जीवन मे कम और मतलब की बात बोलना हमे अपने आंरभिक दिनो से ही सीख लेना चाहिये ताकि आने वाले समय मे हम उससे उठने वाली तमाम विपत्तियों से बच सके । मोनेस्ट्री मे आने वाले बच्चॊ को मै अकसर यह कहानी सुनाता हूँ । कहानी के माध्यम से मै उनको यह सीख देना चाहता हूँ कि बेमतलब और फ़िजूल का बोलना अकसर कितना अधिक अनर्थकारी हो जाता है ।
बहुत समय पहले की बात है कि एक पहाडी झील मे एक बहुत बातूनी कछुआ रहता था । वह इतना अधिक बातूनी था कि झील मे रहने वाले उसके साथी सहचर जीव उसको देखते ही कन्नी काट लेते । उसकी बात करने की हद इतनी अधिक थी कि सुनने वाला थक जाता , बोर हो जाता और यहाँ तक चिढ भी जाता । सहचर जीवो को अचरज होता कि उसका यह साथी बिना रुके कैसे बात कर लेता है । कभी-२ उनको लगता कि यह कछुआ शायद अपने कान का प्रयोग सुनने की बजाय बोलने के लिये ही करता है । उसके बातूनी पन की हद इतनी अधिक थी कि खरगोश उसको देखते ही बिल मे छुप जाते , चिडयाये पेडॊं की शाखाओं से उड जाती और यहाँ तक मछलियाँ चट्टानों के पीछे छुप जाती ।
जाहिर है यह बातूनी कछुआ अपनी आदतों के कारण अकेले ही रह्ता था ।
हर साल की तरह गर्मियों मे सफ़ेद हंसों का जोडा अपना अवकाश बिताने उस पहाडी झील पर आता था । वह दयालु प्रवृति के थे क्योंकि वह बातूनी कछुये को बोलने की पूरी अनुमति देते थे या उनको यह भी लगता कि उनका प्रवास कुछ माह के लिये ही है ; इसलिये मेजबान को नाराज करना अच्छी बात नही है । बातूनी कछुये को तो उनका साथ बहुत ही अच्छा लगता । वह उनके साथ तब तक बाते करता जब तक तारे ओझल न हो पाते और रात बीत न जाती ।
गर्मियाँ सामाप्त होने लगी और दिन सर्द होने लगे । हंसो के जोडे ने भी तय किया कि वह अब अपने घर को लौट चलेगें । यह सुनते ही बातूनी कछुये की आँखों मे पानी भर आया । उसको सर्दियों से चिढ भी थी और अपने मित्रों का जाने का गम भी था ।
“ काश मै भी तुम्हारे साथ जा पाता “ बातूनी कछुये ने गहरी साँसे भरते हुये कहा । “ कभी-२ जब ढलानॊ और पानी पर बर्फ़ जम जाती है तब मुझे बहुत ही ठंड लगती है और मै अपने आप को बहूत ही अकेला महसूस करता हूँ । हम कछुये उड नही सकते और धीमा चलने के कारण इधर उधर दूर नही जा सकते । “
दयालु हंस कछुये की दुख भरी बातों को सुनकर द्रवित हो गये और उन्होने कछुये से कहा “ हम तुहारे लिये एक प्रस्ताव रखते हैं । हम तुमको अपने साथ ले जाने के लिये तैयार हैं लेकिन तुमको भी एक वचन देना होगा । “
“ हाँ ! हाँ ! मै वचन देता हूँ ! “ कछुये ने उत्साह मे कहा , हाँलाकि वह यह नही जानता था कि प्रस्ताव क्या है । “ हम कछुये वचनॊ के बहुत पक्के होते हैं । मुझे याद है कि कुछ दिन पहले मैने खरगोश को वचन दिया था कि मै कछुओं कॆ अलग –२ प्रकार के खोलों के बारे मे जानकारी दूँगा और जब उन खरगोशॊ ने ………..”
एक घंटा बीत गया , जब बातूनी कछुये ने बोलना बंद किया और हंसों को बोलने का मौका मिला , तब उन्होने कछुये से कहा , “ तुमको यह वचन देना होगा कि तुम अपना मुँह बन्द रखोगे । “
“ बहुत आसान है !!” बातूनी कछुये ने कहा । “ वास्तव मे कछुये ही अपना मुँह बन्द रखने के लिये जाने जाते हैं । हम बहुत कम ही बोलते हैं । यही बात कुछ दिन पहले मै एक मछ्ली को समझा रहा था ………”
एक घंटा और बीत गया , जब कछुआ साँसे लेने के लिये रुका , तब हंस ने कछुये से कहा कि अगर वह अपने दांतो से लकड़ी की डंडॆ को बीच से पकड़ ले, तो डंडॆ के दोनों किनारों को हंस अपने मुंह में दबा कर उड़ जाएंगे। लेकिन शर्त यह है कि कछुआ अपना मुँह बन्द रखेगा ।
तब एक हंस ने लकडी के डंडॆ को एक किनारे औए दूसरे ने दूसरे किनारे से पकडा । लेकिन अपने पंखों को जोर से फ़डफ़डाने का परिणाम कुछ भी न निकला। बातूनी कछुआ बहुत ही वजनी जो था । अकसर जो लोग अधिक बोलते हैं वह खाते भी खूब हैं । और यह कछुआ तो इतना वजनी था कि वह अपने खोल को भी बहुत कठिनाई से संकुचित कर पाता था ।
अब की बार हंसो ने हल्के वजन की डंडी ली । एक बार फ़िर से उसी प्रक्रिया को दोहराया । लकडी के डंडॆ के दोनों सिरों को अपनी चोंच से और डंडॆ के बीच के हिस्से को कछुये ने अपने दांतों से दबाया । इस बार हंसों का अपने परों को जोर से फ़डफ़डाना काम आ गया ।
इतिहास मे पहली बार कोई कछुआ आसमान मे उड रहा था ।
और इस तरह उनकी यात्रा शुरु हुई। वे बहुत ऊँचा उड़ते हुए पहाड़, खेत, मैदान के ऊपर से जा रहे थे। बातूनी कछुये की पहाडी झील , ऊँचे पर्वतों की श्रंखलाये अब बहुत छॊटी सी नजर आ रही थी । बातूनी कछुआ आसमान मे वह नजारे देख रहा था जिसकी कल्पना आज तक किसी भी अन्य कछुये ने नही की थी । वह यह सब अपनी यादों मे सुरुक्षित रखना चाहता था ताकि वह घर पहूँचने पर अपने साथियों को भी बता सके ।
पर्वतों की श्रंखलाये अब दिखना बन्द हो चुकी थी । मैदानी इलाके नजर आने लगे थे । सब कुछ सही चल रहा था , दोपहर के तीन बज रहे थे और उनकी यह यात्रा का दौर अब एक स्कूल के ऊपर से गुजर रहा था । स्कूली बच्चॊ के झुंड मे से एक बच्चे की नजर आसमान मे उडने वाले जीवों पर पडी । वह चिल्लाया , “ देखो देखो !!..जल्दी आओ ! ऊपर देखो इस बेवकूफ़ कछुये को …ऊडने वाला बेवकूफ़ कछुआ “
यह सुनते ही कछुये को तो बहुत गुस्सा आने लगा । वह अपने आप को रोक न पाया और चिल्लाया “ किसने मुझे कहा … बे… वकू..फ़..! “
धडाम की आवाज आई और बेचारा कछुआ अपनी मूर्खता और बेसब्री से जमीन पर गिरते ही मर गया ।
बातूनी कछुआ का अंत इसलिये हुआ क्योंकि वह अपना मुँह उस समय बन्द नही कर पाया जब उस की वाकई मे जरुरत थी । जीवन के परिपेक्ष मे इसको इसी प्रकार देखे । उतना ही बोलें जितनी समयनुसार जरुरत हो , बिलावजह बोलना आपको वैसे ही मुसीबत मे डाल सकता है जैसे उस बेचारे कछुये को डाल गया ।
अजह्न्ह ब्रह्म की पुस्तक , “ Who ordered this truckload of Dung ? “ मे से ली गई कहानी “ the talkative tortoise ” का हिन्दी अनुवाद ।