए अभिवादन करने के बाद उसने गौतम बुद्ध से पूछा—
‘क्या भगवन, यह बताएंगे कि गृहस्थ के लिए कौन-सी बातें स्वागत-योग्य, सुखद एवं स्वीकार्य हैं, परंतु जिन्हें प्राप्त करना दुष्कर है?’
प्रश्न सुनने के उपरांत बुद्ध ने कहा—
‘इनमें प्रथम विधिपूर्वक धन अर्जित करना है. दूसरी बात यह देखना है कि आपके संबंधी भी विधिपूर्वक धन-संपत्ति अर्जित करें. तीसरी बात है दीर्घकाल तक जीवित रहो और लंबी आयु प्राप्त करो.’
गृहस्थ को इन चार चीजों की प्राप्ति करनी है, जो कि संसार में स्वागत-योग्य, सुखकारक तथा स्वीकार्य हैं. परंतु जिन्हें प्राप्त करना कठिन है. चार अवस्थाएं भी हैं, जो कि इनसे पूर्ववर्ती हैं. वे हैं, श्रद्धा, शुद्ध आचरण,स्वतंत्रता और विवेक. शुद्ध आचरण दूसरे का जीवन लेने अर्थात हत्या करने, चोरी करने, व्यभिचार करने तथा मद्यपान करने से रोकता है.
स्वतंत्रता ऐसे गृहस्थ का गुण होती है, जो धनलोलुपता के दोष से मुक्त,उदार, दानशील, मुक्तहस्त, दान देकर आनंदित होने वाला और इतना शुद्ध हृदय का हो कि उसे उपहारो का वितरण करने के लिए कहा जा सके.
बुद्धिमान कौन है?
जो यह जानता हो कि जिस गृहस्थ के मन में लालच, धन लोलुपता, द्वेष,आलस्य, उनींदापन, निद्रालुता, अन्यमनस्कता तथा संशय है और जो कार्य उसको करना चाहिए, उसकी उपेक्षा करता है, और ऐसा करने वाला प्रसन्नता तथा सम्मान से वंचित रहता है.
लालच, कृपणता, द्वेष, आलस्य तथा अन्यमनस्कता तथा संशय मन के कलंक हैं. जो गृहस्थ मन के इन कलंकों से छुटकारा पा लेता है, चह महान बुद्धि, प्रचुर बुद्धि एवं विवेक, स्पष्ट दृष्टि तथा पूर्ण बुद्धि व विवेक प्राप्त कर लेता है.
अतएव, न्यायपूर्ण ढंग से तथा वैध रूप में धन प्राप्त करना, भारी परिश्रम से कमाना, भुजाओं की शक्ति व बल से धन संचित करना, तथा भौहों का पसीना बहाकर परिश्रम से प्राप्त करना, एक महान वरदान है. ऐसा गृहस्थ स्वयं को प्रसन्न तथा आनंदित रखता है तथा अपने माता-पिता, पत्नी तथा बच्चों, मालिकों और श्रमिकों, मित्रों तथा सहयोगियों, साथियों को भी प्रसन्नता तथा प्रफुल्लता से परिपूर्ण रखता है.’
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि बुद्ध का दर्शन मानव जीवन को संपूर्ण और परिपक्व बनाने के लिए आग्रहशील है. वह सीधे-सीधे उस ब्राह्मणवाद के विरोध में जन्मा था, जिसके केंद्र में जनसाधारण था ही नहीं. जो आत्ममोह से ग्रस्त समाज था, एक प्रकार से लड़ाकू कबीला. जो सिर्फ वर्चस्व की भाषा जानता था. बुद्ध गणतंत्र के प्रशंसक थे. इसलिए उनके दर्शन-चिंतन में भी गणतंत्र की खूबियां हैं. वे न केवल सामाजिक समानता पर जोर देते हैं, और उसके लिए सामाजिक समाज के जातीय विभाजन को दोषी ठहराते हैं, वहीं आर्थिक अधिकार देकर व्याक्ति को उन सामंती संस्कारों से बचाए रखना चाहते हैं, जो धर्म और राजनीति की कुटिल संधियों की उपज थे. इन सब कारणों से बुद्ध का दर्शन समाजवादी भावनाओं से ओत-प्रोत जान पड़ता है.कई मायने में तो वह माक्र्स के वैज्ञानिक समाजवाद तथा व्यक्ति से भी आगे ले जाता है. इसलिए कि भौतिक द्वंद्ववाद का विश्लेषण करता हुआ माक्र्स उत्साह के साथ शुरू तो करता है, मगरउसका चिंतन आर्थिक पहलुओं से आगे नहीं बढ़ पाता. वह आर्थिक समस्याओं को जीवन की मूल समस्याओं के रूप में देखता है. जबकि ऐसा नहीं है. दूसरी ओर बुद्ध का दर्शन राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक समानता यानी समानता के सभी पहलुओं की विस्तार से चर्चा करता है. और आर्थिक मानवीकरण के मुद्दे पर कई जगह से मार्क्स के समाजवाद से आगे निकल जाता है.
जैन दर्शन में समाजवादी तत्त्व
जैन धर्म के चैबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी, बुद्ध के समकालीन, उनसे लगभग तीस वर्ष बड़े थे. दोनों के दर्शन में काफी समानता है. जैसे कि दोनों ही क्षत्रिय परिवार में जन्मे थे. दोनों ने ही अपना दर्शन ब्राह्मणवाद के विरोध में प्रस्तुत किया था. दोनों ही कर्मकांड के बजाय आचरण की पवित्रता के प्रति अधिक आग्रहशील थे. आत्मा-परामात्मा और ईश्वर आदि की वैदिक मताब्लंबियों की बंधी-बंधाई धारणा पर उन्हें विश्वास नहीं था. वैदिक ग्रंथों में श्रमणों का जगह-जगह उल्लेख हुआ है. ये श्रमण कर्मकांड के विरोधी थे.अपनी जिज्ञासा के समाधान हेतु अधिकांश प्रकृति के सान्न्ध्यि में रहकर सृष्टि के रहस्यों की खोज में लगे रहते थे. जैन धर्म में विश्वास करने वाले श्रद्धालुओं का मानना है कि नदी को पाटने का पहला चमत्कार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी किया था. इसके अतिरिक्त लिपिकला, कुंभकारी, चित्रकारी तथा मूर्तिशिल्प का भी आविष्कार उन्होंने ही किया था. ऋषभदेव का नाम यजुर्वेद तथा श्रीमद् भागवत में भी आया है. ईसा से लगभग 900 वर्ष पूर्व जन्मे बाइसवें तीर्थंकर अरिष्ठनेमि भी क्षत्रिय वंशज तथा कृष्ण के चचेरे भाई थे.कृष्ण के प्रयासों के फलस्वरूप ही राजकुमारी राजमती से उनका विवाह तय हुआ था. लेकिन अरिष्ठनेमि ने जब अपने विवाह में हिरन समेत अन्य निरीह प्राणियों को बलि होते देखा तो उनका मन उचट गया, उसके बाद उन्होंने अपना समस्त जीवन बलि की कुप्रथा को समाप्त करने पर झोंक दिया. तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी अहिंसा पर जोर देते थे. एक किवदंति के अनुसार उन्होंने एक सर्प की उस समय प्राणरक्षा की थी, जब ब्राह्मण उस वृक्ष को जहां वह रहता था, जला देने का प्रयास कर रहे थे. उनका विवाह एक राजकुमारी के साथ हुआ था. तीस वर्ष तक सुखी गृहस्थ का जीवन जीने के बाद एक दिन उन्हें वैराग्य सूझा और अपनी समस्त संपत्ति दान देकर प्रवज्या ले ली. पार्श्वनाथ अपने शिष्यों के बीच बहुत प्रिय थे. उन्हें जैन साधुओं एवं साध्वियों को संगठित कर उन्हें संगठन का रूप देने का श्रेय दिया जाता है. उनके आदर्श ऊंचे थे. जीवन नैतिकता के उच्च मापदंडों ये युक्त एवं अनुशासित होता था.
जीवन परिचय
जैन धर्म के प्रवर्त्तक चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म ईसा से599 वर्ष पहले वैशाली के निकट कुंदपुरा नामक स्थान पर हुआ था. बुद्ध की भांति वे भी क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे. उस समय पुरोहितों के कर्मकांड अपने शिखर पर थे. यज्ञादि अनुष्ठानों के बीच पोंगापंथी, बुद्धि के नाम पर वितंडा रचना, ज्ञान के स्थान पर पौरोहित्य का प्रशिक्षण देना और तर्क की जगह तंत्र-मंत्र साधना ही उस समय अध्यात्म चिंतन मान लिया जाता था.चारों ओर ब्राह्मणवाद का बोलबाला था, जो स्वयं छोटे-छोटे गुटों में बंटे थे.उनके बीच ढेर सारे मतांतर थे. उनमें आपस में बहसें चलती रहती थीं. सिर्फ वर्गीय श्रेष्ठता के दावे और स्वार्थ संबंधी मुद्दों को छोड़कर दूसरा शायद की कोई ऐसा पक्ष था, जिसपर वे सभी एकमत होते हों. देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा था. राजा अन्यान्य कारणों से परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते थे. पूरी श्रमण परंपरा, जिनमें कौत्स एवं सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जैसे विद्वान,चार्वाक दार्शनिक उनके विरोध में थे. प्रजा मन से लोकायतों और श्रमणों के साथ थी, किंतु ब्राह्मणवादी कर्मकांडों से गुजरना उसकी व्यावहारिक मजबूरी थी.
महावीर स्वामी के पिता का नाम सिद्धार्थ और मां त्रिशला थीं. पिता पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे. त्रिशला देवी वैशाली के राजा की बहन थी. महावीर स्वामी के बचपन का नाम वर्धमान था. इस नामकरण के पीछे भी एक रहस्य था.बताते हैं कि जब वे गर्भ में थे, उन दिनों राजकोष में तीव्र वृद्धि हुई थी. यही उनके वर्धमान नामकरण का कारण बना. बचपन में उनका लालन-पालन राजकीय वैभव के बीच हुआ. वे स्वभाव से उदार, निडर और शक्तिशाली थे.एक बार उत्तेजित हाथी की सूंड पकड़कर उसपर सवारी गांठने और दूसरी घटना में विषैले नाग को पूंछ पकड़कर एक ओर फेंक देने जैसे साहसपूर्ण कार्य दिखाने के बाद सभी उन्हें ‘महावीर’ कहने लगे थे. उनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ हुआ, जिनसे एक बेटी भी जन्मी. राजसी वैभव के बीच पलने-बढ़ने के बावजूद वहां का वातावरण उन्हें पसंद न था. सारे ठाठ-बाट, नौकर-चाकर, वैभव-विलास बनावटी लगने लगे. माता-पिता की मृत्यु के बाद महावीर का संसार से मन उचट गया. उन्होंने संन्यास लेने का निर्णय लिया. उस समय उनकी अवस्था मात्र अठाइस वर्ष की थी. मगर अपने बड़े भाई के आग्रह पर उन्होंने दो वर्ष और परिवार के साथ बिताने के लिए सहमत हो गए.
अगले दो वर्ष महावीर ने खुद को सुख-सुविधाओं से मुक्त करने का अभ्यास करते हुए बिताए. उन्होंने एक-एक कर अपनी सारी वस्तुएं भिखारियों को दान कर दीं. राजकीय वैभव-विलास से परे रहकर अपने मन और शरीर को तापसी जीवन के लिए तैयार करने लगे. तीस वर्ष की अवस्था तक वे अपनी समस्त धन-संपत्ति, विलासितापूर्ण साम्रगी, परिवार यहां तक कि पत्नी से भी किनारा कर चुके थे. अपने गांव कुंदपुरा में दो दिनों तक निराहार, निर्जल,मौन रहते हुए उन्होंने अपने सिर के बाल उखाड़ लिए. देह से वस्त्राभरण दूर करने के उपरांत उन्हें अद्भुत शांति की प्रतीति हुई. एकमात्र उत्तरीय को कंधों पर डाल उन्होंने गृहस्थान छोड़ने का संकल्प कर लिया. जिस समय वे प्रस्थान कर रहे थे, ठीक उसी समय एक भिखारी वहां उपस्थित हुआ. यह कहकर कि गत दो वर्षों से वे जो दान करते आ रहे हैं, उससे वह वंचित रहा है, उसने महावीर से दान की अपेक्षा की. इसपर महावीर ने कंधे पर पड़े उत्तरीय में से आधा फाड़कर उस भिखारी को थमाया और वहां से प्रस्थान कर गए.
वास्तविक ज्ञान और आत्मशांति की खोज करते हुए महावीर मोरेगा पहुंचे.वहां एक मठ के अधिपति उनके पिता के मित्र थे. मठाधीश के आग्रह पर महावीर ने वर्षाकाल को वहीं ठहरकर बिताने का निश्चय किया. ठहरने के लिए मठ की ओर से उन्हें एक झोपड़ी भी मिल गई. उससे पिछले वर्ष मोरेगा और आसपास के क्षेत्र में भयानक सूखा पड़ा था. उसकी भीषण मार से समस्त वनस्पतियां झुलस चुकी थीं. जंगली पशु-पक्षियों के समक्ष भीषण खाद्य-संकट था. एक दिन आश्रम में अपेक्षाकृत हरियाली देख, भूख से व्याकुल पशुओं का रेला वहां आ धमका. मठ में रह रहे बाकी संन्यासी पशुओं को भगाने के लिए बल-प्रयोग करने लगे. मगर महावीर क्षुधा-पीड़ित पशुओं को देख करुणा से आद्र हो गए. बजाय भगाने के लिए वे स्वयं झोपड़ी से एक ओर हो गए. भूखे पशुओं ने कुछ ही देर में सारा छप्पर साफ कर दिया.उनकी शिकायत मठाधिपति तक पहुंची. इसपर महावीर स्वामी ने आश्रम छोड़ दिया. वर्षाकाल बिताने के लिए निकटवर्ती गांवों की ओर प्रस्थान कर गए. एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते हुए महावीर स्वामी को विचित्र अनुभव हुए. उन्हें समाज को करीब से देखने-समझने का अवसर प्राप्त हुआ.ज्ञान की खोज में वे उन ब्राह्मण साधुओं से भी मिले जिनका जीवन के नाम पर खुद को सांसारिक सुखों से दूर रखने के लिए उन्होंने अपने लिए पांच कठोर नियम बनाए. वे नियम थे: किसी अस्नेही, अनुदार व्यक्ति का आथित्य ग्रहण न करना. प्रस्तर प्रतिमा की भांति, एक ही स्थान पर देर तक अडोल खड़े रहना, शांत रहना. बिना बर्तनों के भोजन करना तथा गृहस्थों के साथ विनम्रता से पेश न आना.
पांचवा नियम कुछ विचित्र था, मगर खुद को सांसारिक सुखों से वंचित रखना, किसी भी प्रकार की श्रद्धा के अतिरेक से स्वयं को बचाए रखना ही उसका उद्देश्य था. गर्मियों में तपते मैदान में नंगे पैर एक ही स्थान पर खड़े-खड़े वे पूरी दोपहरी बिता देते थे. सर्दियों में खुले आसमान के नीचे नंगे तन रहकर शीतमार झेल जाते. रास्ता चलते हुए एक-एक कदम बहुत सावधानी से रखते, ताकि निरीह जीवों की हत्या न हो. सायं होने पर वे सुनसान खंडहर, शमशान घाट, वन, उपवन अथवा जहां भी एकांत मिलता ठहर जाते. मन सृष्टि के रहस्यों की अन्वीक्षा में लीन रहता. भोजन वे बहुत कम करते. भिक्षा भी सिर्फ उतनी ही लेते, जितने से न्यूनतम भोजन की जरूरत पूरी हो सके. भीख वे मांगते नहीं थे. बस घर के सामने से मूक गुजर जाते. उस समय यदि गृहस्वामी बुलाकर स्वेच्छा से कुछ देना चाहता, तो चुपचाप रख लेते. नहीं तो आगे बढ़ जाते. कई बार तो पूरा गांव पार हो जाता. उस अवस्था में उन्हें निराहार रहना पड़ता था. निराहार रहने का उन्हें अभ्यास था. वे लंबे-लंबे उपवास रखते. कभी-कभी तो पूरा महीना ही निराहार रहकर बिता देते. भोजन करते समय भी यदि कोई भिखारी, पशु-प्राणी भोजन की चाहत में सामने पड़ जाता तो अपना भोजन उसको सौंप, निर्लिप्त भाव से आगे प्रस्थान कर जाते थे.
उन दिनों देश छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था. राजाओं के बीच युद्ध और संघर्ष चलते ही रहते थे. शीतयुद्ध की स्थिति बनना तो सामान्य बात थी.महावीर स्वामी को यहां से वहां भटकते देख कुछ लोग उनपर संदेह करते.उन्हें दुश्मन देश का जासूस समझकर पकड़ लिया जाता. कुछ लोग उनपर संदेह भी करते. एक बार बंगाल में चोरेगा नामक स्थान पर राजा के जासूसों ने उन्हें पकड़कर जेल में डाल दिया. एक अन्य अवसर पर रस्सी से बांधकर उनकी पिटाई की गई. वहां से छूटे तो कुइया नामक स्थान पर एक बार फिर जासूसों के चक्कर में फंस गए. उस समय उनके सहयोगी और समर्थक गोसला उनके साथ थे. अंततः राजकर्मियों की गलतफहमी दूर हुई और क्षमायाचना करते हुए उन्हें छोड़ दिया गया. उस घटना के बाद लोग महावीर स्वामी को जानने लगे थे. अपने सहयोगी गोसला के साथ वे पांच वर्ष तक सत्य की खोज में यहां से वहां भटकते रहे. छठे वर्ष में गोसला उनसे अलग हुए. मगर यह अभिन्नता मात्र छह महीने ही रह पाई. अवधि बीतते ही गोसला वापस लौट आए. तत्पश्चात वे चार वर्ष और महावीर स्वामी के साथ रहे. बाद में उन्होंने स्वयं को आजीवक संप्रदाय का प्रवत्र्तक घोषित कर दिया.
महावीर वैशाली लौट गए. उस समय वहां का अधिपति शंख था. जंगल में यहां से वहां भटकते हुए उनक वस्त्र जर्जर हो चुके थे. मगर उन्हें अपनी देह तक सुध न थी. जिस समय वे वैशाली से गुजर रहे थे, कुछ शैतान बच्चों ने उन्हें घेर लिया. वे उन्हें परेशान करने लगे. शंख के प्रयास से ही महावीर स्वामी मुक्त हो सके. बोध की तलाश में यहां से वहां भटकते हुए उन्हें बारह वर्ष बीत गए. अंततः उन्हें सफलता मिली. आत्मबोध हुआ. इस बीच घोर साधना में उनका शरीर सूखकर कांटा हो चुका था. देह के वस्त्र तार-तार होकर लटक चुके थे. मगर आत्मलीन महावीर को उसकी सुध ही नहीं थी.आत्मबोध के आनंद में वे एक ही स्थान पर बिना हिले-डुले छह महीने तक लगातार बैठे रहे. मगर उनकी वह साधना सफल न हो सकी. उनकी पत्नी उन्हें खोजती हुई वहां आ पहुंचीं. इसे अपनी साधना में विघ्न मानकर वे प्रायश्चित में डूब गए.
धीरे-धीरे एक वर्ष और बीत गया. महावीर ने उपवास साधा हुआ था. निर्जल रहते हुए ढाई दिन बीत चुका था. वे मौन साधनारत थे कि अचानक उन्हें निर्वाण की अनुभूति हुई. महावीर स्वामी ने उस अवस्था को कैवल्य कहा है,विदेह हो जाने की उच्चतम स्थिति जब शरीर में रहते हुए भी शरीर का बोध, उसकी सीमाएं समाप्त हो जाता है. व्यक्ति परमज्ञान की अवस्था में होता है. निर्वाण प्राप्ति के उपरांत महावीर स्वामी ने पहला उपदेश दिया.उनके आत्मबोध की प्रथम अनुभूति का विवरण मज्झिम निकाय में है—‘मुझे सबकुछ समझ आ रहा है, मैं सबकुछ पूरी तरह साफ-साफ देख रहा हूं. मुझे पवित्र आत्मज्ञान की प्रतीति हो चुकी है. अब चाहे मैं चलता रहूं अथवा एक ही स्थान पर स्थिर होकर खड़ा रहूं. चाहे सो जाऊं अथवा जागता रहूं,परमज्ञान और उसकी अंतरानुभूति प्रतिपल मेरे साथ है…’
उच्चतम ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत उन्होंने लिजुवेलिया नदी के तट पर धार्मिक सभा को संबोधित किया. यह उनका पहला जनसंबोधन था. मगर पहला प्रभाव बहुत कम रहा. वहां से वे महसाणा के लिए प्रस्थान कर गए.रास्ते में उनकी ब्राह्मणों के एक दल से भेंट हुई जो आत्मबलिदान करने जा रहे थे. उनकी संख्या ग्यारह थी. उन्होंने संस्कृत में बोलने की परंपरा को तोड़ा था, यही उनका अपराध था, जिसके प्रायश्चित के लिए उन्हें आत्मबलिदान करना था. भाषा तो संवादवहन का माध्यम होती है. इसके बावजूद भाषा-विशेष के प्रति इतना दुराग्रह. महावीर को यह बहुत विचित्र जान पड़ा.उन्होंने उन्हें अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर सभी उनके शिष्य बन गए. यह उनकी ब्राह्मणवाद पर पहली विजय थी. जैन दर्शन के प्रथम ग्रंथ अर्धमागधी भाषा में ही लिखे गए हैं.
इस घटना के बाद महावीर स्वामी का यश चतुर्दिक फैलने लगा. लोग उन्हें सिद्ध पुरुष मानने लगे. इंद्रभूति गौतम नाम के एक ब्राह्मण के कानों में जब उनकी ख्याति पहुंची तो वह ईष्र्या से भर उठा और उनसे मिलने के लिए चल दिया. उस समय महावीर स्वामी एक बाग में ठहरे हुए थे. जैसे ही इंद्रभूति बाग तक पहुंचा, महावीर स्वामी ने अपनी अंतर्दृष्टि से उसको पहचान लिया. उन्होंने उसका स्वागत करते हुए कहा—
‘आइए गौतम! मैं जानता हूं कि इस समय आपके मस्तिष्क में आत्मा की सत्ता को लेकर संदेह है. हम उसपर चर्चा कर सकते हैं.’
उसके पश्चात स्वामी महावीर ने उन्हें उपदेश दिया. भारतीय दर्शन में आत्मा की उपस्थिति को लेकर जो विशद चिंतन किया गया है, उसका संदर्भ लेते हुए उन्होंने आत्मतत्व की विवेचना की. इंद्रभूति उनका प्रवचन सुनकर अभिभूत हो गया. उसी दिन उसने महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया. यह सूचना जैसे ही इंद्रभूति के बड़े भाई अग्निभूति तक पहुंची, वह उद्धिग्न हो उठा. अग्निभूति शास्त्रज्ञ पंडित था. अपने तत्वचिंतन पर उसे बड़ा गुमान था. भाई द्वारा महावीर स्वामी का शिष्यत्व ग्रहण करना उसको सहन न हुआ. सूचना मिलते ही वह उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए चल पड़ा. उसने कर्म की वास्तविकता और आत्मा से उसके संबंध को लेकर महावीर स्वामी के समक्ष कई प्रश्न किए, जिनका उन्होंने तथ्यपरक उत्तर दिया. अग्निभूति उनका ज्ञान देख प्रभावित हुआ और अपने छोटे भाई की भांति वह भी उनका शिष्य बन गया. तत्पश्चात एक के बाद एक नौ विद्वान महावीर स्वामी से शास्त्रार्थ पहुंचे और परास्त होकर उनके शिष्य बन गए. उनके शिष्यों की संख्या बढ़कर ग्यारह हो गई. जैन पंरपरा के अनुसार ग्यारह शिष्य अपने साथ अपने अनुयायियों को भी लाए थे, जिनको मिलाकर महावीर के शिष्यों की कुल संख्या 4400 तक पहुंच गई.
कुछ दिनों के बाद अपने शिष्यों के साथ महावीर स्वामी वहां से प्रथान कर गए. रास्ते में न कोई प्रवचन न सभा. उनकी मौन यात्रा 66 दिन तक चलती रही. लगातार चलते हुए वे राजगृह पहुंचे, जो उस समय के शक्तिशाली राज्य मगध की राजधानी था. उस समय बिंबसार वहां का सम्राट था. महावीर स्वामी द्वारा प्रवत्तित नए धर्म को लेकर सम्राट बिंबसार ने उनसे अनेक प्रश्न किए. जिनका उन्होंने संतोषजनक उत्तर दिया. इंद्रभूति ने महावीर स्वामी का शिष्यत्व अवश्य ग्रहण किया था. मगर अपनी विद्वता पर उसको अब भी बड़ा घमंड था. मगध प्रवास के दौरान ही एक वृद्ध व्यक्ति अपनी शंकाएं लेकर महावीर स्वामी के सामने पहुंचा. उसने संस्कृत में एक श्लोक पढ़कर उसकी विवेचना का अनुरोध किया. महावीर उस समय मौन अवस्था में थे.तब आगंतुक ने अपनी जिज्ञासा इंद्रभूति के समक्ष प्रकट की. मगर इंद्रभूति अपने उत्तर से वृद्ध को संतुष्ट न कर सका. वहां उपस्थित अन्य विद्वानों को भी उसकी व्याख्या आधी-अधूरी जान पड़ी. उस समय तक महावीर स्वामी का मौनव्रत पूरा हो चुका था. उन्होंने वृद्ध का प्रश्न सुनकर उसकी शास्त्रसम्मत व्याख्या की. उससे वृद्ध संतुष्ट हो गया. यह देख इंद्रभूति का रहा-सहा दंभ भी जाता रहा.
जैन दर्शन को आरंभिक पहचान मिलने के साथ उसके अनुयायियों को संगठित करना भी अत्यावश्यक था. उन्होंने कुल शिष्यों को भिक्षु, साध्वी,गृहस्वामी और गृहस्वामिनी नामक चार वर्गों में विभाजित किया. धर्म में अनुशासन एवं नैतिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए पांच व्रत साधने होते थे. ये हैं: अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह तथा पवित्रता. इनमें से प्रथम चार पाश्र्वनाथ के विचारों से अनुप्रेरित थे. राजगृह में वर्षाकाल व्यतीत करने के उपरांत महावीर ने वैशाली के लिए प्रस्थान कर दिया. वहां उन्होंने अपनी पुत्री और दामाद जामाली को धर्माेपदेश दिया. इसी दौरान उन्हें पूर्वाभास हुआ कि सम्राट रुद्रायण उनसे मिलना चाहते हैं, वे सिंधु-सौवीर स्थित उनकी राजधानी पहुंचे. रुद्रायण महावीर के विचारों से प्रभावित होकर जैन-श्रमण बन गया. सिंधु-सौवीर से वापसी का रास्ता बहुत कठिनाइयों-भरा था. रास्ते में लंबा रेगिस्तान पड़ता था. भिक्षु-दल के साथ उस रास्ते से गुजरते हुए महावीर को भोजन एवं पानी की समस्या का सामना करना पड़ा. किंतु कठिन साधना की अभ्यस्त हो चुकी देह ऐसी भीषण चुनौतियों से भी निकलना जानती थी. वहां से वे अपनी छोटी-सी शिष्य मंडली के साथ वाराणसी पहुंचे, जिसे वैदिक परंपरा में पवित्र नगरी माना जाता था. वाराणसी में उन्होंने एक अरबपति सेठ को अपना शिष्य बनाया और फिर राजगृह के लिए प्रस्थान कर गए, जहां उन्होंने दो वर्षाकाल बिताए. इस अवधि में उन्होंने युवराज और उनके 25 भाई-बहनों को जैन धर्म की दीक्षा दी. महावीर स्वामी का यश-कीर्ति लगातार बढ़ती ही जा रही थी. उनसे प्रभावित होकर अनेक लोग मिलने आते और श्रमण परंपरा में सम्मिलित होते जाते थे. इस बीच वैदिक ब्राह्मणों से भी शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें उन्होंने अपनी विद्वता से सभी को प्रभावित किया. जैन मत ब्राह्मण-पंथ के लिए लगातार चुनौती बनता जा रहा था.
मगध प्रवास के दौरान ही उन्हें कोशांबी सम्राट का निमंत्रण मिला. वहां पहुंचकर उन्होंने सम्राट प्रद्योत तथा अनेक साम्राज्ञियों को जैनमत की दीक्षा दी. उस वर्ष का वर्षाकाल उन्होंने वैशाली में व्यतीत किया. चातुर्मास पूरे होते ही वे मगध वापस लौट गए. राजगृह में उन्होंने फिर सैकड़ों श्रद्धालुओं को श्रमण-परंपरा में सम्मिलित किया. इस बीच अजातशत्रु ने मगध पर आक्रमण कर उसपर अधिपत्य जमा लिया. राजनीतिक उथल-पुथल से स्वयं के दूर रखते हुए उन्होंने राजगृह छोड़ दिया. वहां से वे चंपा पहुंचे, वहां उन्होंने राजकुमार सहित अनेक नगरवासियों को जैन धर्म में सम्मिलित किया.मगध-सम्राट अजातशत्रु महावीर स्वामी का सम्मान करता था. किंतु यह आस्था उसकी साम्राज्यवादी भावनाओं पर नियंत्रण करने में अपर्याप्त थी.उसने भारी संख्याबल के साथ वैशाली गणतंत्र पर आक्रमण कर दिया. भीषण युद्ध में सम्राट चेतक की मृत्यु के बाद वैशाली पर मगध के कब्जे में आ गई. युद्ध में हुए भारी नरसंहार ने महावीर स्वामी को आहत कर दिया. उन्होंने स्वयं को एकांत तपश्चर्या में लीन कर दिया. अंततः 72 वर्ष की अवस्था में उन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई. संयोग देखिए कि महावीर स्वामी के मृत्यु के अगले ही दिन उनका पहला शिष्य इंद्रभूति गौतम भी निर्वाण प्राप्त हो गया.मगर उस समय तक लाखों श्रद्धालु जैन धर्म को अपना चुके थे.
जैनदर्शन परदुःखकातरता और करुणा पर केंद्रित दर्शन है. इसमें व्यक्तिगत संपत्ति की भावना का निषेध किया गया है. गृहस्थों के लिए तो संपत्ति-संबंधी मान्यताओं में फिर भी किंचित छूट है. किंतु जैन तापसों के लिए तो देह पर वस्त्र धारण करना भी विलासिता की श्रेणी में आता है. यह मान लिया जाता है कि शरीर ढकने के लिए वस्त्र का लालच भी मोक्ष प्राप्ति की अवधि को लंबा खींचने का काम करता है. जैन दर्शन में आवश्यकता से अधिक संचय को पाप माना गया है. समझा गया है कि यह भी एक प्रकार की हिंसा है. जैन दर्शन का संपत्ति संबंधी अवधारणा समाजवादी विचारधारा से मेल खाती है. समाजवाद भी हर व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुरूप देने का आश्वासन देता है. वहां संपत्ति कल्याणकारी राज्य के अधीन सुरक्षित मानी जाती है, जिसका उपयोग नागरिकों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर व्यापक लोककल्याण की कामना के निमित्त किया जाता है.जैनमत के संपत्ति-संबंधी सिद्धांत और समाजवाद में महज इतना अंतर है कि समाजवाद राजनीतिक-संवैधानिक व्यवस्था है. जबकि जैन दर्शन नैतिक आचरण है. वह त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर टिका है. यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं. समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है. जोकि बाहरी और खर्चीला उपक्रम है. उसकी अपेक्षा अपरिग्रह नैतिकता की जमीन पर खड़ा होता है. जाहिर है कि यह उच्च मानवादर्श है.
जैनमत में लोकतांत्रिक समाजवाद का एक अन्य रूप ‘स्याद्वाद’ के रूप में भी मिलता है. जैन मतावलंबियों की विशेषता यह है कि वे किसी भी कोटि के दुराग्रह का संपूर्ण निषेध करते हैं. अपनी बात दूसरों से बलात् मनवाना या केवल अपने ही मत को अंतिम सत्य मानना हठधर्मी, एक प्रकार की वैचारिक हिंसा है. इसलिए वहां अहिंसा पर इतना जोर दिया गया है. जैनमत के अनुसार किसी भी जीव की हत्या करना तो पाप है ही, विचारों की हिंसा भी वहां सर्वथा वज्र्य है. इसलिए कि विचार भी जीवात्मा की देन, उसकी विशेषता हैं. वैचारिक सहिष्णुता, विरोधों को आत्मसात करने की यह प्रवृत्ति जैन मत में स्याद्वाद के सिद्धांत के उद्भव का कारण बनी. ‘स्याद्वाद’ जैनदर्शन का सर्वाधिक मौलिक एवं वैज्ञानिकता पर आधारित विचार है. इसके अनुसार किसी भी वस्तु अथवा विचार के बारे में जो कहा जाता है, वह अनेक संभावनाओं से युक्त होता है. सत्य कई रूपों में प्रकट होता है.
अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हाथी और छह अंधों की कहानी का उदाहरण देते हैं. कहानी के छह अंधों को हाथी के सामने खड़ा कर उसकी शरीर रचना के बारे में बताने को कहा जाता है. जिस अंधे ने हाथी के कान का स्पर्श किया था, उसके अनुसार हाथी की देह पंखे के समान है. दूसरा जो हाथी की सूंड का स्पर्श करता है, वह हाथी को मोटी बेल जैसा बताता है.तीसरा अंधा जो हाथी के पैर का स्पर्श करता है, वह उसकी रचना को खंबेनुमा कहकर अपने अनुभव का बखान करता है. वे सभी अपनी जगह सही है. सभी सच्चे हैं. मगर उनका सत्य आंशिक और परिस्थितिजन्य है, जो उनकी सीमा को दर्शाता है. उन छह के अलावा एक दृष्टिसंपन्न व्यक्ति भी है. हाथी की वास्तविक देहरचना के बारे में केवल वही जानता है. ज्ञान की स्थिति केवल प्रज्ञावान को ही संभव है. यही निर्वाण की अवस्था भी है, जब कोई तापस सृष्टि के वास्तविक रहस्य को जान चुका होता है. जैनमत मानता है कि साधारण व्यक्ति की ऐंद्रियानुभूति सीमित होती है. इसलिए उसका बोध भी सीमित होता है. मगर वह गलत नहीं है. अंधों की कहानी में यदि उन सभी के अनुभवों को परस्पर मिला दिया जाए तो हाथी की संपूर्ण रचना सामने आ सकती है. यही लोकतंत्र में होता है, जो समाजवादी व्यवस्था की धुरी है. वहां अनेक नागरिक मिलकर अपने विकास के लिए उपयुक्त व्यवस्था का चयन करते हैं.
जैन-दर्शन की सृष्टि संबंधी व्याख्या आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से मेल खाती है. उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण छोटे-छोट पुद्गलों को माना है. ये पुद्गल परस्पर मिलकर अणु बनाते हैं. अणुओं के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुओं, जड़-चेतनादि की उत्पत्ति होती है. जड़-चेतन में पुद्गलों की उपस्थिति उसे जीवनमय बनाती है. जैन दर्शन का पुद्गल का विचार कणाद मुनि के वैशेषिक दर्शन से मेल खाता है. पुद्गल की तुलना हम परमाणुवाद के साथ के आधुनिक सिद्धांत से भी कर सकते हैं. यह भी विज्ञान-प्रमाणित है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक अणु की रचना करते हैं, जो सृष्टि के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है. लेकिन पुद्गल परमाणु नहीं है.परमाणु में जीवन है, वैज्ञानिक ऐसा कोई दावा नहीं करते. वे परमाणु की गति का आकलन कर सकते हैं. परमाणु में अंतनिर्हित ऊर्जा की खोज भी की जा चुकी है. वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार परमाणु जड़-चेतन से परे लघुत्तम कण है, जो संसार की प्रत्येक वस्तु, जड़ और चेतन दोनों की व्युत्पत्ति का कारण है. इससे भिन्न पुद्गल चेतनामय इकाई, जीवन का लघुत्तम रूप है. तदुनुसार यह समस्त संसार छोटे-छोट पुद्गलों से मिलकर बना है. अतएव जैन दर्शन के अनुसार दृश्यमान जगत के कण-कण में जीवन है. उनका सम्मान करना जीवन का सम्मान करना है.
जैन शब्द ‘जिन’ धातु से बना है. यानी ऐसा व्यक्ति जिसने इंद्रियों को अधीन कर लिया हो. इंद्रियनिग्रह के लिए अपरिग्रह अस्तेय, अहिंसा, सत्य आदि की कसौटियां बनाई र्गइं. जिनका अर्थ है, जरूरत से अधिक संचय न करना. चोरी न करना. दूसरे के धन की लालसा न रखना. हिंसा का पूर्ण निषेध और सत्याचरण. यही सिद्धांत बौद्ध धर्म के भी थे. आशय यह है कि नैतिक मान्यताओं को लेकर जैन और बौद्ध धर्म एक ही कोटि के माने जा सकते हैं.इसलिए कुछ विद्वानों ने जैनधर्म को बौद्ध धर्म की ही एक शाखा माना है.हालांकि कुछ मायने में दोनों में अंतर भी है. बौद्ध दर्शन व्यावहारिक बोध को महत्त्व देता है. वह जीवन की उपेक्षा करने के बजाय, उसको संयमित ढंग से जीने पर विश्वास रखता है. ऐसा जीवन जो अपने और दूसरों के लिए समानरूप से सुखकारी हो. इसलिए जैनदर्शन का अतिअनुशासन भी वहां वज्र्य है. कामनाओं से भागने से उनसे बच पाना संभव नहीं. वे पीछा करती हैं. उनसे मुक्ति का एक ही उपाय है, कामनाओं के बीच रहकर उनसे मुक्ति.मन को साधना. यह आसान नहीं है. लेकिन अभ्यास से इसको साधा जा सकता है. इसके लिए बुद्ध ने अष्ठांग योग का विचार दुनिया के सामने रखा था. मगर उनका अष्ठांग योग भी व्यावहारिक है. वह मनुष्य की पहुंच में है.जबकि जैन मत का अहिंसा का सिद्धांत और अन्य धार्मिक अनुशासन बहुत कड़े हैं. यही कारण है कि जैन धर्म-दर्शन जनसाधारण के बीच अपनी जगह बनाने में असमर्थ रहा था.
बोधि वृक्ष के नीचे साधना करते समय बुद्ध को समझ आया था कि जीवन वीणा के तारों की तरह भांति है. ढीला छोड़ने पर सुर नहीं निकलते. अधिक कसने पर तार टूट भी सकते हैं. इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग को अपनाने का आग्रह किया था. लेकिन अहिंसा जैसे विषय को लेकर जैन मत व्यावहारिकता की सीमा तक प्रतिबद्ध है. वहां अपरिग्रह पर इतना आशय है कि शरीर पर वस्त्र धारण करना भी मोक्ष की राह में बाधक माना गया है.बौद्ध धर्म की अहिंसा के सिद्धांत को उसकी तत्व विवेचना के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है. जैन दर्शन सम्यक व्यवहार, सम्यक बोध,तथा सम्यक आचरण पर जोर देता है.
जैन दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है. वह संसार की सत्ता को नकारता नहीं है. बल्कि उसकी वास्तविकता को स्वीकारते हुए कतिपय वैज्ञानिक आधार पर उसकी व्याख्या करता है. जीवनमूल्यों को वरीयता देते हुए वह मनुष्य को अपनी चिंताओं के केंद्र में रखता है. उसकी आचारसंहिता तीन प्रमुख सिद्धांतों पर टिकी है. जैन दर्शन को यदि श्रेष्ठ विचारों की एक माला स्वीकारा जाए तो इन तीन सिद्धांतों को उसके माणिक-मुक्ता समझा जाता है, जिनपर माला की समस्त सुंदरता निर्भर करती है. ये हैं—सम्यक आचरण, सम्यक कर्तव्य एवं सम्यक बोध. सम्यक आचरण से अभिप्राय सृष्टि के प्रत्येक प्राणी के साथ भेदभाव रहित दयालुतापूर्ण व्यवहार से है. हर प्राणी में एक ही जीवात्मा है, इसलिए उसका सम्मान. सभी के साथ एक समान व्यवहार. सम्यक बोध मानव चेतना के विकास के पांच स्तरों को दर्शाता है. वे हैं अध्ययन, साधना,सिद्धि एवं कैवल्य. सम्यक कर्तव्य आत्मानुशासन, निश्छल व्यवहार, सदाशयता को दर्शाता है. यह मानवेंद्रियों को विचलन से बचाकर उन्हें साधना पथ पर अग्रसर करने से संभव है. वह उपदेश से अधिक आत्मनियंत्रण पर जोर देता है. जैनग्रंथ ‘उत्तरध्यान’ में आत्मानुशासन की आवश्यकता पर लिखा गया है—
खुद को जीतो
इसलिए कि आत्मविजय सबसे बड़ी साधना है
यदि तुम स्वयं को जीत लेते हो
तो संसार में रहकर भी बनोगे अनिवर्चनीय आनंद के भागी
उससे भी श्रेष्ठ है
इससे पहले कि दुनिया के प्रलोभन और मायावी शक्तियां
मेरी इंद्रियों को अपने जाल में फंसा लें
मुझे भटकाएं
प्रताड़ित करें
आत्मनुशासन एवं प्रायश्चित द्वारा खुद को जीतकर
आत्मविजयी बनना.
इन सिद्धांतों की तुलना हम बौद्ध धर्म के अष्ठांग योग से कर सकते हैं.महावीर स्वामी का जन्म बुद्ध से पहले हुआ था. मगर दोनों में अधिक अंतर नहीं है. दोनों का कार्यक्षेत्र भी भारत का पूर्वी क्षेत्र है. हम आसानी से कल्पना कर सकते हैं कि जिन दिनों महात्मा बुद्ध ने संन्यास के लिए घर छोड़ा था,उन दिनों देश-भर में महावीर स्वामी के विचारों की धूम मची होगी. कर्मकांड और यज्ञ के नाम पर होने वाली जीवहत्या से उकताए हुए लोग जैन धर्म में दीक्षित हो रहे थे. उनमें हर वर्ग के लोग सम्मिलित थे. वैशाली जैसे गणराज्य जिसके महात्मा बुद्ध प्रशंसक थे, के शासक भी भी जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर चुके थे. आचार्य वर्षकार जब वैशाली पर आक्रमण से पहले बुद्ध से परामर्श लेने पहुंचते हैं तो बुद्ध वैशाली गणराज्य की मिल-जुलकर निर्णय लेने की गणतांत्रिक प्रणाली की प्रशंसा करते हुए वैशाली को अजेय घोषित करते हैं.
सम्यक आचरण मनुष्य के मानवीय स्वरूप को बनाए रखने की कला है.प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक ही जीवात्मा है. स्त्री-पुरुष सभी एक समान हैं.इसलिए मनुष्य का पहला धर्म है कि वह सभी के साथ एक जैसा आचरण करे. बिना किसी पक्षपात, वगैर किसी स्वार्थ-लिप्सा के सबके साथ समानतापूर्ण व्यवहार करते हुए प्राणी-मात्र के कल्याण के निमित्त समर्पित हो. दूसरों के साथ वही व्यवहार करो, जैसा उनसे अपने प्रति अपेक्षित है.संसार में रहकर भी उसके प्रलोभन से विरक्ति. देह में रहकर भी विदेहत्व की साधना. मुक्ति का साक्षात अनुभव. वौद्धदर्शन की भांति जैन दर्शन भी वेदों को प्रामाण्य नहीं मानता. उसके स्थान पर वह व्यक्ति की सत्ता को सर्वोच्च ठहराता है. नैतिक आचरण पर जोर देता है.
संसाधनों के न्यायिक बंटवारे और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार देना ही समाजवादी व्यवस्था का प्रमुख ध्येय है. यह कार्य वह राज्य की नियामक शक्ति की मदद से करती है. राज्य भी व्यक्तियों से परे नहीं है. वह नागरिकों की सहमति और अनुशंसा के आधार पर बनी संस्था है. अंधों की कहानी में जैसे किसी एक अंधे की राय का कोई मूल्य नहीं है, लेकिन जब उन सबके अनुभवों को मिला दिया जाता है, तो उससे वही विंब बनता है, जो एक दृष्टि-संपन्न व्यक्ति की चेतना में बनता है. राज्य भी अपने नागरिकों की संस्तुति के आधार पर बनी संस्था है, जो एक नियामक संस्था सत्ता का रूप ग्रहण कर लेती है. कह सकते हैं कि जैन दर्शन की नैतिक मान्यताएं समाजवाद की मूल आस्था के अनुकूल हैं. हालांकि इसकी कड़ी अनुशासन-व्यवस्था, इसको जनसाधारण के लिए असहज बनाती है.