Sunday, September 15, 2019
Wednesday, September 4, 2019
🍃55-जीवक-सुत्त (2.1.5)🍃
55
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃55-जीवक-सुत्त (2.1.5)🍃
👂ऐसा मैंने सुना-
🚶एक समय भगवान राजगृह में जीवक कौमारभृत्य के' अम्बवन में विहार करते थे।
🛐तब जीवक कौमारभृत्य जहां भगवान थे, वहां गया; जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे जीवक ने भगवान से यह कहा--
🙏“भन्ते! मैंने सुना है -
'श्रमण गोतम उद्देश्य से (लोग) जीव मारते हैं, श्रमण गोतम जानते हुए (अपने) उद्देश्य से बनाये (अपने) उद्देश्य से किए कर्म वाले मांस को खाता है।
भन्ते! जो यह कहते हैं - 'श्रमण गोतम... खाता है'
क्या भन्ते! वे भगवान के विषय में यथार्थ वादी हैं?
वे भगवान पर झूठा आक्षेप तो नहीं लगाते? सत्य के अनुसार कहते हैं?
(उनके इस कथन से) किसी धर्मानुसार वचन-अनुवचन की निन्दा तो नहीं हो जाती?"
☝“...जीवक! जो यह कहते हैं-
'श्रमण गोतम... खाता है';
वे मेरे विषय में यथार्थवादी नहीं हैं;
वे मुझ पर झूठा इलजाम (=अभ्याख्यान) लगाते हैं।
जीवक! मैं तीन प्रकार के मांस को अ-भोज्य कहता हूं-
🎆दृष्ट,
🎆श्रुत और
🎆परिशंकित।"
(जीव का अपने लिए मारा जाना देखना, सुनना, या शंका होना।)
☝"...जीवक! तीन प्रकार के मांस को मैं भोज्य कहता हूं-
🔱अ-दृष्ट,
🔱अ-श्रुत,
🔱अ-परिशंकित।"
☝“जीवक! कोई भिक्खु किसी गांव, या निगम (=कस्बे) के पास विहार करता है।
वह मैत्री-पूर्ण चित्त से सारे लोक को पूर्णकर विहरता है।
उसके पास आकर कोई गहपति या गहपति-पुत्त दूसरे दिन के भोजन के लिए आमंत्रण देता है।
इच्छा होने पर जीवक! भिक्खु (उस निमंत्रण) को स्वीकार करता है।
वह उस रात के बीतने पर पूर्वाह्न समय पहनकर पात्र-चीवर ले,
जहां उस गहपति या गहपति-पुत्त का घर होता है, वहां जाता है। जाकर बिछे आसन पर बैठता है। उसे वह गहपति या गहपति-पुत्त उत्तम पिंडपात (भिक्खान्न) परोसता है।
उस (भिक्खु) को यह नहीं होता-
'अहो! यह गहपति या गहपति - पुत्त मुझे उत्तम पिंडपात परोसे।
अहो! यह आगे भी इसी प्रकार का पिंडपात परोसे।
वह उस पिंडपात को अ-लोलुप अ-मूर्छित हो, अनासक्त हो अवगुण का ख्याल रखते, निस्तार की बुद्धि से खाता है।
तो क्या मानते हो, जीवक! क्या वह भिक्खु उस समय
निज-पीड़ा (की बात) को सोचता है,
पर-पीड़ा को सोचता है,
(स्वयं पर) उभय-पीड़ा को सोचता है?"
🙏"नहीं, भन्ते!"
☝"क्यों जीवक! उस समय वह निर्दोष (=अनवद्य) आहार ही का ग्रहण कर रहा है न?"
🙏“हां, भन्ते!
🌷मैंने सुना है भन्ते! कि ब्रह्मा मैत्री-विहारी (=सदा सबको मित्र भाव से देखने वाला) है; सो मैंने भन्ते! भगवान साक्षात् देख लिया। भन्ते! भगवान मैत्री विहारी हैं।"
☝"जीवक!
जिस राग से,
जिस द्वेष से,
जिस मोह से (आदमी) व्यापादवान् ( द्वेषी, उत्पीड़क) होता है,
वह राग-द्वेष-मोह तथागत का नष्ट हो गया, उच्छिन्न मूल,
कटे सिर वाले-ताड़ जैसा अ-भाव-प्राप्त, भविष्य में उत्पन्न होने के-अयोग्य हो गया।
यदि जीवक! तुमने वह ख्याल करके कहा, तो मैं सहमत हूं।"
🙏“यही ख्याल! कर भन्ते! मैंने कहा।"
☝“यहां जीवक! कोई भिक्खु किसी गांव या निगम के पास विहार करता है।
वह करुणापूर्ण चित्त से ।
मुदिता-पूर्ण चित्त से ।
उपेक्षा पूर्ण चित्त से सारे लोक को पूर्ण कर विहरता है। उसके पास आकर कोई गहपति या गहपति-पुत्त दूसरे दिन के लिए भोजन का निमंत्रण देता है।... (पहले की आवृत्ति)"
🙏“यही ख्याल कर भन्ते! मैंने कहा।"
☝“जो कोई जीवक! तथागत या तथागत के सावक (श्रावक) के उद्देश्य से जीव मारता है, वह पांच स्थानों से अ-पुण्य (=पाप) कमाता है,
🌷(1) जो वह यह कहता है-
'जाओ, अमुक जीव को लाओ';
इस पहले स्थान (=बात से) वह बहुत अपुण्य कमाता है।
🌷(2) जो वह गले में (रस्सी) बांधकर खींच कर लाते (पशु) को (देख) दुखदौर्मनस्य अनुभव करता है,
यह दूसरे स्थान... ।
🌷(3) जो वह यह कहता है-
'जाओ; इस जीव को मारो'
इस तीसरे स्थान... ।
🌷(4) जो वह जीवों को मारते दुख-दौर्मनस्य (=संताप) अनुभव करता है;
इस चौथे स्थान...।
🌷(5) जो वह तथागत या तथागत के श्रावक को अ-कल्प्य (अनुचित, अविहित)को खिलाता है; इस पांचवें स्थान..।"
☝"जो कोई जीवक! तथागत या तथागत के सावक के उद्देश्य से जीव मारता है, वह इन पांचों स्थानों से अ-पुण्य कमाता है।"
🙏यह कहने पर जीवक कौमारभृत्य ने भगवान् से यह कहा-
‘आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! कल्प्य (=उचित, विहित) आहार को भन्ते! भिक्खु ग्रहण करते हैं। अहो! निर्दोष आहार को भन्ते! भिक्खु! ग्रहण करते हैं। आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! जैसे औंधे को सीधा कर दे...। यह मैं भन्ते!
भगवान् की शरण जाता हूं, धम्म और भिक्खुसंघ की भी।
भगवान् आज से मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।"
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
Tuesday, September 3, 2019
🍃57-कुक्कुरवतिक-सुत्त (2.1.7)🍃
57.
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃57-कुक्कुरवतिक-सुत्त (2.1.7)🍃
👂ऐसा मैंने सुना--
🚶एक समय भगवान् कोलिय (जनपद) में कोलियों के हलिद्दवसन (=हरिद्रवसन) नामक निगम में विहार (=निवास) करते थे।
🌷तब गोव्रतिक (=गाय की भांति खाने पीने का व्रत रखने वाला) कोलिय-पुत्त पूर्ण और कुक्कुर-वतिक अचेल (=नंगा) सेनिय (=श्रेणिक) जहां भगवान् थे, वहां गए; जाकर गोव्रतिक कोलियपुत्त पूर्ण, भगवान् को अभिवादनकर एक ओर बैठ गया। कुक्कुर-वतिक अचेल सेनिय भगवान् के साथ ...सम्मोदन (=कुशल-मंगल पूछ) कर कुक्कुर की भांति गेंडुरी मार, एक ओर बैठ गया।
🌷एक ओर बैठे पूर्ण ने भगवान से यह कहा--
🙏“भन्ते! यह कुक्कुर-वतिक अचेल सेनिय बड़ा मुश्किल करने वाला (=दुष्कर-कारक) है, भूमि में रखे (भोजन) को खाता है। इसने इस कुक्कुर-व्रत को दीर्घकाल से निरन्तर ले रखा है। उसकी क्या गति, क्या अभिसम्पराय (=जन्मान्तर फल) होगा?”
☝"बस, रहने दे, पूर्ण! मत मुझसे यह पूछ।”,
🙏दूसरी बार भी पूर्ण ने भगवान् से यह कहा-“भन्ते!..।"
🙏 तीसरी बार भी पूर्ण ने भगवा से यह कहा- “भन्ते!..।"
☝“पूर्ण! मैं तुझसे नहीं (स्वीकार करा) पाया- 'बस, रहने दे, पूर्ण! मत मुझसे यह पूछ' । "
☝"अच्छा, तो मैं तुझसे कहता हूं। (जब) कोई पूर्ण! परिपूर्ण अ-खण्ड कुक्कुर-व्रत की भावना (=अभ्यास) करता है, परिपूर्ण अ-खंड कुक्कुर-शील की भावना करता है, कुक्कुर-चित्त की भावना करता है, कुक्कुर-आकल्प (=तौर-तरीका) की भावना करता है; वह परिपूर्ण अखण्ड कुक्कुर-व्रत की भावना करके, "कुक्कुर-शील", "कुक्कुर-चित्त”, “कुक्कुर-आकल्प" की भावना करके काया छोड़ मरने के बाद कुक्कुरों की योनि में उत्पन्न हता है।"
☝" यदि पूर्ण! उसकी ऐसी दृष्टि हो-'मैं इस (कुक्कुर के) शील, व्रत, तप, ब्रह्मचर्य से देवों में से कोई देवता होऊंगा; तो यह उसकी मिथ्या-दृष्टि (=झूठी धारण) है।"
☝" पूर्ण! मिथ्या-दृष्टि (पुरुष) की मैं दो गतियों में से एक ही गति कहता हूं - नरक या तिर्यक् (=पशु)-योनि ।"
☝"इस प्रकार पूर्ण! कुक्कुर-व्रत का करना कुक्कुर की योनि में ले जाता है, (या) विद्यमान नरक को।”
ऐसा2⃣🌷 कहने पर कुक्कुर वतिक अचेल सेनिय रो पड़ा; आंसू बहाने लगे😭।
☝तब भगवान् ने पूर्ण से यह कहा-“पूर्ण! मैं तुझसे नहीं (स्वीकार) करा पाया-'बस, रहने दे...।"
🙏(सेनिय बोला-) "भगवान के मुझे ऐसा कहने के ख्याल से मैं नहीं रो रहा हूं, लेकिन “भन्ते! मैंने इस कक्करव्रत को दीर्घकाल से ले रखा है।भन्ते! इस ... पूर्ण ने भी गोव्रत दीर्घ काल से ले रखा है। उसकी क्या गति है क्या अभिसम्पराय है?"
☝"बस, रहने दे सेनिय! मत मुझसे यह पूछ।”
🌷दुसरी बार भी..।
🌷तीसरी बार भी...।
☝"सेनिय! मैं तुझसे नहीं (स्वीकार) करा पाया- 'बस..।"
☝" अच्छा तो मैं तुझसे कहता हूं। (जो) कोई सेनिय! परिपूर्ण अ-खंड गोव्रत की भावना करता है,... गो-शील..., ...गो-चित्त..., .."गो-आकल्प...;... (वह) काया छोड़ मरने के बाद गौ की योनि में उत्पन्न होता है। यदि सेनिय! उसकी ऐसी दृष्टि हो- ...विद्यमान नरक को।”
🌷ऐसा कहने पर गोवतिक कोलियपुत्त पूर्ण रो पड़ा, आंसू बहाने लगे😭।
☝तब भगवान ने सेनिय से यह कहा- “सेनिय! मैं तुझसे नहीं (स्वीकार) करा पाया- 'बस रहने दे...।"
🙏(पूर्ण बोला-) “भन्ते! भगवान् के मुझे ऐसा कहने के ख्याल से मैं नहीं रो रहा हूं। लेकिन भन्ते! मैंने इस व्रत को दीर्घकाल से ले रखा है। भन्ते! भगवान् पर मैं इतना श्रद्धावान् (=प्रसन्न) हूं; भगवान् ऐसा धर्म-उपदेश करें, जिसमें मैं इस गोव्रत को छोड़ दूं, और यह सेनिय कुक्कुर-व्रत को छोड़ दें।"
☝"तो पूर्ण! सुनो! अच्छी तरह मन में करो, कहता हूं।"
🙏“अच्छा, भन्ते!"- (कह) पूर्ण ने भगवान् को उत्तर दिया।
☝भगवान् ने यह कहा-“पूर्ण! मैंने इन चार कर्मों को स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर अनुभव किया है। कौन से चार?-
🌷(1) पूर्ण! कोई कर्म होता है कृष्ण (=बुरा) और कृष्ण-विपाक (=बुरे परिणाम वाला);
🌷(2) पूर्ण! कोई कर्म होता है, शुक्ल (=अच्छा) और शुक्ल-विपाक;
🌷(3) ...कृष्ण-शुक्ल... ;
🌷(4) ...अकृष्ण-अशुक्ल-विपाक (जो कि) कर्म के क्षय के लिए (उपयोगी) होता है।"
☝“क्या है पूर्ण! कृष्ण, कृष्ण-विपाक कर्म? -यहां, पूर्ण! कोई (पुरुष) व्यापाद (=पीड़ा)-युक्त काय-संस्कार (=कायिक क्रिया) करता, व्यापाद-युक्त वचन-संस्कार... , व्यापाद-युक्त मन के संस्कार करता है; वह व्यापाद-युक्त काय-संस्कार को करके, ...वचन-संस्कार... , ...मन-संस्कार को करके, व्यापाद-युक्त लोक में उत्पन्न होता है। व्यापाद-युक्त लोक में उत्पन्न हुए उसे व्यापाद-युक्त स्पर्श (=कर्म-विपाक) आ लगते हैं। वह व्यापाद-युक्त स्पर्शों के लगने से व्यापाद (=पीड़ा)-युक्त केवल दुखमय वेदना को अनुभव करता है, जैसे कि नरक के प्राणी। इस प्रकार पूर्ण! भूत (=यथाभूत-जैसे)से भूत (=तथाभूत-जैसे)की उत्पत्ति होती है; जैसा करता हूं उसके साथ उत्पन्न होता है। उत्पन्न हुए को स्पर्श आ लगते हैं। इसलिए भी पूर्ण मैं कहता हूं-'प्राणी (अपने) कों के दायाद (=वारिस) हैं।' पूर्ण! यह कृष्ण कृष्ण-विपाक कर्म कहा जाता है।"
☝“क्या है पूर्ण! शुक्ल, शुक्ल-विपाक कर्म?-यहां, पूर्ण कोई (पुरुष) व्यापाद-रहित काय-संस्कार व्यापाद-रहित लोक में उत्पन्न हुए उसे व्यापाद-रहित स्पर्श छूते हैं। वह व्यापाद-रहित स्पर्शों के लगने से व्यापाद-रहित केवल सुखमय वेदना को अनुभव करता है, जैसे कि शुभ-कृत्स्न देवता। इस प्रकार पूर्ण! भूत से भूत की उत्पत्ति होती है। (प्राणी) जैसा करता है, उसके साथ उत्पन्न होता है। उत्पन्न हुए को स्पर्श (=भोग) आ लगते हैं। इसीलिए पूर्ण! मैं कहता हूं-'प्राणी कर्मों के दायाद हैं'। पूर्ण! यह शुक्ल, शुक्ल-विपाक कर्म कहा जाता है।"
☝“क्या है पूर्ण! कृष्ण-शुक्ल कृष्ण-शुक्ल-विपाक कर्म?-यहां पूर्ण! कोई (पुरुष) व्यापाद-युक्त भी, अव्यापाद-युक्त भी काय-संस्कार वह व्यापाद-रहित और व्यापाद-रहित स्पर्शों के लगने से व्यापाद-रहित, व्यापाद-सहित सुख-दुख मिश्रित वेदना को अनुभव करता है, जैसे कि मनुष्य, कोई-कोई देवता, और कोई-कोई विनिपातिक (=नीच योनि के प्राणी)। इस प्रकार पूर्ण! भूत से भूत ...। पूर्ण! यह कृष्ण-शुक्ल ...।"
☝“क्या है पूर्ण! अकृष्ण-अशुक्ल अकृष्ण-अशुक्ल विपाक कर्म जो कि कर्मक्षय के लिए उपयोगी होता है?-यहां पूर्ण! कृष्ण-विपाक कृष्ण कर्म के क्षय के लिए (उपयोगी) जो चेतना (=मानस कम) है, "शुक्ल कर्म के क्षय के लिए जो चेतना है, "कृष्ण-शुक्ल कर्म के क्षय के लिए जो चेतना है। पूर्ण यह अकृष्ण-अशुक्ल कर्म कहा जाता है। पूर्ण! मैंने इन चार कर्मों को स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर अनुभव किया है।"
🌷ऐसा कहने पर ... पूर्ण ने भगवान् से यह कहा-“आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! जैसे औंधे को सीधा कर दे। यह मैं भगवान की शरण जाता हूं, धम्म और भिक्खुसंघ की भी। आज से भगवान् मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें।"
🌷और कुक्कुर-वतिक अचेल सेनिय ने भगवान से यह कहा-“आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! जैसे औंधे को सीधा कर दे यह मैं भगवान की शरण जाता हूं, धर्म और भिक्खुसंघ की भी। भन्ते! मैं भगवान्। के पास प्रव्रज्या (=संन्यास) पाऊं, उपसम्पदा (=भिक्खु दीक्षा) पाऊं।"
☝"सेनिय! जो कोई भूतपूर्व अन्यतीर्थिक (=दूसरे पंथ का व्यक्ति) इस (=बुद्ध के) धर्म-विनय (=धम) में प्रव्रज्या उपसम्पदा चाहता है; वह चार मास तक परिवास (=परीक्षार्थ वास) करता है; फिर पसन्द होने पर उसे भिक्खु प्रव्रजित करते हैं, भिक्खु-भाव के लिए उपसम्पादित करते हैं; किंतु यहां मुझे व्यक्ति की विभिन्नता विदित है।"
🙏“यदि, भन्ते! भूतपूर्व अन्य-तीर्थिक, इस धर्म-विनय में प्रव्रज्या उपसम्पदा की इच्छा करने पर चार मास परिवास करते हैं, फिर पसन्द होने पर... ; तो चार वर्ष परिवास करूंगा। चार वर्षों के बाद पसन्द होने पर भिक्खु मुझे प्रव्रजित करें, ...उपसम्पादित करें।”
🌷...सेनिय ने भगवान के पास प्रव्रज्या पाई, उपसम्पदा पाई। आयुष्मान् सेनिय उपसम्पदा पाने के थोड़े ही समय बाद, एकाकी, एकान्तवासी, प्रमाद-रहित, उद्योगी (और) निज-संयमी हो, विहरते. जल्दी ही, जिस के लिए कुल-पुत्र अच्छी तरह घर से बेघर हो प्रव्रजित होते हैं, उस अनपम काम-रहित-फल को इसी जन्म में जानकर साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहरने लगे-'जन्म क्षीण हो गया, ब्रह्मचर्य-वास (पूरा) हो गया, करना था सो कर लिया, और कुछ यहां करने को नहीं रहा'-यह जान गए। आयुष्मान् सेनिय अर्हतों में से एक हुए।🌴
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
Monday, September 2, 2019
🍃56-उपालि-सुत्त (2.1.6)🍃
56.
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃56-उपालि-सुत्त (2.1.6)🍃
👂ऐसा मैंने सुना--
🚶एक समय भगवान् नालन्दा में प्रावारिक के अम्बवन में विहार कर रहे थे।
😷उस समय निगंठ नातपुत्त निगंठों (=जैन-साधुओं) की बड़ी परिषद् (=जमात) के साथ नालन्दा में विहार करते थे। तब दीर्घ-तपस्वी निग्रंथ (=जैन साधु) नालन्दा में भिक्खाचार कर, पिंडपात खत्म कर, भोजन के पश्चात् जहां प्रावारिक-अम्बवन में भगवान् थे, वहां गया। जाकर भगवान् के साथ संमोदन (कुशल प्रश्न पूछ) कर, एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े हुए दीर्घ-तपस्वी निगंठ (निग्रन्थ) को भगवान ने कहा
🌷“तपस्वी! आसन मौजूद हैं, यदि इच्छा है तो बैठ जाओ।"
🔯ऐसा कहने पर दीर्घ-तपस्वी निर्ग्रन्थ एक नीचा आसन ले एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे दीर्घ-तपस्वी निर्ग्रन्थ से भगवान बोले
☝“तपस्वी! पाप कर्म के करने के लिए, पापकर्म की प्रवृत्ति के लिए निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र कितने कर्मों का विधान करते हैं?"
😷“आवुस ! गोतम! 'कर्म' 'कर्म' विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र का कायदा (=आचिण्ण) नहीं है।
आवुस! गोतम! ‘दंड' ‘दंड' विधान करना निगंठ नातपुत्त का कायदा है।”
☝“तपस्वी! तो फिर पाप-कर्म के करने के लिए,
पापकर्म की प्रवृत्ति के निए निगंठ नातपुत्त कितने 'दंड' विधान करते हैं?”
😷“आवुस! गोतम! पाप कर्म के करने के लिए,
पापकर्म की प्रवृत्ति के लिए निगंठ नातपुत्त तीन दंडों का विधान करते हैं। जैसे:-
काय-दंड,
वचन-दंड,
मन-दंड।”
☝“तपस्वी!
तो क्या कायदंड दूसरा है,
वचन-दंड दूसरा है,
मन-दंड दूसरा है?”
😷“आवुस! गोतम!
(हां) काय-दंड दूसरा ही है,
वचन-दंड दूसरा ही है, और
मन-दंड दूसरा ही है।"
☝"तपस्वी! इस प्रकार भेद किए, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दंडों में निगंठ नातपुत्त पाप कर्म के करने के लिए,
पापकर्म की प्रवृत्ति के लिए किस दंड को महादोष-युक्त विधान करते हैं,
काय-दंड को, या
वचन-दंड को या
मन-दंड को?"
😷“आवुस ! गोतम! इस प्रकार भेद किए, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दंडों में निगंठ नाथपत्त. पाप कर्म के करने के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए,
काय-दंड को महादोष-युक्त विधान करते हैं; वैसा वचन-दंड को नहीं,
वैसा मन-दंड को नहीं?"
☝“तपस्वी! काय-दंड कहते हो?"
😷“आवुस! गोतम! काय-दंड कहता हूं।" “
☝तपस्वी! काय-दंड कहते हो?"
😷“आवुस! गोतम! काय-दंड कहता हूं।"
☝“तपस्वी! काय-दंड कहते हो?"
😷“आवुस! गोतम! काय-दंड कहता हूं।"
🔱इस प्रकार भगवान ने दीर्घ-तपस्वी निगंठ को इस (कथा-वस्तु बात) में तीन बार प्रतिष्ठापित किया।
😷ऐसा कहने पर दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने भगवान से कहा👄--
🌷“तुम आवुस! गोतम! पाप-कर्म के करने के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए कितने दंड-विधान करते हो?"
☝"तपस्वी!
'दंड' 'दंड' कहना तथागत का कायदा नहीं है, 'कर्म' 'कर्म' कहना तथागत का कायदा है।"
😷“आवुस!
गोतम! तुम कितने कर्म-विधान करते हो?"
☝ "तपस्वी!
मैं ...तीन कर्म बतलाता हूं, जैसे,
काय-कर्म,
वचन-कर्म,
मन-कर्म।”
😷“आवुस! गोतम!
काय-कर्म दूसरा ही है,
वचन-कर्म दूसरा ही है, और
मन-कर्म दूसरा ही है?"
☝“तपस्वी!
काय-कर्म दूसरा ही है,
वचन कर्म दूसरा ही है,
मन-कर्म दूसरा ही है।”
😷“आवुस! गोतम! ...इस प्रकार विभक्त... इन तीन कर्मों में, पाप-कर्म करने के लिए ... किसको महादोषी ठहराते हो -
काय-कर्म को, या
वचन-कर्म को, या
मन-कर्म को?" -
☝“तपस्वी! ...इस प्रकार विभक्त... इन तीनों कर्मों में मन-कर्म को मैं ... महादोषी बतलाता हूं।"
😷“आवुस! गोतम! मन-कर्म बतलाते हो?"
☝ “तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।"
😷“आवुस! गोतम! मन-कर्म बतलाते हो?"
☝“तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।"
😷“आवुस ! गोतम! मन-कर्म बतलाते हो?"
☝“तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूं।"
🔱इस प्रकार दीर्घ-तपस्वी निगंठ भगवान् को इस कथा-वस्तु (=विवाद-विषय) में तीन बार प्रतिष्ठापित करा, आसन से उठ जहां निगंठ नातपुत्त थे, वहां चला गया।
🌷उस समय निगंठ नातपुत्त, बालक (-लोणकार) - निवासी उपालि' आदि की बड़ी गृहस्थ परिषद् के साथ बैठे थे। तब निगंठ नातपुत्त ने दूर से ही दीर्घ-तपस्वी निगंठ को आते देख पूछा--
🤔“हे! तपस्वी! मध्याह्न में तू कहां से (आ रहा है)?"
🙏 “भन्ते! श्रमण गोतम के पास से आ रहा हूं।"
🤔 “तपस्वी! क्या तेरा श्रमण गोतम के साथ कुछ कथा-संलाप हुआ?"
🙏"भन्ते! हां! मेरा श्रमण गोतम के साथ कथा-संलाप हुआ।"
🤔 "तपस्वी! श्रमण गोतम के साथ तेरा क्या कथा-संलाप हुआ?"
🙏तब दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने भगवान के साथ जो कुछ कथा-संलाप हुआ था, वह सब निगंठ नातपुत्त से कह दिया।
🤔“साधु! साधु!! तपस्वी! (यही ठीक है) जैसा कि शास्ता (=गुरु) के शासन (=उपदेश) को अच्छी प्रकार जाननेवाले, बहुश्रुत श्रावक दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने श्रमण गोतम को बतलाया।
वह मुवा मन-दंड,
इस महान् काय-दंड के सामने क्या शोभता है? पाप-कर्म के करने के लिए पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए काय-दंड ही महादोषी है,
वचन दंड, मन-दंड वैसे नहीं।"
🌷ऐसा कहने पर उपालि गृहपति ने निगंठ नातपुत्त से यह कहा👄--
🙏“साधु! साधु!! भन्ते तपस्वी! जैसा कि शास्ता के शासन के मर्मज्ञ, बहुश्रुत श्रावक भदन्त दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने श्रमण गोतम को बतलाया।
तो भन्ते! मैं जाऊं, इसी कथा-वस्तु में श्रमण गोतम के साथ विवाद रोपूं?
यदि मेरे (सामने) श्रमण गोतम वैसे (ही) ठहरा रहा,
जैसा कि भदन्त दीर्घ-तपस्वी ने (उसे) ठहराया, तो जैसे बलवान् पुरुष लम्बे बाल वाली भेड़ को बालों से पकड़कर खींचे, घुमावे, डुलावे;
उसी प्रकार मैं श्रमण गोतम के वाद को खीचूंगा, घुमाऊंगा, डुलाऊंगा।
(अथवा) जैसे कि बलवान् शौंडिक-कर्मकर (=शराब बनाने वाला) भट्टि के छन्ने (=सोंडिका-किलंज)को गहरे पानी (वाले) तालाब में फेंककर; कानों को पकड़ खींचे, घुमावे, डुलावे, ऐसे ही मैं ।
(अथवा) जैसे बलवान् शराबी, बालक को कान से पकड़कर हिलावे, डुलावे", ऐसे ही मैं । (अथवा) जैसे कि साठ वर्ष का पट्ठा हाथी गहरी पुष्करिणी में घुसकर सन-धोवन नामक खेल को खेले, ऐसे ही मैं श्रमण गोतम को सन-धोवन ।
हां! तो भन्ते! मैं जाता हूं। इस कथा-वस्तु में श्रमण गोतम के साथ वाद रोपूंगा।"
👉“जा गृहपति! जा, श्रमण गोतम के साथ इस कथा-वस्तु में वाद रोप।
गृहपति! श्रमण गोतम के साथ मैं वाद रोप, या
दीर्घ-तपस्वी निगण्ठ रोपे,
या तू।”
🙏ऐसा कहने पर दीर्घ-तपस्वी निगण्ठ ने निगण्ठनात-पुत्त से कहा--
🌷"भन्ते! (आपको) यह मत रुचे, कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम के पास जाकर वाद रोपे। भन्ते! श्रमण गोतम मायावी है, (मति) फेरनेवाली माया जानता है, जिससे दूसरे तैर्थिकों (=पंथाइयों) के श्रावकों (को अपनी ओर) फेर लेता है।"
🖐"तपस्वी! यह संभव नहीं, कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो जाए। संभव है कि श्रमण गोतम (ही) उपालि गृहपति का श्रावक हो जाए।
जा गृहपति! श्रमण गोतम के साथ इस कथा-वस्तु में वाद रोप।
गृहपति! श्रमण गोतम के साथ मैं वाद रोपूं, या दीर्घ-तपस्वी निगंठ रोपे, या तू।”
🙏दूसरी बार भी दीर्घ-तपस्वी निगण्ठ ने...।
🙏तीसरी बार भी...।
🌷“अच्छा भन्ते!" कह,
उपालि गृहपति निगण्ठ नातपुत्त को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर जहां प्रावारिक अम्बवन था, जहां भगवान थे, वहां गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया।
☝ एक ओर बैठे हुए उपालि गृहपति ने भगवान से कहा--
🙏"भन्ते! क्या दीर्घ-तपस्वी निगण्ठ यहां आए थे?"
☝ “गृहपति! दीर्घ-तपस्वी निगण्ठ यहां आया था।"
🙏 “भन्ते! दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ आपका कुछ कथा-संलाप हुआ।"
☝“गृहपति! दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ मेरा कुछ कथा-संलाप हुआ।”
🙏 "तो भन्ते! दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ क्या कुछ कथा-संलाप हुआ?"
🌷तब भगवान ने दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ जो कुछ कथा-संलाप हुआ था, उस सबर उपालि गृहपति से कह दिया। ऐसा कहने पर उपालि गृहपति ने भगवान से कहा--
🙏“साधु! साधु! भन्ते तपस्वी! जैसा कि शास्ता के शासन के मर्मज्ञ, बहु-श्रुत, श्रावक दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने भगवान को बतलाया!! वह मुर्दा मन-दंड इस महान काया-दंड के सामने क्या शोभता है?
पाप-कर्म के करने के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए काय-दंड ही महा-दोषी है; वैसा वचन-दंड नहीं है, वैसा मन-दंड नहीं है।"
☝“गृहपति! यदि तू सत्य में स्थिर हो मंत्रणा (=विचार) करे, तो हम दोनों का संलाप हो।"
🙏 “भन्ते! मैं सत्य में स्थिर हो मंत्रणा करूंगा। हम दोनों का संलाप हो।"
☝"क्या मानते हो गृहपति! (यदि) यहां एक बीमार-दुखित भंयकर रोगग्रस्त शीत-जल-त्यागी उष्ण-जल-सेवी निगंठ... हो, वह शीत-जल न पाने के कारण मर जाए, तो निगंठ नातपुत्त उसकी (पुनः) उत्पत्ति कहां बतलाएंगे?"
🙏“भन्ते! (जहां) मनोसत्त्व नामक देवता हैं; वह वहां उत्पन्न होगा।"
☝“सो किस कारण?"
🙏"भन्ते! वह मन से बंधा हुआ मरा है।"
☝“गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) करके कहो।
तुम्हारा पूर्व (पक्ष)से पश्चिम (पक्ष) नहीं मिलता, तथा पश्चिम से पूर्व नहीं ठीक खाता। और गृहपति! तुमने यह बात (भी) कही है-भन्ते! मैं सत्य में स्थिर हो मंत्रणा करूंगा, हम दोनों का संलाप हो।”
🙏“और भन्ते! भगवान् ने भी ऐसा कहा है-पापकर्म करने के लिए काय-दंड ही महादोषी है, वैसा वचन-दंड (और) मन-दंड नहीं?”
☝“तो क्या मानते हो गृहपति! यहां एक चातुर्याम-संवर,
((*(1) प्राण-हिंसा न करना, न अनुमोदन करना,
(2) चोरी न करना ।
(3) झूठ न बोलना
(4) भावित (=विषय-भोग) न चाहना । यह चातुर्याम संवर है।*))
से संवृत (=गोपित, रक्षित), सब वारि से निवारित, सब वारि (=वारितों) को निवारण करने में तत्पर, सब (पाप) वारि से धुला हुआ, सब (पाप) वारि से छूटा हुआ, निगंठ
(निग्रंथ =जैन-साधु) है।
वह आते-जाते बहुत से छोटे-छोटे प्राणि-समुदाय को मारता है।
गृहपति! निगंठ नातपुत्त इसका क्या विपाक (=फल) बतलाते हैं?"
🙏"भन्ते! अनजान को निगंठ नातपुत्त महादोष नहीं कहते।”
☝ “गृहपति! यदि जानता हो।”
🙏—“(तब) भन्ते! महादोष होगा।"
☝"गृहपति! जानने को निगंठ नातपुत्त किसमें कहते हैं?” –
🙏 “भन्ते! मन-दंड में।"
☝ "गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) करके कहो...।”
🙏 “और भन्ते! भगवान ने भी... ।"
☝“तो गृहपति! क्या यह नालन्दा सुख-सम्पत्ति-युक्त बहुत जनों वाली, (बहुत) मनुष्यों से भरी है?"
🙏“हां भन्ते!"
☝“तो ... गृहपति! (यदि) यहां एक पुरुष (नंगी) तलवार उठाए आए, और कहे-इस नालन्दा में जितने प्राणी हैं, मैं एक क्षण में एक मुहूर्त में, उन (सब) का एक मांस का खलिहान, एक मांस का ढेर कर दूंगा। तो क्या गृहपति! वह पुरुष ... एक मांस का ढेर कर सकता है?"
🙏"भन्ते! दस भी पुरुष, बीस भी पुरुष, तीस ...चालीस ...पचास ... भी पुरुष, एक मांस का ढेर नहीं कर सकते, वह एक मुवा क्या है?"
☝"तो... गृहपति! यहां एक ऋद्धिमान्,
चित्त को वश में किया हुआ,
श्रमण या ब्राह्मण आए,
वह ऐसा बोले-मैं इस नालंदा को एक ही मन के क्रोध से भस्मकर दूंगा।
तो क्या ... गृहपति । वह श्रमण या ब्राह्मण इस नालंदा को (अपने) एक मन के क्रोध से भस्स कर सकता है।"
🙏“भन्ते! दस नालन्दाओं को भी... पचास नालन्दाओं को भी ...वह श्रमण या ब्राह्मण (अपने एक क्रोध से भस्म कर सकता है।
एक मुई नालन्दा क्या है?"
☝“गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) कर कहो।"
🙏“और भगवान ने भी..।”
☝"तो गृहपति! क्या तुमने दंडकारण्य, कलिंगारण्य, मेध्यारण्य (=मेज्झारज्ञ), मातंगारण्य का अरण्य होना सुना है?"
🙏“हां, भन्ते!"।”
☝“तो गृहपति! तुमने सुना है, कैसे दण्डकारण्य हुआ?"
🙏 "भन्ते! मैंने सुना है-ऋषियों के मन के-कोप से दण्डकारण्य ... हुआ।"
☝"गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) कर कहो। तुम्हारा पूर्व से पश्चिम नहीं मिलता, पश्चिम से पूर्व नहीं मिलता। और तुमने गृहपति! यह बात कही है-'सत्य में स्थिर हो मैं भन्ते! मंत्रणा (=वाद) करूंगा, हमारा संलाप हो।”
🙏“भन्ते! भगवान की पहली उपमा से ही मैं सन्तुष्ट अभिरत हो गया था। विचित्र प्रश्नों के व्याख्यान (=पटिभान) को और भी सुनने की इच्छा से ही मैंने भगवान् को प्रतिवादी बनाना पसन्द किया।"
🌷आश्चर्य! भन्ते!! आश्चर्य! भन्ते!! जैसे औंधे को सीधा कर दे... आज से भगवान मुझे सांजलि शरणागत उपासक धारण करें।”
☝“गृहपति! सोच-समझकर (काम) करो। तुम्हारे जैसे मनुष्यों का सोच-समझकर ही करना अच्छा होता है।"
🙏"भन्ते! भगवान के इस कथन से मैं और भी प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ; जो कि भगवान ने मुझे कहा-
'गृहपति! सोच-समझकर करो...।' भन्ते! दूसरे तैर्थिक (=पंथाई) मुझे श्रावक पाकर, सारे नालन्दा में पताका उड़ाते–
'उपालि गृहपति हमारा श्रावक हो गया। और भगवान मुझे कहते हैं-
'गृहपति! सोच-समझकर करो...। भन्ते! यह दूसरी बार मैं भगवान की शरण जाता हूं, धर्म और भिक्खुसंघ की भी...।"
☝“गृहपति! दीर्घ-काल से तुम्हारा कुल निगण्ठों के लिए प्याऊ की तरह रहा है,
उनके जाने पर 'पिंड नहीं देना चाहिए'-यह मत समझना।”
🙏“भन्ते! इससे और भी प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ, जो मुझे भगवान ने कहा-दीर्घकाल से तेरा घर... ।
भन्ते! मैंने सुना था कि श्रमण-गोतम ऐसा कहता है-मुझे ही दान देना चाहिए, दूसरों को दान न देना चाहिए। मेरे ही श्रावकों को दान देना चाहिए, दूसरों को दान न देना चाहिये। मुझे ही देने का महा-फल होता है, दूसरों को देने का महा-फल नहीं होता। मेरे ही श्रावकों को देने का महाफल होता है, दूसरों के श्रावकों को देने का महाफल नहीं होता।
और भगवान तो मुझे निगण्ठों को भी दान देने को कहते हैं।
भन्ते! हम भी इसे युक्त समझेंगे।
भन्ते! यह मैं तीसरी बार भगवान की शरण जाता हूं...।"
🌷तब भगवान ने उपालि गृहपति को आनुपूर्वी-कथा (नोट- दान-कथा, शील-कथा, स्वर्ग कथा और मार्ग-कथा को क्रमशः कहने को आनुपूर्वी कथा कहते हैं-अट्ठकथा।) कही । जैसे कालिमा-रहित शुद्ध-वस्त्र अच्छी प्रकार रंग को पकड़ता है, इसी प्रकार उपालि गृहपति को उसी आसन पर विरज, विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ :-
'जो कुछ समुदय-धर्म है, वह सब निरोध-धर्म है'।
तब उपालि गृहपति ने दृष्ट-धर्म हो भगवान से कहा
🙏“भन्ते! अब हम जाते हैं, हम बहुकृत्य, बहुकरणीय हैं।"
☝“गृहपति! जिसका तुम काल समझो (वैसा करो)।”
☝तब उपालि गृहपति! भगवान के भाषण का अभिनन्दन कर, अनुमोदन कर, आसन से उठ, भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, जहां उसका घर था, वहां गया। जाकर द्वारपाल से बोला--
🎆“सौम्य! दौवारिक! आज से मैं निगण्ठों और निगण्ठियों के लिए द्वार बन्द करता हूं, भगवान के भिक्खु-भिक्खुनी, उपासक और उपासिकाओं के लिए द्वार खोलता हूं।"
🎆 "यदि निगण्ठ आएं, तो कहना -
‘ठहरें भन्ते! आज से उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हुआ।
निगंठों, निगंठियों के लिए द्वार बन्द है;
भगवान् के भिक्खु, भिक्खुनी, उपासक, उपासिकाओं के लिए द्वार खुला है।"
🎆 "यदि भन्ते! आप को पिंड (=भिक्खा) चाहिए तो यहीं ठहरें, (हम) यहीं ला देंगे।"
🙏“अच्छा भन्ते!"
(कह) दौवारिक ने उपालि गृहपति को उत्तर दिया।
🌷दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने सुना-
‘उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो गया।'
तब दीर्घ-तपस्वी निगंठ, जहां निगंठ नातपुत्त थे, वहां गया। जाकर निगंठ नातपुत्त से बोला
👄“भन्ते! मैंने सुना है, कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो गया।"
✊“यह स्थान नहीं, यह अवकाश नहीं (=यह असम्भव) है, कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो जाए, और यह स्थान (=संभव) है, कि श्रमण गोतम (ही) उपालि गृहपति का श्रावक (=शिष्य) हो।”
👄दूसरी बार भी दीर्घ तपस्वी निगंठ ने कहा...।
👄तीसरी बार भी दीर्घ तपस्वी निगंठ ने...।
🙏"तो भन्ते! मैं जाता हूं और देखता हूं कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो गया, या नहीं।"
🖐“जा तपस्वी! देख कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो गया, या नहीं।"
🌷तब दीर्घ-तपस्वी! निगंठ जहां उपालि गृहपति का घर था, वहां गया। द्वारपाल ने दूर से ही दीर्घ-तपस्वी निगंठ को आते देखा। देखकर दीर्घतपस्वी निगंठ से कहा--
🖐“भन्ते! ठहरो, मत प्रवेश करो। आज से उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो गया। यहीं ठहरो, यहीं तुम्हें पिंड ला देंगे।"
👄“आवुस ! मुझे पिंड का काम नहीं है।”
🙏-यह कह दीर्घ-तपस्वी निगंठ जहां निगंठ नातपुत्त थे, वहां गया। जाकर निगंठ नातपुत्त से बोला👄--
🙏“भन्ते! सच ही है। उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो गया। भन्ते! मैंने आप से पहले ही न कहा था, कि मुझे यह पसन्द नहीं कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम के साथ वाद करे। श्रमण गोतम भन्ते! मायावी है, आवर्तनी माया जानता है, जिससे दूसरे तैर्थिकों के श्रावकों को फेर लेता है। भन्ते! उपालि गृहपति को श्रमण गोतम ने आवर्तनी-माया से फेर लिया।"
🖐“तपस्वी! यह... (संभव नहीं)... कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हो जाए।"
🙏दूसरी बार भी दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने निगंठ नातपुत्त से यह कहा...।
🔱तीसरी बार भी दीर्घ-तपस्वी...।
🖐“तपस्वी! यह (संभव नहीं)। अच्छा तो तपस्वी! मैं जाता हूं। स्वयं जानता हूं, कि उपालि गृहपति श्रमण गोतम का श्रावक हुआ या नहीं।"
🚶तब निगंठ नातपुत्त बड़ी भारी निगंठों की परिषद् के साथ, जहां उपालि गृहपति का घर था, वहां गया। द्वारपाल ने दूर से आते हुए निगंठ नातपुत्त को देखा। (और) कहा__
👄“ठहरें भन्ते! मत प्रवेश करें। आज से उपालि गृहपति श्रमण गोतम का उपासक हुआ। यहीं ठहरें, यहीं आपको (पिंड) ला देंगे।" .
🖐"तो सौम्य दौवारिक! जहां उपालि गृहपति है, वहां जाओ। जाकर उपालि गृहपति से कहो-भन्ते! बड़ी भारी निगंठ-परिषद् के साथ निगंठ नातपुत्त फाटक के बाहर खड़े हैं, (और) तुम्हें देखना चाहते हैं।"
🙏“अच्छा भन्ते!”–निगंठ नातपुत्त को ऐसा कह (द्वारपाल) जहां उपालि गृहपति था, वहां गया। जाकर उपालि गृहपति से बोला--
🙏"भन्ते! निगंठ नातपुत्त...।"
👉“तो सौम्य! दौवारिक! बिचली द्वार-शाला (=दालान) में आसन बिछाओ।"
🙏 “अच्छा भन्ते!”–उपालि गृहपति से कह, बिचली द्वार-शाला में आसन बिछा कहा
🙏"भन्ते! बिचली द्वार-शाला में आसन बिछा दिए। अब (आप) जिसका काल समझें।"
🚶तब उपालि गृहपति जहां बिचली द्वार-शाला थी, वहां गया। जाकर जो वहां अग्र, श्रेष्ठ, उत्तम, प्रणीत आसन था, उस पर बैठकर दौवारिक से बोला--
👄"तो सौम्य दौवारिक! जहां निगंठ नातपुत्त हैं, वहां जाओ, जाकर निगंठ नातपुत्त से यह कहो-
'भन्ते! उपालि गृहपति कहता है-यदि चाहें तो भन्ते! प्रवेश करें।"
“अच्छा भन्ते!”– (कह) ...दौवारिक ने... निगंठ नातपुत्त से कहा--
🙏“भन्ते! उपालि गृहपति कहते हैं-यदि चाहें तो प्रवेश करें।"
🚶निगंठ नातपुत्त बड़ी भारी निगंठ-परिषद् के साथ जहां बिचली द्वार-शाला थी, वहां गए। पहले जहां उपालि गृहपति, दूर से ही निगंठ नातपुत्त को आते देखता; देखकर अगवानी कर वहां जो अग्र, श्रेष्ठ, उत्तम, प्रणीत आसन होता, उसे (अपनी) चादर से पोंछकर, उस पर बैठाता था। सो आज जो वहां उत्तम आसन था, उस पर स्वयं बैठकर निगंठ नातपत्त से बोला
🙏"भन्ते! आसन मौजूद हैं, यदि चाहें तो
बैठें।”
🍁 ऐसा कहने पर निगंठ नातपुत्त ने उपालि-गृहपति से कहा👄--
🖐“उन्मत्त हो गया है गृहपति!
जड़ हो गया है गृहपति! तू-
'भन्ते! जाता हूं श्रमण-गोतम के साथ रोपूंगा- (कहकर) जाने के बाद बड़े भारी वाद के संघाट (जाल) में बंधकर लौटा है। जैसे कि अंड (=अंडकोश)-हारक निकाले अंडों के साथ आए; जैसे कि... अक्षि (=आंख)-हारक पुरुष निकाली आंखों के साथ आए, वैसे ही गृहपति! तू-“भन्ते! जाता हूं, श्रमण गोतम के साथ वाद रोपूंगा” (कहकर) जा, बड़े भारी वाद-संघाट में बंधकर लौटा है। गृहपति! श्रमण गोतम ने आवर्तनी माया से तेरी (मत) फेर ली है।”
🙏“सुन्दर है, भन्ते आवर्तनी माया। कल्याणी है भन्ते! आवर्तनी माया। (यदि) मेरे प्रिय जातिभाई भी इस आवर्तनीय माया द्वारा फेर लिए जाएं, (तो) मेरे प्रिय जाति-भाइयों को दीर्घ-काल तक हित-सुख होगा। यदि भन्ते! सभी क्षत्रिय इस आवर्तनी-माया से फेर लिए जायं, तो सभी क्षत्रियों का दीर्घ-काल तक हित-सुख होगा। यदि सभी ब्राह्मण... । यदि सभी वैश्य... । यदि सभी शूद्र...। यदि देव-मार-ब्रह्मा-सहित सारा लोक, श्रमण-ब्राह्मण-देव-मनुष्य-सहित सारी प्रजा (=जनता) इस आवर्तनी-माया से फेर ली जाय, तो... (उसका) दीर्घकाल तक हित-सुख होगा। भन्ते आप को उपमा कहता हूं, उपमा से भी कोई-कोई विज्ञ पुरुष भाषण का अर्थ समझ जाते हैं " --
👄“पूर्वकाल में भन्ते! किसी जीर्ण, बूढ़े, महल्लक ब्राह्मण की एक नव-वयस्का (=दहन) माणविका (=तरुण ब्राह्मणी) भार्या गर्भिणी आसन्न-प्रसवा हुई। तब भन्ते! उस माणविका ने ब्राह्मण से कहा-'ब्राह्मण! जा बाजार से एक वानर का बच्चा (=मर्कट-शावक) खरीद ला, वह मेरे कुमार (=बच्चे) का खेल होगा।”
🍁“ऐसा बोलने पर, भन्ते! उस ब्राह्मण ने उस माणविका से कहा-भवति (=आप)! ठहरिए, यदि आप कुमार जनेंगी, तो उसके लिए मैं बाजार से मर्कट-शावक (=खिलौना) खरीद कर ला दूंगा, जो आप के कुमार का खेल (खिलौना) होगा।”
🍁"दूसरी बार भी भन्ते! उस माणविका ने...।"
🍁" तीसरी बार भी ...।"
🍁 "तब भन्ते! उस माणविका में अति-अनुरक्त, प्रतिबद्ध-चित्त उस ब्राह्मण ने बाजार से मर्कट-शावक खरीद कर, लाकर उस माणविका से कहा-
'भवति! बाजार से यह तुम्हारा मर्कट-शावक खरीदकर लाया हूं, यह तुम्हारे कुमार का खिलौना होगा।' ऐसा कहने पर भन्ते! उस माणविका ने उस ब्राह्मण से कहा-'ब्राह्मण! इस मर्कट-शावक को लेकर वहां जाओ जहां रक्त-पाणि रजक-पुत्र (=रंगरेज का बेटा) है। जाकर रक्त-पाणि रजक-पुत्र से कहो-'सौम्य! रक्तपाणि! मैं इस मर्कट-शावक को पीतावलेपन रंग से रंगा, मला, दोनों ओर पालिश किया हुआ चाहता हूं।'
🍁तब भन्ते! इस माणविका में अति-अनुरक्त प्रतिबद्ध-चित्त वह ब्राह्मण उस मर्कट-शावक को लेकर जहां रक्तपाणि रजक पुत्र था, वहां गया, जाकर रक्त-पाणि रजक पुत्र से बोला-'सोम्य! रक्तपाणि इस...।
🍁 ऐसा कहने पर रक्त-पाणि रजक-पुत्र ने उस ब्राह्मण से कहा-'भन्ते! यह तुम्हारा मर्कट-शावक न रंगने योग्य है, और न मलने योग्य है, न मांजने योग्य है।' इसी प्रकार भन्ते! बाल (=अज्ञ) निगंठों का वाद (सिद्धांत), बालों (=अज्ञों) को रंजन करने लायक है, पंडित को नहीं। (यह) न परीक्षा (=अनुयोग)के योग्य है, न मीमांसा के योग्य है।
🍁 तब भन्ते! वह ब्राह्मण दूसरे समय *नया धुस्से* का जोड़ा ले, जहां रक्त-पाणि रजकपुत्र था, वहां गया। जाकर रक्त-पाणि रजक-पुत्र से बोला-'सौम्य! रक्त-पाणि! धुस्से का जोड़ा पीतावलेपन (=पीले) रंग से रंगा, मला, दोनों ओर से मांजा (=पालिश किया) हुआ चाहता हूं।' ऐसा कहने पर भन्ते! रक्तपाणि रजक-पुत्र ने उस ब्राह्मण से कहा-'भन्ते! यह तुम्हारा धुस्सा-जोड़ा रंगने योग्य है, मलने योग्य भी है, मांजने योग्य भी है। इसी तरह भन्ते! उन भगवान अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध का वाद पंडितों को रंजन करने योग्य है, बालों (=अज्ञों) को नहीं। (यह) परीक्षा और मीमांसा के योग्य है।"
🖐“गृहपति! राजा-सहित सारी परिषद् जानती है कि उपालि गृहपति निगंठ नातपुत्त का श्रावक है। (अब) गृहपति! तुझे जिसका श्रावक समझें?"
🔱ऐसा कहने पर उपालि गृहपति आसन से उठकर (दाहिने कन्धे को नंगाकर) उत्तरासंग (=चद्दर) को, एक कन्धे पर कर, जिधर भगवान थे उधर हाथ जोड़, नातपुत्त से बोला -
“भन्ते! सुनें मैं किसका श्रावक हूं?
🌷धीर विगत-मोह खंडित-कील विजित-विजय,
निर्दुख सु-सम-चित्त वृद्ध-शील सुन्दर-प्रज्ञ,
विश्व के तारक, वि-मल-उस भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥1॥
🌷अकथं-कथी, संतुष्ट, लोक-भोग को वमन करने वाले, मुदित,
श्रमण-हुए-मनुज अंतिम-शरीर-नर,
अनुपम, वि-रज-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥2॥
🌷संयम-रहित, कुशल, विनय-युक्त-बनाने वाले, श्रेष्ठ-सारथी,
अनुत्तर (=सर्वोत्तम), रुचिर-धर्म-वान्, निराकांक्षी, प्रभाकर,
मान-छेदक, वीर-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥3॥
🌷उत्तम (=निसभ), अ-प्रमेय, गम्भीर, मुनित्त्व प्राप्त,
क्षेमंकर, ज्ञानी, धर्मार्थ-वान्, संयत-आत्मा,
संग-रहित, मुक्त-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥4॥
🌷 नाग, एकांत-आसन-वान् संयोजन (=बन्धन)-रहित, मुक्त,
प्रति-मंत्रक (=वाद-दक्ष), धौत, प्राप्त-ध्वज, वीत-राग,
दान्त, निष्प्रपंच, उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥5॥
🌷 ऋषि-सत्तम, अ-पाखंडी, त्रि-विद्या-युक्त, ब्रह्म (=निर्वाण)-प्राप्त,
स्नातक, पदक (=कवि) प्रश्रब्ध, विदित वेद,
पुरन्दर, शक-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥6॥
🌷आर्य, भावित-सत्व, प्राप्तव्य-प्राप्त वैयाकरण,
स्मृतिमान्, विपश्यी अन-अभिमानी, अन्-अवनत,
अ-चंचल, वशी-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥7॥
🌷 सम्यग्-गत, ध्यानी, अ-लग्न-चित्त (=अन्-अनुगत-अन्तर), शुद्ध।
अ-सित (=शुद्ध), अ-प्रहीण, प्रविवेक-प्राप्त, अग्र-प्राप्त,
तीर्ण, तारक-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥8॥
🌷 शांत, भूरी (=बहु)-प्रज्ञ, महा-प्रज्ञ, विगत-लोभ,
तथागत, सुगत, अ-प्रति-पुद्गल (=अ-तुलनीय)=अ-सम,
विशारद, निपुण-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥9॥
🌷 तृष्णा-रहित, बुद्ध, धूम-रहित, अ-लिप्त,
पूजनीय=यक्ष, उत्तम-पुद्गल, अ-तुल,
महान् उत्तम-यश-प्राप्त-उन भगवान् का मैं श्रावक हूं ॥10॥"
🖐"गृहपति! श्रमण गोतम के (ये) गुण तुझे कब (से) सूझे?"
🙏"भन्ते! जैसे नाना पुष्पों की एक पुष्प-राशि (ले) एक चतुर माली या माली का अन्तेवासी (-शिष्य) विचित्र माला गूंथे; उसी प्रकार भन्ते! वे भगवान अनेक वर्ग (=गुण) वाले, अनेक शत वर्ण वाले हैं। भन्ते! प्रशंसनीय की प्रशंसा कौन न करेगा?"
😷निगंठ नातपुत्त ने भगवान के सत्कार को न सहनकर, वहीं मुंह से गर्म लहू फेंक दिया।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
नोट-
(1) निगंठ नात-पुत्त वही मुंह में खून फेंक कर गिर पड़े। उन्हें उनके शिष्यों ने पालकी में बैठा कर पावा पहुंचाया। वे वहां थोड़े ही दिनों में मर गए-अट्ठकथा।
(2) गहपति उपालि (नालंदा-वासी)
व
अरहत उपालि (साक्य व कपिलवस्तु-वासी, प्रथम संगीति मे विनय-पिटक का संगायन करने वाले) दोनो भिन्न भिन्न पुद्गल हैं |
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
Sunday, September 1, 2019
53-सेख-सुत्त (2.1.3)🍃
53
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃53-सेख-सुत्त (2.1.3)🍃
👂ऐसा मैंने सुना--
🚶एक समय भगवान् शाक्य (जनपद) में कपिलवत्थु के निग्गोधाराम (न्यग्रोधाराम) में विहार करते थे।
🌷उस समय कपिलवत्थु (कपिलवत्थु) के शाक्यों ने अभी ही अभी एक संथागार (संस्थागार) (-गण-संस्था का आगार) बनवाया था; श्रमण-ब्राह्मण या किसी मनुष्य द्वारा जिसका अभी उपभोग नहीं हुआ था। तब कपिलवत्थु के शाक्य जहां भगवान् थे, वहां गए, जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठ कपिलवत्थु के शाक्यों ने भगवा से यह कहा--
🙏"भन्ते! यह (हम) कपिलवत्थु के शाक्यों ने अभी ही अभी एक नया संथागार बनवाया है। उसका भन्ते! भगवान् पहले उपभोग करें। भगवान् के पहले परिभोग करने के बाद कपिलवत्थु के शाक्य उसका परिभोग करेंगे। यह कपिलवत्थु के शाक्यों को चिरकाल तक के हित-सुख के लिए होगा।”
🌷भगवान् ने मौन से स्वीकार किया। तब कपिलवत्थु के शाक्य भगवान की स्वीकृति को जानकर आसन से उठ भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणाकर, जहां संथागार था, वहां गये। जाकर संथागार में सब ओर फर्श बिछा, आसनों को स्थापित कर, पानी के मटके रख, तेल के प्रदीप आरोपित कर; जहां भगवान् थे, वहां गए; जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर खड़े हो बोले--
👄🙏"भन्ते! संथागार सब ओर से बिछा हुआ है; आसन स्थापित किए हुए हैं, पानी के मटके रखे हुए हैं, तेल-प्रदीप आरोपित किए हैं। भन्ते! अब भगवान जिसका काल समझें (वैसा) करें।"
🌷तब भगवान् पहन कर पात्र-चीवर ले, भिक्खुसंघ के साथ जहां संथागार था, वहां गए। जाकर पैर पखार, संथागार में प्रवेश कर, पूर्व की ओर मुंह कर बैठे; भिक्खुसंघ भी पैर पखार... पश्चिम भीत के सहारे भगवान को आगे कर बैठा। कपिलवत्थुवाले शाक्य भी पैर पखार, संथागार में प्रवेश कर पश्चिम की ओर मुंह कर पूर्व की भीत के सहारे भगवान को सम्मुख रखकर बैठे। तब भगवान ने कपिलवत्थु के शाक्यों को बहुत रात तब धार्मिक कथा से संदर्शित समादपित, समुत्तेजित, संप्रहर्षितकर आयुष्मान् आनन्द को संबोधित किया--
👄“आनन्द! अब कपिलवत्थु के शाक्यों को बाकी उपदेश तू कर; मेरी पीठ अगिया रही है; सो मैं लेटूंगा।"
🙏“अच्छा, भन्ते!”–(कह) आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् को उत्तर दिया।
🌷तब भगवान् ने चौपेती संघाट ( भिक्खु की ऊपरी दोहरी चद्दर) बिछवा, दाहिनी करवट के बल, पैर पर पैर रख, स्मृति-सम्प्रजन्य के साथ, उत्थान की संज्ञा (ख्याल) मन में कर सिंहशय्या लगाई।
🔱तब आयुष्मान् आनन्द ने महानाम शाक्य को संबोधित किया-
☝"महानाम! आर्य श्रावक शील (=सदाचार)से युक्त, इन्द्रिय में संयत (=गुप्तद्वार), भोजन में मात्रा को जाननेवाला, जागरण में तत्पर, सात सद्धर्मों के सहित, इसी जन्म में सुख से विहार के उपयोगी चारों चैतसिक ध्यानों का पूर्णतया लाभी (पानेवाला), बिना कठिनाई के लाभी=(=अ-कृच्छ्-लाभी) होता है।
☝"महानाम! कैसे आर्यश्रावक शील से युक्त होता है?-जब महानाम! आर्यश्रावक शीलवान् (=सदाचारी) होता है। पातिमोक्ख (=भिक्खु नियम)-संवर (=रक्षा)से संवृत (=रक्षित) हो विहरता है। आचार-गोचर-संपन्न (हो) अणुमात्र दोषों में भी भय देखने वाला (होता है)। शिक्षापदों (=सदाचार-नियमों)को ग्रहणकर (उनका) अभ्यास करता है। इस प्रकार महानाम! आर्यश्रावक शील-सम्पन्न होता है।
☝“महानाम! कैसे आर्यश्रावक इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है?-जब महानाम!
🌷आर्यश्रावक चक्षु (=आंख)से रूप को देखकर न निमित्त (=आकार, लिंग) का ग्रहण करनेवाला होता है, न अनुव्यंजन (=लक्षण) का ग्रहण करनेवाला होता है। जिस विषय में चक्षु-इन्द्रिय के अ-संवृत (=अ-रक्षित) हो विहरने पर अभिध्या (=लोभ), दौर्मनस्य (रूपी) पाप-बुराइयां आ घुसती हैं; उसके संवर (=रक्षा)में तत्पर होता है, चक्षु-इन्द्रिय की रक्षा करता है चक्षु-इन्द्रिय में संवरयुक्त होता है।
🌷श्रोत्र से शब्द सुनकर... ।
🌷घ्राण से गंध सूंघकर...।
🌷जिह्वा से रस चखकर... ।
🌷काया से स्पष्टव्य (विषय) को स्पर्शकर...।
🌷मन से धर्म को जानकर... मन-इन्द्रिय में संवरयुक्त होता है। इस प्रकार महानाम! आर्यश्रावक इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है।
🤔"कैसे महानाम! आर्यश्रावक भोजन में मात्रा को जाननेवाला होता है?-
☝महानाम! भिक्खु ठीक से जानकर आहार ग्रहण करता है, क्रीड़ा, मद, मंडन-विभूषण के लिए न करके (उतना ही आहार सेवन करता है) जितना कि शरीर की स्थिति के लिए (आवश्यक) है, (भूख के) प्रकोप के शमन करने तथा वीतकाम में सहायता के लिए (आवश्यक है)। (यह सोचते हुए, कि) पुरानी भूख की वेदनाओं (=पीड़ाओं) को नाश करूंगा, नई वेदनाओं के उत्पन्न होने की (नौबत) न आने दूंगा; मेरी शरीर यात्रा निर्दोष होगी, और विहार निर्द्वन्द्व होगा। इस प्रकार महानाम! आर्यश्रावक भोजन में मात्रा जाननेवाला होता है।
🤔"कैसे महानाम! आर्यश्रावक जागरण में तत्पर होता है?-
☝महानाम! भिक्खु दिन में टहलने, बैठने या (अन्य) आचारणीय धर्मों से चित्त को शुद्ध करता है।
🤔“कैसे महानाम! आर्यश्रावक सात सद्धर्मों से युक्त होता है?-
☝महानाम! भिक्खु
🌷 (1) श्रद्धालु होता है-तथागत की बोधि (=परमज्ञान) में श्रद्धा करता है- “भगवा अर्हत् देव-मनुष्यों के शास्ता बुद्ध भगवान हैं।
🌷(2) ह्रीमान् (=लज्जाशील) होता है-कायिक, वाचिक, मानसिक दुराचारों से लज्जित होता है, पापों-बुराइयों के आचरण से संकोच करता है।
🌷(3) अपत्रपी (=संकोची) होता है पापों बुराइयों के आचरण से संकोच करता है।
🌷(4) बहुश्रुत श्रुत-धर=श्रुत-संचयी होता है-जो वे धर्म आदि-कल्याण, मध्य-कल्याण, पर्यवसान-कल्याण, सार्थक-स-व्यंजन हैं, (जो) केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को बखानते हैं, वैसे धर्म (=उपदेश) उसके बहुत सुने, वचनसे धारित, परिचित, मन से चिन्तित, दृष्टि (=दर्शन, ज्ञान)से अवगाहित (=प्रतिबिद्ध) होते हैं।
🌷(5) आरब्धवीर्य (=उद्योगी) होता है-बुराइयों (=अकुशल-धर्मों) के छोड़ने में, और भलाइयों के ग्रहण करने में, स्थिर दृढ़-पराक्रमी होता है। भलाइयों में स्थिर, अ-निक्षिप्त-धुर (=जुआ न उतार फेंकने वाला) होता है।
🌷 (6) स्मृतिमान होता है-परमं परिपक्क स्मृति (=याद)से युक्त होता है। चिरकाल के किए और कहे का स्मरण करने वाला, अनुस्मरण करने वाला होता है।
🌷 (7) प्रज्ञावान होता है-उत्पत्ति-विनाश को प्राप्त होने वाली, अच्छी तरह दुख के क्षय की ओर ले जाने वाली आर्य निधिक (=वस्तु के तह तक पहुंचनेवाली) प्रज्ञा से युक्त होता है।
🤔"कैसे महानाम! आर्यश्रावक इसी जन्म में सुख-विहार के उपयोगी चारों चैतसिक ध्यानों को पूर्णतया लाभी, बिना कठिनाई के लाभी, अकृच्छ्-लाभी होता है?-
☝महानाम! आर्यश्रावक कामों से विरहित... प्रथम-ध्यान को...। द्वितीय-ध्यान को...। ...तृतीय-ध्यान को...। ...चतृर्थ-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है।
☝“जब महानाम! आर्यश्रावक इस प्रकार शील-सम्पन्न होता है, इस प्रकार इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है, इस प्रकार भोजन में मात्राज्ञ होता है, इस प्रकार जागरण से तत्पर (=अनुयुक्त) होता है, इस प्रकार सात सद्धर्मों से समन्वित होता है, इस प्रकार चारों चैतसिक ध्यानों का पूर्णतया लाभी होता है। महानाम! यह आर्यश्रावक शैक्ष्य (=निर्वाण प्राप्ति के लिए जिसे अभी कुछ करना है) प्रातिपद (=मार्गारूढ़) कहा जाता है। (वह) न-सड़े-अंड़े (की भांति) (पुरुष) निर्भेद (=तह तक पहुंचने के योग्य है, संबोध (=परमज्ञान) के योग्य है, अनुपम योग-क्षेम (=निर्वाण)की प्राप्ति के योग्य है।
☝"जैसे महानाम! आठ, दस या बारह मुर्गी के अंडे हों तो भी वे चूजे पाद-नख से या मुख-तुण्ड से अंडे को फोड़कर स्वस्तिपूर्वक निकल आने के योग्य हैं; ऐसे ही महानाम! जब आर्यश्रावक इस प्रकार शील-सम्पन्न होता है तो महानाम! यह आर्यश्रावक शैक्ष्य कहा जाता है, (वह) अनुपम योग-क्षेम की प्राप्ति के योग्य है।
☝"महानाम! वह आर्यश्रावक इसी अनुपम स्मृति की पारिशुद्धि (करनेवाली) उपेक्षा द्वारा अनेक प्रकार के पूर्वनिवासों (=पूर्वजन्मों)को स्मरण करने लगता है...। इस प्रकार आकार और उद्देश्य सहित अनेक प्रकार के पूर्वनिवासों को स्मरण करने लगता है। यह महानाम! मुर्गी के चूजे का अण्डे के कोश से पहला फूटना होता है।
☝“महानाम! फिर वह आर्यश्रावक इसी... उपेक्षा द्वारा अ-मानुष विशुद्ध दिव्य, चक्षु से... कर्मानुसार गति को प्राप्त होते प्राणियों को पहचानता है। यह महानाम! ...दूसरा फूटना है।
☝"महानाम! फिर वह आर्यश्रावक इसी उपेक्षा द्वारा आस्रवों के क्षय से आसव-रहित चित्त-विमुक्ति (=मुक्ति) प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी जन्म में जानकर साक्षात्कारकर, प्राप्तकर विहरता है। यह महानाम! ...तीसरा फूटना है।
☝"महानाम! जो कि आर्यश्रावक शील-सम्पन्न होता है, यह भी उसके चरण (=पद या आचरण)में है। जो कि महानाम! आर्यश्रावक इन्द्रियों में गुप्तद्वार होता है, यह भी उसके चरण में है। ...भोजन में मात्राज्ञ...। ...जागरण में अनुयुक्त...। ...सात सद्धर्मों से संयुक्त...। चार आभिचेतसिक (=शुद्ध चित्तवाले) ध्यानों का पूर्णतया लाभी ...।
☝"महानाम! जो कि आर्यश्रावक अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को जानता है... । यह भी उसकी विद्या में है। ...विशुद्ध दिव्य-चक्षु... । ...आम्रवों के क्षय...।
☝"महानाम! ऐसा आर्यश्रावक विद्या-सम्पन्न कहा जाता है; इस प्रकार चरण-सम्पन्न (कहा जाता है)। इस प्रकार विद्या-चरण-सम्पन्न (होता है)।
☝"महानाम! सनत्कुमार ब्रह्मा ने भी यह गाथा कही है--
🌷' *गोत्र का ख्याल करनेवाले लोगों में जन्म में क्षत्रिय श्रेष्ठ है* ।
🌷*जो विद्या-चरण-सम्पन्न है, वह देव-मनुष्यों में (सबसे) श्रेष्ठ है* ।
☝“महानाम! सनत्कुमार ब्रह्मा की गाई यह गाथा सु-गीता (=उचित कथन) है, दुर्गीता नहीं; सुभाषिता है, दुर्भाषिता नहीं; अर्थ-युक्त है, अन्-अर्थ-युक्त नहीं; भगवा द्वारा भी (यह) अनुमत है।"
🍃तब भगवान ने उठकर आयुष्मान् आनन्द को संबोधित किया--
🙌“साधु, साधु (=शाबाश), आनन्द! तुमने कपिलवत्थु के शाक्यों के लिए शैक्ष्य मार्ग का अच्छी तरह व्याख्यान किया।”
🔱आयुष्मान् आनन्द ने यह कहा, शास्ता (=भगवान बुद्ध) उससे सहमत हुए।
🙏कपिलवत्थु के शाक्यों ने आयुष्मान् आनन्द के भाषण का अभिनन्दन किया।🙏
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
गोदत्त सुत्त - एक अर्थ वाले विभिन्न शब्द
🌹संयुत्त निकाय🌹
🌴सातवाँ परिच्छेद🌴
🌳३९. चित्त-संयुत्त🌳
🔸७. गोदत्त सुत्त (३९. ७)🔸
एक अर्थ वाले विभिन्न शब्द :
🔸
एक समय, आयुष्मान् गोदत्त मच्छिकाखण्ड में अम्बाटकवन में विहार करते थे।
🔸
एक ओर बैठे गहपति चित्त से आवुस गोदत्त बोले-
🔸
" गहपति !
जो अप्रमाण चेतोविमुक्ति है,
जो आकिञ्चन्य चेतोविमुक्ति है,
जो शून्यता चेतोविमुक्ति है, और
जो अनिमित्त चेतोविमुक्ति है,
क्या इन धर्मों के भिन्न-भिन्न अर्थ और
भिन्न-भिन्न अक्षर हैं या
एक ही अर्थ बताने वाले इतने शब्द हैं ?"
🙏
" भन्ते !
एक दृष्टिकोण से ये धम्म भिन्न-भिन्न अर्थ और भिन्न-भिन्न अक्षर वाले हैं,
किन्तु दूसरे दृष्टिकोण से ये भिन्न-भिन्न शब्द एक ही अर्थ को बताते हैं।"
🔸
"गहपति !
किस दृष्टिकोण से ये धम्म भिन्न-भिन्न अर्थ और भिन्न-भिन्न अक्षर वाले हैं ?
(1)
🙏
" भन्ते !
भिक्खु मैत्री-सहगत चित्त से एक दिशा को पूर्ण कर विहार करता है।
वैसे ही दूसरी दिशा को,
तीसरी दिशा को,
चौथी दिशा को,
ऊपर, नीचे, टेढ़े-मेढ़े,
सभी प्रकार से सारे लोक को अप्रमाण
मैत्री-सहगत चित्त से पूर्ण कर विहार करता है।
🙏
करुणा-सहगत चित्त से एक दिशा को पूर्ण कर विहार करता है।
वैसे ही दूसरी दिशा को,
तीसरी दिशा को,
चौथी दिशा को,
ऊपर, नीचे, टेढ़े-मेढ़े,
सभी प्रकार से सारे लोक को अप्रमाण
करूणा-सहगत चित्त से पूर्ण कर विहार करता है।
🙏
मुदिता-सहगत चित्त से एक दिशा को पूर्ण कर विहार करता है।
वैसे ही दूसरी दिशा को,
तीसरी दिशा को,
चौथी दिशा को,
ऊपर, नीचे, टेढ़े-मेढ़े,
सभी प्रकार से सारे लोक को अप्रमाण
मुदिता-सहगत चित्त से पूर्ण कर विहार करता है।
🙏
उपेक्खा-सहगत चित्त से एक दिशा को पूर्ण कर विहार करता है।
वैसे ही दूसरी दिशा को,
तीसरी दिशा को,
चौथी दिशा को,
ऊपर, नीचे, टेढ़े-मेढ़े,
सभी प्रकार से सारे लोक को अप्रमाण
उपेक्खा-सहगत चित्त से पूर्ण कर विहार करता है।"
🙏
भन्ते !
इसी को कहते हैं,
👉 'अप्रमाण चित्त से विमुक्ति' ।"
🙏
" भन्ते !
आकिञ्चन्य चेतो-विमुक्ति क्या है ?
भन्ते !
भिक्खु सभी तरह विज्ञानानन्त्यायतन का
अतिक्रमण कर।
👉 'कुछ नहीं है'
ऐसा आकिञ्चन्यायतन को प्राप्त हो
विहार करता है।
भन्ते !
इसी को कहते हैं
👉 'अकिञ्चनप-चेतोविमुक्ति।"
🙏
" भन्ते !
शून्यता-चेतोविमुक्ति क्या है ?
भन्ते !
भिक्खु आरण्य में,
वृक्ष के नीचे, या
शून्य-गृह में चिन्तन करता है---
यह आत्मा या आत्मीय से शून्य है।
भन्ते !
इसी को कहते हैं ,
👉 'शून्यता चेतोविमुक्ति'।"
🙏
" भन्ते!
अनिमित्त चेतोविमुक्ति क्या है ?
भन्ते !
भिक्खु सभी निमित्तों को मन में न ला
अनिमित्त चित्त की समाधि को प्राप्त हो विहार करता है ।
भन्ते !
इसी को कहते हैं
👉 'अनिमित्त-चेतोविमुक्ति' ।"
🙏
"भन्ते !
यही एक दृष्टि-कोण है,
जिससे ये धम्म भिन्न-भिन्न अर्थ और
भिन्न अक्षर वाले हैं।"
(2)
🙏
" भन्ते !
किस दृष्टिकोण से यह एक ही अर्थ को बताने वाले भिन्न-भिन्न शब्द हैं ?"
🙏
" भन्ते!
राग प्रमाण करनेवाला है,
द्वेष प्रमाण करनेवाला है,
मोह प्रमाण करनेवाला है,
वे क्षीणाश्रव भिक्खु के उच्छिन्न ... होते हैं ।
🙏
भन्ते!
जितनी अप्रमाण चेतोविमुक्तियाँ हैं,
सभी में अर्हत्व-फल-चेतोविमुक्ति श्रेष्ठ है।
वह अर्हत्व-फल - चेत्तोविमुक्ति,
राग से शून्य है,
द्वेष से शून्य, और
मोह से शून्य है।
🙏भन्ते !
राग किंचन ( =कुछ ) है,
द्वेष किंचन ( =कुछ ) है,
मोह किंचन ( =कुछ ) है।
वे क्षीणाश्रव भिक्खु के उच्छिन्न ... होते हैं। जितनी आकिञ्चन्य चेतोविमुक्तियाँ हैं,
सभी में अर्हत्व-फल-चेतोविमुक्ति श्रेष्ठ है।
🙏
भन्ते !
राग निमित्त-करण है,
द्वेष निमित्त-करण है,
मोह निमित्त-करण है,
वे क्षीणाश्रव भिक्षु के उच्छिन्न ... होते हैं।
🙏
भन्ते !
जितनी अनिमित्त चेतोविमुक्तियाँ हैं
सभी में अर्हत्व-फल-चेतोविमुक्ति श्रेष्ठ है।...
🙏
भन्ते !
इस दृष्टि-कोण से,
यह एक ही अर्थ को बताने वाले,
भिन्न भिन्न शब्द हैं ।"
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
निगण्ठ सुत्त - ज्ञान बड़ा है या श्रद्धा
🌹संयुत्त निकाय🌹
🔰सातवाँ परिच्छेद🔰
🌴३९. चित्त-संयुत्त🌴
🌳८.निगण्ठ सुत्त ( ३९. ८ )🌳
ज्ञान बड़ा है या श्रद्धा :
🌳
उस समय निगण्ठ नातपुत्त मच्छिकासण्ड में अपनी बड़ी मण्डली के साथ पहुंचा हुआ था।
🌴
गहपति चित्त ने सुना कि निगण्ठ नातपुत्त मच्छिकासण्ड में अपनी बड़ी मण्डली के साथ पहुँचा हुआ है।
🌴
तब, गहपति चित्त कुछ उपासकों के साथ जहाँ निगण्ठ नातपुत्त था वहाँ गया,
और कुशल-क्षेम पूछ कर एक ओर बैठ गया।
🌳
एक ओर बैठे गहपति चित्त से निगण्ठ नातपुत्त बोला-
" गहपति ! तुम्हें क्या ऐसा विश्वास है कि समण गोतम को भी अवितर्क-अविचार समाधि लगती है, उसके वितर्क और विचार का क्या निरोध होता है?"
🌴
" भन्ते ! मैं श्रद्धा से ऐसा नहीं मानता हूँ कि भगवान् को अवितर्क-अविचार समाधि लगती है, जिससे वितर्क-विचार का निरोध होता है ।"
🌳
इस पर, निगण्ठ नातपुत्त अपनी मण्डली को देख कर बोला-
" आप लोग देखें,
गहपति ! चित्त कितना सीधा है,
सच्चा है,
निष्कपट है ॥
वितर्क और विचार का निरोध कर देना मानो हवा को जाल से बुझाना है।"
🌴
" भन्ते !
क्या समझते हैं, ज्ञान बड़ा है या श्रद्धा ?"
🌳
" गहपति ! श्रद्धा से ज्ञान ही बड़ा है।
जब मेरी इच्छा होती है, मैं ...
प्रथम ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता हूँ,
द्वितीय ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता हूँ,
तृतीय ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता हूँ,
चतुर्थ ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता हूँ,।"
🌴
" भन्ते !
सो मैं स्वयं ऐसा जान और देख,
क्या किसी समण या ब्राह्मण की श्रद्धा से ऐसा जानूँगा कि,
अवितर्क-अविचार समाधि होती है, तथा
वितर्क और विचार का निरोध होता है ।।"
🌳
ऐसा कहने पर, निगण्ठ नातपुत्र अपनी मण्डली को देखकर बोला-
" आप लोग देखें,
चित्त कितना टेढ़ा है,
शठ है,
कपटी है !!"
🌴
" भन्ते !
अभी तुरंत ही आपने कहा था-
' गहपति चित्त कितना सीधा है,
सच्चा है,
निष्कपट है ॥
वितर्क और विचार का निरोध कर देना मानो
हवा को जाल से बुझाना है।"
और
अभी ही आप कह रहे हैं-...
' गहपति चित्त कितना टेढ़ा है,
शठ है,
कपटी है !!"।"
🌴
"भन्ते !
यदि आपकी पहली बात सच है,
तो दूसरी बात झूठ, और
यदि दूसरी बात सच है तो पहली बात झूठ ।"
🌴
" भन्ते !
यह दस धम्म के प्रश्न आते हैं।
जब आप इनका उत्तर जानें तो मुझे
और
अपनी मण्डली को बतायें।
(१) जिसका प्रश्न एक का हो और जिसका
उत्तर भी एक का हो।
(२) जिसका प्रश्न दो का हो और जिसका उत्तर
भी दो का हो ।
(३) जिसका प्रश्न तीन का हो और जिसका
उत्तर भी तीन का हो ।
(४) जिसका प्रश्न चार का हो और जिसका
उत्तर भी चार का हो ।
(५) जिसका प्रश्न पाँच का जिसका उत्तर भी
पाँच का हो ।
(६) जिसका प्रश्न छः का जिसका उत्तर भी छ:
का हो ।
(७) जिसका प्रश्न सात का जिसका उत्तर भी
सात का हो ।
(८) जिसका प्रश्न आठ का जिसका उत्तर भी
आठ का हो ।
(९) जिसका प्रश्न नव का जिसका उत्तर भी
नव का हो । ।
(१०) जिसका प्रश्न दस का हो, और जिसका
उत्तर भी दस का हो ।"
🙇
तब, गहपति चित्त निगण्ठ नातपुत्त से यह प्रश्न पूछ आसन से उठकर चला गया ।
🙏
टिप्पण :
इन दस प्रश्न व उनके उत्तर के लिये देखें :-
👇👇👇
🌹34. दसुत्तर-सुत्त (३।११)🌹
🌹दिग्घनिकाय (3,11)🌹
🔺1. बौद्ध-मन्तव्यो की सूची उपकारक,
🔺2. भावनीय,
🔺3. परिज्ञेय,
🔺4. प्रहातव्य,
🔺5. हानभागीय,
🔺6. विशेषभागीय,
🔺7. दुष्प्रतिवेघ्य,
🔺8. उत्पादनीय,
🔺9. अभिज्ञेय,
🔺10. साक्षात्करणीय धम्म ॥
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
संकलन कर्ता
डॉ राकेश अनुरागी
श्री मनीष कुमार
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