Wednesday, May 23, 2012

वर्तामान और सचेतावस्था मे जीना

बच्चे सचेतावस्था मे भगवान बुद्ध के साथ

संबोधि प्राप्ति के पशचात गौतम बुद्ध ने उरुबेला गांव  के बच्चों से वन से जाने की आज्ञा माँगी । सुजाता, नंद बाला , सुभाष , स्वास्ति और रुपक उनके इस कथन से विस्मित से रह गये । सिदार्थ ने सुजाता और अन्य बच्चों से कहा कि आज वह तीसरे पहर बच्चों से वन मे मिलना चाहते हैं ताकि जो संबोधि का मार्ग उन्होने चुना है उसको वह उन्हें बाँट सकें ।

उनके बताये समय के अनुसार बहुत से बच्चे आये और सब पीपल के वृक्ष के पास घेरा बना के बैठ गये । सुजाता अपने साथ नारियल और ताडगुड की बट्टियाँ  उपहार स्वरुप लायी थी और वहीं नंद बाला और सुभाष अपने साथ टॊकरी में मिठ्ठे ( संतरे जैसा फ़ल ) लाया था । सब बच्चॊ ने आदर भाव से सिद्धार्थ को नमन किया और फ़लस्वरुप सिद्धार्थ ने उनको बैठ जाने को कहा । सिद्धार्थ ने बच्चों से कहा , “ तुम सब बच्चे समझदार हो और मुझे विशवास है कि जो मै तुम्हें बताउगाँ उन पर तुम अमल करोगे । जो मार्ग मैने सदधर्म का चुना है वह बहुत गूढ और सूक्ष्म है लेकिन जो भी उस पर अपना ह्रदय और चित्त लगायेगा वह उसे समझ सकता है और उस पर चल सकता है । ”

बच्चों जब तुम संतरे को छीलकर खाते हो तो उसे सचेतावस्था के साथ भी खा सकते हो और बगौर जागरुक रह कर भी । जब तुम मिट्ठा खाओ तो तुम को भली भाँति ज्ञान हो कि तुम मिट्ठा खा रहे हो । तुम उसकी गंध और स्वाद को आत्मसात करो । जब तुम उसका छिल्का उतारो तब भी सजग रहो और जब उसकी फ़ाँक मुँह में रखो तब भी । जब तुम इस फ़ल की गंध और मिठास को अनुभव करो तो उस अनुभूति के प्रति भी सजग रहो ।  इस मिठ्ठे को देखकर चेतनावस्था का अभ्यास करने वाला सृष्टि की अदभुतताओं को समझ सकता है कि किस प्रकार समस्त वस्तुयें  एक दूसरे  के प्रति क्या क्रिया प्रतिक्रिया करती हैं । सचेतावस्था का अभ्यास करने वाला व्यक्ति इस मिठ्ठे में वे चीजें देख सकता है जिसे अन्य लोग देखने मे असमर्थ रहते हैं । सचेत व्यक्ति  मिठ्ठे का पेड देख सकता है , वसन्त ऋतु  मे मिठ्ठे को फ़लता देख सकता है , उस धूप और वर्षा को देख सकता है जिससे मिठ्ठे के पॆड का पोषण होता है और गहराई से देखने पर वह उन बातों को जान लेता है जिनके स्व्बरुप मिठ्ठा पककर तौयार होता है ।

नंद ने जो मुझे मिठ्ठा दिया है उसमें नौ फ़ाँके हैं । जिस प्रकार मिठ्ठे की नौ फ़ांके हैं उसी प्रतिदिन के चौबीस घंटॆ होते हैं । एक घंटा  मिठ्ठे की एक फ़ांक के समान  है । दिन के चौबीस घंटॊं को जीना इस मिठ्ठे की सभी फ़ांको को खा लेने के समान है । मेरा मार्ग दिन के प्रत्येक घंटे को  सचेतावस्था के साथ जीना है जिसमे चित्त और शरीर हमेशा वर्तमान पर केन्द्रित हो । यदि हम अचेतावस्था में जी रह होते हैं तो हम जानते नही कि हम जी रह रहे हैं । हम जीवन का पूर्ण अनुभव इसी कारण नही कर पाते क्योंकि हमारा चित्त और शरीर वर्तमान को पूर्णता के साथ जीता ही नही है । “ बच्चों , सचेत होकर मिट्ठा खाने का अर्थ है कि तुम वास्तव में उसके संपर्क में हो । उस समय बीते हुये कल या आगामी कल के विचारों मे खोये हुये नही बल्कि पूरी तरह से इस क्षण को जी रहे हो । चेतन  जागरुकता का अर्थ है वर्तमान के इस क्षण को पूर्णता के साथ जीना जिसमें तुम्हारा चित्त्त और शरीर इस समय यहाँ हों ।”

इसी तरह  बच्चों सचेतावस्था में जीने वाला व्यक्ति जानता है कि वह क्या सोच रहा है , क्या कह रहा है और क्या कर रहा है । ऐसा व्यक्ति उन विचारों , शब्दों या कार्यों से बच सकता है  जिनसे उसे स्वयं  तथा दूसरे को कष्ट हो और इसी समझ और  ज्ञान से सहनशीलता और प्रेम का उदय होता है । फ़लस्वरुप संसार में अधिक कष्ट नही रह जाते ।

स्त्रोत : सतिपत्थन सुत्त्त , सचेतावस्था से जुडा विचार से लिया गया है ।  तिक न्यात हन्ह ( Thich Nhat Hanh ) की पुस्तक जहं जहं चरन पडे गौतम के ( Old paths white clouds )- प्रकाशक ‘हिन्द पाकेट बुक ’

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