सुदस्सं वज्जमञ्जेसं उत्तनो पन दुइसं।
परेसं हि सो वज्जानि ओपुनाति यथा भुसं।
अत्तनो पन छादेति कलि व कितवा सठी॥
भगवान बुद्ध कहते हैं कि दूसरे का दोष देखना आसान है, अपना दोष देखना कठिन। मनुष्य दूसरों के दोषों को भूस की तरह फैलाता है। और अपने दोषों को ऐसे छिपाता है जैसे जुआरी पासों को।
परवज्जानुपस्सिस्स निच्चं उज्झानसञ्जिनो।
आसवा तस्य वड्ढन्ति आरा सो असावक्खया॥
जो आदमी दूसरों के दोष देखता रहता है और नित्य दूसरों से खीजता रहता है, उसके चित्त के मल बढ़ जाते हैं। उसके मन का मैल मिटाना कठिन है।
Thursday, May 24, 2012
बुद्ध वाणी – “दूसरों के दोषॊं को मत देखो”
Wednesday, May 23, 2012
वर्तामान और सचेतावस्था मे जीना
संबोधि प्राप्ति के पशचात गौतम बुद्ध ने उरुबेला गांव के बच्चों से वन से जाने की आज्ञा माँगी । सुजाता, नंद बाला , सुभाष , स्वास्ति और रुपक उनके इस कथन से विस्मित से रह गये । सिदार्थ ने सुजाता और अन्य बच्चों से कहा कि आज वह तीसरे पहर बच्चों से वन मे मिलना चाहते हैं ताकि जो संबोधि का मार्ग उन्होने चुना है उसको वह उन्हें बाँट सकें ।
उनके बताये समय के अनुसार बहुत से बच्चे आये और सब पीपल के वृक्ष के पास घेरा बना के बैठ गये । सुजाता अपने साथ नारियल और ताडगुड की बट्टियाँ उपहार स्वरुप लायी थी और वहीं नंद बाला और सुभाष अपने साथ टॊकरी में मिठ्ठे ( संतरे जैसा फ़ल ) लाया था । सब बच्चॊ ने आदर भाव से सिद्धार्थ को नमन किया और फ़लस्वरुप सिद्धार्थ ने उनको बैठ जाने को कहा । सिद्धार्थ ने बच्चों से कहा , “ तुम सब बच्चे समझदार हो और मुझे विशवास है कि जो मै तुम्हें बताउगाँ उन पर तुम अमल करोगे । जो मार्ग मैने सदधर्म का चुना है वह बहुत गूढ और सूक्ष्म है लेकिन जो भी उस पर अपना ह्रदय और चित्त लगायेगा वह उसे समझ सकता है और उस पर चल सकता है । ”
बच्चों जब तुम संतरे को छीलकर खाते हो तो उसे सचेतावस्था के साथ भी खा सकते हो और बगौर जागरुक रह कर भी । जब तुम मिट्ठा खाओ तो तुम को भली भाँति ज्ञान हो कि तुम मिट्ठा खा रहे हो । तुम उसकी गंध और स्वाद को आत्मसात करो । जब तुम उसका छिल्का उतारो तब भी सजग रहो और जब उसकी फ़ाँक मुँह में रखो तब भी । जब तुम इस फ़ल की गंध और मिठास को अनुभव करो तो उस अनुभूति के प्रति भी सजग रहो । इस मिठ्ठे को देखकर चेतनावस्था का अभ्यास करने वाला सृष्टि की अदभुतताओं को समझ सकता है कि किस प्रकार समस्त वस्तुयें एक दूसरे के प्रति क्या क्रिया प्रतिक्रिया करती हैं । सचेतावस्था का अभ्यास करने वाला व्यक्ति इस मिठ्ठे में वे चीजें देख सकता है जिसे अन्य लोग देखने मे असमर्थ रहते हैं । सचेत व्यक्ति मिठ्ठे का पेड देख सकता है , वसन्त ऋतु मे मिठ्ठे को फ़लता देख सकता है , उस धूप और वर्षा को देख सकता है जिससे मिठ्ठे के पॆड का पोषण होता है और गहराई से देखने पर वह उन बातों को जान लेता है जिनके स्व्बरुप मिठ्ठा पककर तौयार होता है ।
नंद ने जो मुझे मिठ्ठा दिया है उसमें नौ फ़ाँके हैं । जिस प्रकार मिठ्ठे की नौ फ़ांके हैं उसी प्रतिदिन के चौबीस घंटॆ होते हैं । एक घंटा मिठ्ठे की एक फ़ांक के समान है । दिन के चौबीस घंटॊं को जीना इस मिठ्ठे की सभी फ़ांको को खा लेने के समान है । मेरा मार्ग दिन के प्रत्येक घंटे को सचेतावस्था के साथ जीना है जिसमे चित्त और शरीर हमेशा वर्तमान पर केन्द्रित हो । यदि हम अचेतावस्था में जी रह होते हैं तो हम जानते नही कि हम जी रह रहे हैं । हम जीवन का पूर्ण अनुभव इसी कारण नही कर पाते क्योंकि हमारा चित्त और शरीर वर्तमान को पूर्णता के साथ जीता ही नही है । “ बच्चों , सचेत होकर मिट्ठा खाने का अर्थ है कि तुम वास्तव में उसके संपर्क में हो । उस समय बीते हुये कल या आगामी कल के विचारों मे खोये हुये नही बल्कि पूरी तरह से इस क्षण को जी रहे हो । चेतन जागरुकता का अर्थ है वर्तमान के इस क्षण को पूर्णता के साथ जीना जिसमें तुम्हारा चित्त्त और शरीर इस समय यहाँ हों ।”
इसी तरह बच्चों सचेतावस्था में जीने वाला व्यक्ति जानता है कि वह क्या सोच रहा है , क्या कह रहा है और क्या कर रहा है । ऐसा व्यक्ति उन विचारों , शब्दों या कार्यों से बच सकता है जिनसे उसे स्वयं तथा दूसरे को कष्ट हो और इसी समझ और ज्ञान से सहनशीलता और प्रेम का उदय होता है । फ़लस्वरुप संसार में अधिक कष्ट नही रह जाते ।
स्त्रोत : सतिपत्थन सुत्त्त , सचेतावस्था से जुडा विचार से लिया गया है । तिक न्यात हन्ह ( Thich Nhat Hanh ) की पुस्तक जहं जहं चरन पडे गौतम के ( Old paths white clouds )- प्रकाशक ‘हिन्द पाकेट बुक ’
Saturday, May 5, 2012
बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनायें !!
आज से लगभग 2500 वर्ष पहले इसी पुण्य दिन धरती की गोद में महाराज शुद्धोधन के यहाँ राजकुमार सिद्धार्थ ने जन्म लिया था। इसके बाद एक-एक करके कई बैसाख पूर्णिमा आयी और चली गयीं। लेकिन फिर से एक महापुण्यवती बैसाख पूर्णिमा आयी, जब महातपस्वी सिद्धार्थ के अन्तर्चेतना में बुद्ध ने जन्म लिया। इस अनूठे जन्मोत्सव को मनुष्यों के साथ देवों ने भी अलौकिक रीति से मनाया। इस पुण्य घड़ी में सिद्धार्थ सम्यक् सम्बुद्ध बन गए और बैसाख पूर्णिमा बुद्ध पूर्णिमा में रूपान्तरित हो गयी।
इस पूर्णिमा से जुड़ी दोनों ही कथाएँ बड़ी ही मीठी और प्यारी हैं। आज से 2500 साल पहले, जिस दिन सिद्धार्थ का जन्म हुआ, समूची कपिलवस्तु में उत्सव की धूम मच गयी। पूरा नगर सज गया। रात भर लोगों ने दिए जलाए, नाचे। उत्सव की घड़ी थी, चिर दिनों की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी पूरे राज्य की। इसलिए राजकुमार को सिद्धार्थ नाम दिया गया। सिद्धार्थ का मतलब होता है, जीवन का अर्थ सिद्ध हो जाना, अभिलाषा का पूरा हो जाना।
पहले ही दिन, जब द्वार पर बैंड बाजे बज रहे थे, शहनाइयाँ गूँज रही थी, फूल बरसाए जा रहे थे, महलों में, चारों तरफ प्रसाद बांटा जा रहा था। तभी हिमालय से भागते हुए एक वृद्ध तपस्वी महलों के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। उसका नाम असिता था। नगर वासियों के साथ स्वयं सम्राट उनका सम्मान करते थे। वह अब तक कभी राजधानी न आए थे। स्वयं सम्राट को भी उनसे मिलने के लिए जाना पड़ता था। आज उन्हें अचानक महलों की डयोढ़ी पर देखकर सभी चकित थे। सम्राट ने आकर खड़े अचकचाए स्वर में उनसे पूछा-हे महातपस्वी, क्या सेवा करूँ आपकी।
असिता ने उनकी दुविधा का निवारण करते हुए कहा, परेशान न हो शुद्धोधन। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ है, उसके दर्शन को आया हूँ। शुद्धोधन तो समझ ही न पाए। सौभाग्य की घड़ी थी यह कि असिता जैसा महान् वीतरागी उनके बेटे को देखने के लिए आया। वह भागे हुए अन्त:पुर में गए और नवजात शिशु को बाहर लेकर आए। असिता झुके और उन्होंने शिशु के चरणों में सिर रख दिया। और कहते हैं, शिशु ने उनके पांव अपनी जटाओं में उलझा दिए। असिता पहले तो हंसे, फिर रोने लगे। शुद्धोधन तो हतप्रभ हो गए, वह पूछने लगे, महामुनि आप रोते क्यों हैं ?
असिता ने कहा, तुम्हारे घर में जो यह बेटा आया है, यह कोई साधारण आत्मा नहीं है, अरे यह तो सब तरह से अलौकिक है। कई सदियाँ बीत जाती है, तब कहीं यह आता है। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं, यह तो अनन्त-अनन्त लोगों के लिए समूची मनुष्यता के लिए सिद्धार्थ है। अनन्त जनों के जीवन का अर्थ इससे सिद्ध होगा। हंसता हूँ कि इसके दर्शन मिल गए। बहुत प्रसन्न हूँ कि इसने मुझ बूढ़े की जटाओं में अपने पांव उलझा दिए। मेरे लिए यह परम सौभाग्य का क्षण है। पर रुलाई इसलिए आ रही है कि जब यह कली खिलेगी, फूल बनेगी, जब दसों दिशाओं में इसकी महक उठेगी, तब मैं न रहूँगा। मेरे शरीर छूटने की घड़ी करीब आ गयी है।
महातपस्वी असिता की यह बात बड़ी अनूठी पर सच्ची है। बुद्धत्व का लुभावनापन ही कुछ ऐसा है। उनकी मोहकता है ही कुछ ऐसी। असिता जीवनमुक्त हो गए, पर उन्हें पछतावा होने लगा, कि काश एक जन्म अगर और मिलता तो इससे महाबुद्ध के चरणों में बैठने की, इनकी वाणी सुनने की, इनकी सुगन्ध पीने की, इनके बुद्धत्व में डूबने की सुविधा हो जाती। ऐसे अनूठे पल होते हैं, बुद्धत्व के विकसित होने के। महातपस्वी असिता में भी चाहत पैदा हो गयी कि मोक्ष दांव पर लगता हो लगे, कोई हर्जा नहीं। वह रोने लगे थे उनके पांवों पर सिर रखकर कि सदा ही चेष्टा कि कब छुटकारा हो इस शरीर से जीवन के आवागमन से, पर आज पछतावा हो रहा है।
काल प्रवाह के क्षण, दिवस, वर्ष बीते। और एक बैसाख पूर्णिमा को सत्य का, सम्बोधि का, बुद्धत्म का वहीं चाँद निकला, जिसकी चांदनी में जीने की चाहत कभी असिता ने की थी। यह पूर्णचन्द्र महातपस्वी शाक्यमुनि सिद्धार्थ के अन्तर्गगन में उदय हुआ। इस बीच अनेकों घटनाएँ काल सरिता में घटकर बह गयीं। शिशु सिद्धार्थ किशोर हुए, युवा हुए, यशोधरा उनकी राजरानी बनीं, राहुल के रूप में उन्हें पुत्र मिला। पर ये तो दृश्य घटनाएँ थी। अदृश्य में भी बहुत कुछ घटा। प्रचण्ड वैराग्य, अनूठा विवेक-जिसकी परिणति महाभिनिष्क्रमण के रूप में हुई। युवराज तपस्वी हो गए। तपस्या में दुर्बल, जर्जर सिद्धार्थ को सुजाता ने खीर खिलायी। और उनकी देह को ही नहीं जीवन चेतना को भी नव जीवन मिला। और वह गौतम बुद्ध हो गए।
गौतम बुद्ध के रूप में वे ऐसे है जैसे हिमाच्छादित हिमालय। जिससे करुणा की अनेकों जलधाराएँ निकलती हैं। जहाँ से महाकरुणा की गंगा बहती है। जो पतितपावनी, कलिमलहारिणी, सर्वपापनाशिनी है। पर्वत तो और भी है हिमाच्छादित पर्वत भी और है। पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे हैं। पूरी मनुष्य जाति में उनके जैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। उन्होंने जितने हृदयों की वीणा को बसाया है, उतना किसी और ने नहीं। उनके माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम भगवत्ता उपलब्ध की, उतनी किसी और के माध्मय से नहीं।
बुद्ध के बोल अत्यन्त मीठे हैं, उनके वचन बहुत अनूठे हैं। उनके द्वारा कही गयी धम्म गाथाओं में जीवन के बहुआयामी सच है। प्रत्येक धम्मगाथा एक कथा कहती है और जिन्दगी को राह दिखाती है। इस पुस्तक में इन अनूठी कथाओं को पिरोया गया है। एच.जी. वेल्स ने बुद्ध के संबंध में एक अद्भुत सच्चाई बयान की। उन्होंने कहा- कि समूची धरती पर उन जैसा ईश्वरीय व्यक्ति और उनकी तरह ईश्वर शून्य व्यक्ति एक साथ पाना कठिन है- सो गॉड लाइफ एण्ड सो गॉड लेस। अगर कोई ईश्वरीय प्रतिभाओं को खोजने निकले तो बुद्ध से शून्य। ईश्वर शून्यता का अर्थ ईश्वर विरोधी होना नहीं है। जैसा कि कुछ समझदार समझे जाने वाले नासमझों ने समझ लिया है। इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने परम सत्य का उच्चार नहीं किया।
उपनिषद् कहते हैं कि ईश्वर के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना तो कह ही दिया। बुद्ध ने इतना भी नहीं कहा। वे परम उपनिषद् हैं। वह ईश्वर की चर्चा करने वाले केवल नाम मात्र के आस्तिक नहीं हैं। अगर परमात्मा के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं, तो फिर बुद्ध ने कुछ नहीं कहा। बस चुप रहकर-इशारा किया। पशिचम में एक बहुत बड़ा दार्शनिक हुआ है- लुडविग पिट्गिंस्टाइन। उसने अपनी बड़ी अनूठी किताब ‘ट्रैफ्टेटस’ में लिखा है कि जिस संबंध में कुछ कहा न जा सके, उस संबंध में बिल्कुल चुप रह जाना उचित है। दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड, मस्ट नॉट भी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, कहना ही नहीं चाहिए।
अगर विट्गिंस्टाइन ने बुद्ध को देखा होता तो वे अपने कहे हुए सच की अनुभूति कर लेते। अगर विट्गिंस्टाइन की बातों को बुद्ध ने सुना होता तो अवश्य मुस्करा देते। बड़े ही प्यार से वे उसके कथन को अपनी स्वीकृति दे देते। परिश्रम के लोगों ने विट्गिंस्टाइन को समझने में भूल की। यही भूल पूरू के लोगों को हुई, बुद्ध को समझने में। बुद्ध दार्शनिक और विचारक नहीं, वह रुग्ण मनुश्यता के लिए बड़े ही करुणावान वैद्य थे। बहुत लोगों ने मनुष्य के रोग का विश्लेषण किया है। पर इतना करुणापूर्ण होकर और इतने सटीक ढंग से नहीं। बड़े ढंग सेल लोगों की बातें कही हैं, बड़े गहरे प्रतीक उपाय में लाए हैं। पर बुद्ध के कहने का ढंग ही कुछ और है, जिसने एक बार सुना, पकड़ा गया। जिसे उनके बुद्धत्व की थोड़ी सी झलक मिल गयी, उसका समूचा जीवन ही रूपान्तरित हो गया। ‘अप्प दीपो भव’ यही बुद्ध का अन्तिम वचन है। बुद्ध पूर्णिमा के शुभ क्षणों में इस भांति भी स्मरण किया जा सकता है-
महाबुद्ध ने मुझसे-तुमसे,
एक-एक से, हम सबसे
सुनो, यह सत्य कहा,
अपने दीपक आप बनो तुम
तिमिर का व्यूह भेद करना है,
कैसा यहाँ विराम
शिखा को झंझा में पलना है।
साभार : आचार्य श्रीराम शर्मा
बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनायें !!