भय तकलीफ़ का एक अभिग्न अंग है । और यही वजह है कि दर्द का एहसास हमे भय के कारण ही अधिक होता है । अगर भय को एक बार हटा ले तो सिर्फ़ एहसास ही बच जाता है और दर्द चला जाता है ।
१९७० के मध्य के दश्क मे मै उतर पूर्व थाइलैड के जंगल मे एक मोनेस्ट्री मे अन्य भिक्खुओं के साथ रह रहा था । उस रात मुझे जो दाँत मे दर्द हुआ उसकी कल्पना करना भी असहनीय थी । उस जंगल मे न तो कोई दाँत का डाक्टर था , न ही कोई दवा , न टेलीफ़ोन की सुविधा और न बिजली का इन्तजाम ।
रात होते-२ दर्द भंयकर रुप से बढ चुका था । वैसे मै अपने आप को काफ़ी सख्त रुप का भिक्खु समझता हूँ लेकिन उस रात लगता है कि यह दर्द मेरे मुझ जैसे भिक्खु की योग्यता की परीक्षा ले रहा था । दर्द से बचने के लिये मैने ध्यान करना शुरु किया लेकिन दर्द तो कम न हुआ और मेरा ध्यान अपनी श्वास के बजाय उन मच्छरों पर ही लगा रहा जो बार-२ मुझे काट के हलकान किये जा रहे थे ।
मै उठा , बाहर गया और चलित ध्यान करने की असफ़ल कोशिश की । लेकिन मुझे यह भी जल्द ही छोडना पडा क्योंकि मुहे यह लगने लगा था कि मै चल नही रहा था बल्कि मै दौड रहा था । दर्द की तरिवता मुझे दौडा रही थी हाँलाकि उस मठ मे दौडने की जगह बिल्कुल भी न थी ।
मै वापस अपने कुटिया मे आया और बैठ कर जप करने की भी कोशिश की । अकसर मेरे साथी भिक्खु कहते थे कि बौद्ध मंत्रों के जप करने मे अभूत पूर्व शक्तियाँ होती है , यह शक्तियाँ आपका भविष्य बदल सकती है , जंगल मे से जानवरों को भगा सकती हैं आदि आदि । मेरा परिवेश एक वैज्ञानिक तरीके से हुआ था इसलिये मुझे कभी भी इन चीजों पर विशवास न रहा । मंत्रों का जाप करना मेरी दृष्टि मे भोले भाले लोगों को धोखा देने जैसा ही है । लेकिन इसके बावजूद भी मै जाप करता गया लेकिन इससे भी पीडा कम न हुई । मुझे यह इसलिये भी छोडना पडा क्योंकि मै जाप कम बल्कि शोर अधिक मचा रहा था ।
अपने घर से लगभग १००० किमी दूर एक जंगल मे जो कुछ मुझे समझ आया मैने प्रयास किये लेकिन सभी असफ़ल सिद्ध हुये । निराशा और गहन पीडा की उस घडी मे एक रोशनी मेरे दिल और दिमाग मे कौधीं । एक दरवाजा खुला और उसके बाद सारे दरवाजे एक के बाद खुलते गये ।
मुझे अपने बचपन के दिनों मे पढे हुये दो शब्द याद आये , “ जाने दो ” न जाने इन शब्दों को मैने कितनी बार सुना था , न जाने अनगिनत बार अपने मित्रों से मैने इसकी व्याख्या की थी । लेकिन इसका वास्तविक अर्थ मुझे आज मालूम पडा ।
अगले कुछ क्षण मे जो हुआ वह मेरे लिये अकल्पनीय था । भीषण दर्द का एहसास लगभग समाप्त हो चुका था और उसके बद्ले मे मनोरम आनंद की अनूभूति हो रही थी । मेरा मन और मस्तिष्क शांति की गहन अवस्था मे स्थिर हो चुका था । एक बार पु:न मै ध्यान करने के लिये बैठा । सुबह होते-२ ध्यान करने के पशचात मैने अल्प लेकिन पूर्ण नींद ली । मठ के कर्तव्यों को पूरा करने के लिये जब मै सुबह सोकर उठा तो मुझे ध्यान आया कि मेरे दाँत मे दर्द है लेकिन यह पीडा बीती रात की तुलना मे कुछ भी नही थी ।
मेरे कई मित्रो ने दर्द मे इस तरीके को आजमाया और पाया कि यह काम नही करता । वह मेरे पास आये और उन्होने शिकायत की कि उनका दर्द मेरे दाँत के तुलना मे अधिक था । लेकिन मै जानता हूँ कि यह सच नही है । पीडा का मूल्याकंन नही किया जा सकता । मेरी पीडा इसलिये कम हुई क्योकि मैने दर्द का स्वागत किया , उसको गले लगा के उसे आने दिया । इसलिये वह ओझल भी हो गया ।
मैने अपने मित्रो को “ जाने दो ” के असफ़ल रहने के कारण को मेरे तीन अनुयायियों की कहानी के जरिये से समझाया ।
पहले अनुयायी ने अपनी वेदना के दौरान “ जाने दो “ शब्द का कुछ इस तरह से प्रयोग किया ।
उसने मन ही मन कहा “ जाने दो ” और इतंजार करने लगा ।यही तो हम अपनी वास्तविक जिन्दगी मे करते हैं । “ जाने दो ” शब्द का अर्थ है कि जहाँ कोई भी नियत्रंण करने वाला नही हो । लेकिन हम अपने नियत्रण करने वाले स्वयं ही बन जाते हैं जो मेरी समझ मे यह सनक के अलावा कुछ भी नही है ।
एक बार फ़िर उसने “ जाने दो ” शब्द को दोहराया लेकिन कोई परिवर्तन नही दिखा ।
अबकी बार कुछ शिकायत भरे तरीके से कहा , “चलो अब बहुत हो गया जाने भी दो | ”
कुछ झल्लाये और क्रोधित अंदाज मे , “ जाते हो यह नही !! ”
दूसरे अनुयायी ने यह जानते और समझते हुये कि वह नियत्रंक की भूमिका नही निभा रहा है , चुपचाप मेरी सलाह को याद रखा और शांति से बैठकर यह अनुमान लगाने लगा कि उसकी पीडा कम हो रही है । दस मिनट बीत गये लेकिन कुछ भी परिवर्तन नही दिखा । उसने मुझसे शिकायत की मेरे तरीके उसके काम नही आ रहे हैं । मैने उसको समझाया कि “ जाने दो ” शब्द किसी दर्द को छुट्कारा पाने का तरीका नही है बल्कि यह दर्द को शांति से सहने की विधि है । दूसरे अनुयायी ने अबकी बार अपनी पीडा से सौदा करने की कोशिश की , “ मै तुम्हे १० मिनट का समय देता हूँ , अब तुम यहाँ से चले जाओ । ”
लेकिन यह दर्द को जाने देने का तरीका नही है , यह तो पीडा को छुट्कारा पाने का ढंग हुआ ।
तीसरे अनुयायी ने अपनी तीव्र पीडा से कुछ ऐसे कहा , “ मेरी व्यथाओं तुम्हारा स्वागत है , मेरा दिल तुम्हारे लिये खुला है , आओ और मेरे लिये तुमसे जो बन सकता करो । ”
जाने दो का सही अर्थ यही है । मेरा तीसरा अनुयायी नियत्रंक की भूमिका को निभाये बगैर अपनी पीडाओं को यह स्वतंत्रता देता है कि वह जब तक रहना चाहे रहे । एक सच्चे साधक के लिये व्यथा का रहना या न रहना , दोनो ही एक समान है । और यही कारण है कि तीसरे अनुयायी को दर्द सहने और मुक्ति का मार्ग आसानी से मिल गया ।
अजह्न्ह ब्रह्म की पुस्तक , “ Who ordered this truckload of Dung ? “ मे से ली गई कहानी “ Fear of pain और Letting go of pain ” का हिन्दी अनुवाद ।