वसन्त ऋतु आते ही बुद्ध और उनका भिक्खु समूह पूर्वी छेत्र मे लौट आये । वह वैशाली और चम्पा मे रुके । नदी किनारे चलते-२ हुये बुद्ध समुद्र तट पर आ गये । मछुआरों से अनायास ही भिक्खु संघ का वार्तालाप शुरु हुआ । मान्य आनंद ने उत्सुकतावश मछुआरों से समुद्र के विषय मे अनेक विचार जानने चाहे ।
एक लम्बे और सुन्दर मछुआरे ने आनंद से कहा , “ मुझे समुद्र की कई बाते अच्छी लगती हैं । पहला , इसका बालू का किनारा पानी तक ढलान युक्त होता है जिससे नावें खींच लाने और जाल फ़ेंकने मे सुविधा होती है ।
दूसरे , समुद्र सदैव अपने स्थान पर रहता है जिससे हम जानते हैं कि वह कहाँ मिलेगा ।
तीसरे , समुद्र किसी शव को अपने मे डुवाता नही , उसे तट पर फ़ेंक देता है ।
चौथे , सभी नदियाँ – गंगा , यमुना , अचिरावती , सरयु और माही समुद्र मे आ मिलती है जिसके बाद उनका नाम नही रहता । समुद्र उनको अपने गर्भ मे समा लेता है ।
पांचवे , यधपि नदियाँ दिन रात जल ला कर समुद्र मे पहुंचाती हैं , किन्तु उसका जल स्तर अपनी मर्यादा मे रहता है ।
छ्ठे , समुद्र का जल सदैव हमेशा खारा होता है ।
सातवें , समुद्र मे सुन्दर घॊंघा , सीप , शंख , मोती और मूल्यवान पत्थर होते हैं ।
आठवें , समुद्र हजारों प्रकार के प्राणियों को अपने मे समाये रखता है जिनमे लम्बे प्राणि से लेकर सूक्ष्मतम प्राणि तक होते हैं ।
अत: आप समझ ही गये होगें कि हम समुद्र को कितना प्रेम करते हैं । ”
आनंद ने सराहानापूर्ण दृष्टि से मछुआरे को देखा जो मछुआरा होकर भी कवि की भाषा बोल रहा था । आंनद ने बुद्ध से कहा , “ यह व्यक्ति समुद्र को उसी प्रकार प्रेम करता है जैसे कि मै संबोधि के मार्ग को । क्या आप इस संबध मे कुछ शिक्षा देगे ? ”
बुद्ध मुस्कराये और चट्टान पर बैठकर सद्धर्म मार्ग की कुछ विशेतायें बताने लगे । वह मछुआरा भी उनके साथ बैठ गया ।
बुद्ध ने कहा , “ हमारे मछुआरे बधुं ने समुद्र की आठ विशेतायें बताई और अब मै अब आपको सच्चे धर्म की आठ विशॆताये बताउगां ।
पहला , धर्म समुद्र के समान नीचे की ओर ढलवां नही होता । सद्धर्म मार्ग पर व्यक्ति तभी प्रगति कर सकता है , जब वह सभी प्रकार की मानसिकताओं को समाहित कर सके । युवा या वृद्ध , शिक्षित या अशिक्षित सभी कोई धर्म मार्ग पर चल सकता है । हर व्यक्ति अपनी आवशकताओं के अनुसार साधाना – पद्तियों को अपना सकता है ।
दूसरे , समुद्र की भांति धर्म भी अपने स्थान पर रहता है । धर्म शिक्षाओं के सिद्धांत कभी नही बदलते । शीलों को स्पष्ट रुप से समझा और सम्झाया जा सकता है । कोई भी व्यक्ति कही भी धर्म के सिद्धांतों का अध्यन्न और शीलों का पालन करके कही भी साधना कर सकता है । धर्म न कही जाता है और न कभी गुम हो सकता है ।
तीसरे , समुद्र जैसे शव को अपने गर्भ में नही रखता , उसी प्रकार धर्म अज्ञान , आलस्य या शीलाचार को भंग करना सहन नही करता । साधना न करने वाला व्यक्ति अन्तत: स्वयं को समुदाय से बाहर निकाल पाता है ।
चौथे , समुद्र सभी नदियों को समान रुप से आत्मसात् कर लेता है , इसी प्रकार सद्धर्म सभी जातियों को समान रुप से अपनाता है । समुद्र में मिलने के बाद नदी का नाम समाप्त हो जाता है , इसी प्रकार सद्धर्म पर चलने वाला व्यक्ति अपनी जाति , वंश और पूर्व पद सभी त्याग कर मात्र भिक्खु रह जाता है ।
पांचवे , जैसे समुद्र का जल सदैव एक समान रहता है , समुद्र अपनी मर्यादा मे रहता है , सद्धर्म भी एक ही स्तर पर रहता है , चाहे उसके अनुयायी की संख्या कम हो अथवा अधिक । धर्म को शिष्यों की संख्या से नही नापा जा सकता ।
छ्ठे , समुद्र का जल हमेशा खारा होता है । अनगिनत मार्गों और अनगिनत साधन – पद्तियों के होने के बावजूद धर्म का एक ही स्वाद होता है और वह स्वाद है – मुक्ति का आनंद । यदि धर्म शिक्षाओं से मुक्ति न मिले तो वह सच्ची शिक्षा नही है ।
सांतवे , समुद्र में शंख , मोती और मूल्यवान रत्न होते हैं तो धर्म में भी ऊद्र्गामी और मूल्यवान शिक्षायें यथा चार आर्य सत्य , चार विशुद्ध साधनायें , पांच गुण , पांच शक्तियाँ . आत्म जागृति के सात चरण और श्रेष्ठ मार्ग होते हैं ।
आठवें , समुद्र हजारों जीवित प्राणियों को शरण देता है तो धर्म भी सभी को अपनी शरण मे ले लेता है , फ़िर वे अशिक्षित बच्चे हों या बोधिसत्व हों । धर्म के असंख्य अनुयायी हैं जिन्होनें जन्म मृत्यु की धारा मे प्रवेश , प्रथम प्रत्यागत , प्रत्यागथीन अवस्था और अर्हत पदों के पुण्य फ़ल पाये हैं ।
“ इस प्रकार समुद्र के समान सद्धर्म भी प्रेरणा का और अपरिमित संपदा प्राप्त करने का स्त्रोत है । ”
मान्य आनंद ने हाथ जोडकर बुद्ध की ओर देखा और कहा , “ प्रभु , आप महान अध्यात्मिक गुरु तो हैं ही और साथ भी एक अच्छे कवि भी हैं । ”
संकलन : जहं जहं चरन परे गौतम के ‘ तिक न्यात हन्ह ’ प्रकाशन - हिन्द पाकेट बुक्स
No comments:
Post a Comment