लखनऊ से कुशीनगर को जोडने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग अपनी साधन से जाने वालॊ के लिये सुखद एहसास दिलाता है । इसके विपरीत श्रावस्ती का ऐहासास बहुत ही दुख्द था । यहां रोड बहुत ही उत्कृट क्वालिटी की है , हाँ , अलबत्ता कई जगहॊ पर टौल टैक्स की वसूली जरुर खलती है ।
कुशीनगर का बुद्ध्युगीन नाम कुसिनारा था और यह मल्लों का एक अधिष्ठान नगर था । 'महापरिनिर्वाणसुत्त' से ज्ञात होता है कि कुशीनगर बहुत समय तक समस्त जंबुद्वीप की राजधानी भी रही थी। गोरखपुर से महज 53 किमी. की दूरी पर स्थित यह नगर एक जमाने में मल्ल वंश की राजधानी थी। साथ ही कुशीनगर प्राचीनकाल के 16 महाजनपदों में एक था। चीनी यात्री ह्वेनसांग और फाहियान के यात्रा वृत्तातों में भी इस प्राचीन नगर का उल्लेख मिलता है। इस प्राचीन स्थान को प्रकाश में लाने के श्रेय जनरल ए कनिंघम और ए. सी. एल. कार्लाइल को जाता है जिन्होंनें 1861 में इस स्थान की खुदाई करवाई। 1904 से 1912 के बीच इस स्थान के प्राचीन महत्व को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने अनेक स्थानों पर खुदाई करवाई।
कुशीनगर मे भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण हुआ था । इसी कारण से यह नगर आज भी समस्त संसार मे बहुत पवित्र और आस्था का प्रतीत माना जाता है । कहते हैं कि तथागत ने अपने महापरिबिर्वाण की घॊषणा वैशाली मे तीन माह पूर्व कर दी थी ।
लखनऊ से सुबह ५ बजे के चले हम कुशीनगर १० बजे सुबह पहुँचे। महापरिनिर्वाण विहार के मुख्य द्वार मे प्रवेश करते ही प्रचीन भग्नावशेषों के आधार दिखने आरम्भ हो जाते हैं । इस पथ पर न जाने कितने संघारामों और विहारों का निर्माण हुआ होगा और न जाने कितने अनित्यता के कालचक्र मे समा गये । आज यहाँ मौन की गहन नीरवता है लेकिन शायद कल यह सम्यक बुद्ध के सतत् चारिका का फ़ल था जिसने यह क्षेत्र को बुद्ध्मय बना दिया था ।
१. महापरिनिर्वाण विहार और स्तूप
परिनिर्वाण स्तूप के विशाल फ़ैले प्रागंण मे चल कर हम वर्तमान परिनिर्वाण विहार के द्वार मे प्रविष्ट हुये । सामने एक चबूतरे पर भगवान् बुद्ध की अधलेटी विशाल प्रतिमा के दर्शन होते हैं । इस मंदिर में भगवान बुद्ध की 6.1 मीटर ऊंची मूर्ति लेटी हुई मुद्रा में रखी है। जिन बुद्ध के वचनो ने जन जन के कल्याण हेतु धम्मपदेश दिये थे वे आज मानो प्रतिमा बनकर अनन्त निद्रा मे मौन पडॆ थे । ऐसा लगा मानो भगवान् कह रहे हो
अनिच्चा वत संखारा उप्पादवय धम्मिनो ,
उप्पज्जितवा निरुज्झन्ति तेसं वुपसमो सुखो ॥
अर्थात : सभी संस्कार ( सभी पदार्थ , सभी प्राणी ) अनित्य ( सदा न रहने वाले हैं ) । उनका उत्पन्न होना , निरोध होना ( मृत्यु को प्राप्त होना ) उनका धर्म ( स्वभाव ) है । वे उत्पन्न होकर निरोध को प्राप्त होते हैं । उन्का अपशमन (समाप्त हो जाना ) सुख है ।
यह स्थान उस काल को दर्शाता है जब भगवा बुद्ध ने अपना पार्थिव शरीर छॊड दिया था और निर्वाण को प्राप्त हुये । जैसा नीचे चित्र मे दिख रहा है कि यह विहार भग्नावशॆषॊं के ऊंचे विशाल चबूतरे पर खडा है । प्राचीनकाल मे यह मल्लॊं के शालवन पावतन का भाग था । इन फ़ैले भग्नावशॆषॊं की मॊटाई को देखकर लगता है कि प्राचीन काल में इस विहार की कई मंजिलें थी । इनमें कई शून्यगार भी थे जहाँ भिक्खु ध्यान किया करते थे ।
महापरिनिर्वाण स्तूप मे मल्लॊं द्वारा उनके धातू अवशॆषॊं को सुरूक्षित रखा गया था । कालान्तर मे सम्राट अशोक ने सभी स्थानॊ से धातु अवशॆषॊं को निकालकर उन्हे ८४०००० भागों मे बाँट कर प्रत्येक भाग पर स्तूपॊ का निर्माण करवाया था । यह स्टूप भी उसी भाग का हिस्सा था ।
महापरिनिर्वाण विहार के पीछे का भाग
महापरिनिर्वाण विहार के पृष्ठ के भाग में एक चौकोर स्तूप भी दिखता है जो भिक्खु अनुरुद्ध का है । इसी के पास एक ४० फ़ीट ऊंचा एक और स्तूप भी खडा है जिसका निर्माण कुशीनगर के मल्लों द्वारा करवाया गया था ।
विहार मे प्रवेश करते समय हमारी नजर स्तूप के पिछ्ले अहाते के प्रागंण मे दो मूर्तियों पर पडी जो सजीव सी लग रही थी लेकिन यह निर्णय करना थॊडा मुश्किल लगा कि यह मूर्ति है या सजीव । लगभग ४५ मिनट बाद जब हमने पुन: उस प्रागंण मे प्रवेश किया तो दिल माना नही कैमरे का फ़ोकस सही किया और पाया यह दो थाई ध्यान मुद्रा ( विपशयना ) मे तल्लीन थे । दोनो को विपशयना मे बैठे देखकर धम्मप्द की गाथा याद आ गयी :
सब्बे संङ्खारा अनिच्चाति, यदा पञ्ञाय पस्सति।सारे संस्कार अनित्य हैं यानी जो हो रहा है वह नष्ट होता ही है । इस सच्चाई को जब कोई विपशयना से देख लेता है , तब उसको दुखों से निर्वेद प्राप्त होता है अथात दु:ख भाव से भोक्ताभाव टूट जाता है । यह ही है शुद्ध विमुक्ति का मार्ग !! धम्मपद २७७
अथ निब्बिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया।। (धम्मपद २७७)
स्तूप के पिछ्ले अहाते के प्रागंण मे विपशयना मे डूबे दो थाई
२. बर्मी बुद्ध विहार
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लगभग सभी मन्दिर और विहार बुद्ध मार्ग पर हैं । बर्मी बुद्ध विहार महापरिनिर्वाण विहार के बायी ओर यह स्थित है । द्वार से प्रवेश करने पर एक भव्य बर्मी पगोडा के दर्शन होते हैं जिस पर चमकर्ता हुआ सुनहरा रंग किया गया है । पगोडा की ऊचाई १०८ फ़ीट है । पगोडा के अन्दर भगवन बुद्ध की अधलेटी प्रतिमा हिअ और दीवारॊ पर बुद्ध के जीवन का चित्रण ।
इसी विहार मे एक सरोवर भी है जिसके ऊपर एक सुन्दर विहार बनाया गया है ।
३. चीनी बुद्ध विहार :
चीनी बुद्ध विहार में पुनरुद्धार की वजह से मे हमें अन्दर प्रवेश करने को नही मिला । कुछ फ़ोटॊ जो हमने ली वह बाहर से ही थी ।
३.इंडॊ- जापान-श्रीलंका बौद्ध केन्द्र
बुद्ध मार्ग पर आगे चलने पर दायीं तरफ़ यह स्थित है ।
इंडो - जापान - श्रीलंका मंदिर, तीन देशों के बौद्ध अनुयायियों के सहयोग को इंगित करता है। इस मंदिर में भगवान बुद्ध की अष्ट धातु की मूर्ति स्थापित है जिसे जापान से लाया गया था और इसके निर्माण के लिए जापानी राजशाही के द्वारा वित्त पोषिण दिया गया था।
जब इस मूर्ति को जापान से आयात किया गया था, तब यह दो टुकड़ों में थी, जिसे बाद में स्थापना के दौरान जोड़ दिया गया। इस मंदिर की डिजायन और निर्माण, अटेगो ईस्सहीन विश्व बौद्ध सांस्कृतिक एसोसिएशन द्वारा बनाई गई थी। मंदिर में भगवान बौद्ध की अष्टधातु की मूर्ति एक अनूठे, चमकदार, भव्य और कांच के भव्य परिपत्र में रखी गई है । इस विहार की व्यवस्था सुचारु रुप से चलाने के लिये भदंत अस्स्जी महाथेरा का बहुत योगदान है जो श्रीलंका मूल के हैं ।
इंडॊं -जापान-श्रीलंका मन्दिर तक पहुंचते २ बारिश तेज हो चुकी थी । इस बीच पडने वाले कई विहार छूट गये जिसमे माथाकुंवर बुद्ध विहार , तिब्बती बुद्ध विहार और राजकीय संग्राहलय मुख्य थे । राककीय संग्रहालय तो अवकाश की वजह से बंद था । कोरिया बुद्ध विहार और वाट थाई बुद्द विहार के खुलने का समय नही हुआ था । इसलिये इस अल्प समय की यात्रा मे लग रहा था कि यह भी छूट जायेगें , और यही हुआ भी ।
४. हिरण्यवती नदी
यह एक एतिहासिक नदी है । बुद्ध मार्ग पर रामाभार स्तूप की ओर बढते हुये बायी ओर इसका रास्ता जाता है । प्राचीन मल्ल गणराज्य की राजधानी कुशीनगर के पूर्वी छोर पर प्रवाहित होने वाली हिरण्यवती नदी बुद्ध के महापरिनिर्वाण की साक्षी तो है ही, मल्ल गणराज्य की समृद्धि और सम्पन्नता का आधार भी रही है। प्राचीन काल में तराई के घने जंगलों के बीच बहती हुई यह नदी मल्ल राज्य की सीमा भी निर्धारित करती थी। कहा जाता है कि इस नदी के बालू के कणों के साथ सोने के कण भी मिलते थे, जिसके कारण इसे हिरण्यवती कहा जाने लगा।
इसी हिरण्यवती नदी का जल पीकर बुद्ध ने भिक्षुओं को अंतिम उपदेश देने के बाद महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। उनका दाह संस्कार मल्लों ने चक्रवर्ती सम्राट की भांति इसी नदी के तट पर रामाभार में किया था। जिसका वर्णन हम आगे करेगें । कहते हैं कि उस समय नदी विशाल थी, यही कारण था कि भिक्षु महाकश्यप जब बिहार से यहां पहुंचे तो शाम होने के कारण नदी पार नहीं कर सके और प्रात: काल नदी पार करके रामाभार पहुंचे। तब जाकर बुद्ध का अंतिम संस्कार संपन्न हुआ।
वर्तमान समय मे यह नदी उपेक्षित सी पडी है , नदी का पाट छॊटा होकर ‘बखया नाला ’ हो गया है ।
हिरण्यवती नदी से आगे बढने पर बांये ओर प्राचीन रामाभर ताल के किनारे एक विशाल स्तूप खडा है जिसे मुकुटबंधन - चैत्य या मुक्त - बंधन विहार भी कहा जाता है । ऐसा माना जाता है कि भगवान बुद्ध की 483 ईसा पूर्व में हुई मृत्यु के बाद उनका इसी स्थान पर अंतिम संस्कार कर दिया गया था। स्न् १८६१ मे यह स्तूप ४९ फ़ीट ऊँचा था । चीनी यात्री इत्सिगं नेयहाँ लगभग १०० भिक्खुओ को निवास करते देखा था ।
भारी बारिश की वजह से कुशीनगर मे बहुत कुछ देखने को रह गया । इंडॊं -जापान-श्रीलंका मन्दिर तक पहुंचते २ बारिश तेज हो चुकी थी । इस बीच पडने वाले कई विहार छूट गये जिसमे माथाकुंवर बुद्ध विहार , तिब्बती बुद्ध विहार , वाट थाई बुद्ध विहार और राजकीय संग्राहलय मुख्य थे । राककीय संग्रहालय तो अवकाश की वजह से बंद था । कोरिया बुद्ध विहार और वाट थाई बुद्द विहार के खुलने का समय नही हुआ था । इसलिये इस अल्प समय की यात्रा मे लग रहा था कि यह भी छूट जायेगें , और यही हुआ भी । लेकिन एक आस फ़िर भी बनी रही कि एक बार दोबारा इस पुण्य भूमि के दर्शन करने अवशय आना होगा ।