Sunday, August 25, 2019
Wednesday, August 21, 2019
पोतलिय-सुत्त (2.1.4)🍃
54
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃54-पोतलिय-सुत्त (2.1.4)🍃
👂ऐसा मैंने सुना--
🚶एक समय भगवान अंगुत्तराप-(जनपद) में अंगुत्तरापों के आपण नामक निगम (=कस्बे) में विहार करते थे।
🚶तब भगवान पूर्वाह्न समय (चीवर) पहनकर पात्र-चीवर ले, भिक्खाचार के लिए आपण में प्रविष्ट हुए। आपण में पिंडचार करके पिंडपात (=भोजन) समाप्तकर, एक वन-खण्ड में दिन के विहार के लिए गए। भीतर जाकर दिन के विहार के लिए एक वृक्ष के नीचे बैठे। पोतलिय गृहपति भी निवासन (=पोशाक) प्रावरण (=चादर) पहने, छाता जूता धारण किए, जंघा-विहार (=चहल-कदमी) के लिए टहलता, जहां वह वनखण्ड था वहां गया। वनखण्ड में घुसकर, जहां भगवान थे, वहां पहुंचा, जाकर भगवान के साथ सम्मोदन कर एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े हुए पोतलिय गृहपति से भगवान ने यह कहा👄-
🖐“गहपति! आसन विद्यमान है, यदि चाहते हो, तो बैठो।
😷ऐसा कहने पर पोतलिय गहपति - 'गहपति (=गृहस्थ, वैश्य) कहकर मुझे श्रमण गोतम पुकारता है'- कुपित और अ-सन्तुष्ट हो चुप रहा।
दूसरी बार भी ।। तीसरी बार भी।
तब पोतलिय गहपति ने - 'गृहपति कहकर' -कुपित और असन्तुष्ट हो भगवान से कहा👄-
.👉 “हे गोतम! आपको यह उचित नहीं, आपको यह योग्य नहीं, जो मुझे गहपति कहकर पुकारते हैं।"
☝"गहपति ! तेरे वही आकार हैं; वही लिंग हैं; वही निमित्त (=चिह्न) हैं, जैसे कि गहपति के।"
🙏"चूंकि हे गोतम!
मैंने सारे कर्मान्त (=खेती) छोड़ दिए,
सारे व्यवहार ( व्यापार, वाणिज्य) समाप्त कर दिए।
हे गोतम! मेरे पास जो धन, धान्य, रजत (=चांदी), जातरूप (सोना) था,
सब पुत्रों को तर्का दे दिया।
सो मैं (खेती आदि में) न ताकीद करनेवाला, कटु कहनेवाला हूं; सिर्फ खाने-पहनने भर से वास्ता रखनेवाला (हो) , विहरता हूं।"
☝"गहपति ! तू जिस प्रकार व्यवहार के उच्छेद को कहता है। अरियों (आर्यों) के विनय में व्यवहार-उच्छेद, (इससे) दूसरी ही प्रकार होता है।"
🙏"तो भन्ते! अरिय-विनय में व्यवहार-उच्छेद कैसे होता है? अच्छा! भन्ते! भगवान! मुझे उस प्रकार का धम्म उपदेश करें जैसे कि अरिय -विनय में व्यवहार-उच्छेद होता है।"
☝"तो गहपति ! सुनो, अच्छी तरह मन में करो; कहता हूं।"
🙏"अच्छा भन्ते!" कह पोतलिय गहपति ने भगवान को उत्तर दिया।
☝भगवान ने कहा-
🌷"गहपति ! अरिय-विनय (=अरिय - धम्म, अरिय - नियम) में ये आठ धम्म व्यवहार-उच्छेद करने के लिए हैं। कौन से आठ? --
🔱(1) अ-प्राणातिपात (=अहिंसा) के लिए,
प्राणातिपात छोड़ना चाहिए।
🔱(2) दिया (हुआ दान) लेने (=दिन्नादान) के
लिए, अ-दिन्नादान (=चोरी, न दिया लेना)
छोड़ना चाहिए।
🔱(3) सत्य बोलने के लिए,
मृषावाद (मिथ्यावाद) छोड़ना चाहिए।
🔱(4) अ-पिशुनवचन (=न चुगली करने)
के लिए, पिशुन-वचन छोड़ना चाहिए।
🔱(5) अ-गृद्ध-लोभ (=निर्लोभ) के लिए,
गृद्ध-लोभ छोड़ना चाहिए।
🔱(6) अ-निन्दा-दोष के लिए,
निन्दा छोड़नी चाहिए।
🔱(7) अ-क्रोध उपायास (=परेशानी) के लिए,
क्रोध-उपायास छोड़ना चाहिए।
🔱(8) अन्-अतिमान के लिए,
अतिमान (=अभिमान) को छोड़ना चाहिए।
☝गहपति ! संक्षिप्त से कहे, विस्तार से न विभाजित किए, ये आठ धम्म, अरिय-विनय में व्यवहार-उच्छेद करने के लिए हैं।"
🙏"भन्ते! भगवान ने जो मुझे विस्तार से न विभाजित किए, संक्षिप्त से, आठ धम्म...कहे। अच्छा हो भन्ते! (यदि) भगवान अनुकम्पा कर (उन्हें) विस्तार से विभाजित करें।" .
☝"तो गहपति ! सुनो, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूं।"
🙏“अच्छा भन्ते!” कह पोतलिय गहपति ने भगवान् को उत्तर दिया।
👄भगवान् बोले - "गहपति!
☝'अ-प्राणातिपात के लिए प्राणातिपात छोड़ना चाहिए', यह जो कहा, किस कारण से कहा? -
गहपति ! अरिय-सावक (आर्यश्रावक) ऐसा सोचता है -
'जिन संयोजनों के कारण मुझे प्राणातिपाती होना है, उन्हीं संयोजनों को छोड़ने के लिए, उच्छेद के लिए मैं लगा हूं और मैं ही प्राणातिपाती हो गया !
प्राणातिपात के कारण, आत्मा (=अपना चित्त) भी मुझे धिक्कारता है।
प्राणातिपात के कारण, विज्ञ लोग भी जानकर धिक्कारते हैं।
प्राणातिपात के कारण, काया छोड़ने पर, मरने के बाद, दुर्गति भी होनी है।
यही संयोजन (=बंधन) है,
यही नीवरण (=ढक्कन) है,
जो कि प्राणातिपात के कारण उत्पन्न होनेवाले विघात-परिदाह (=द्वेष-जलन) और आसव (=चित्त-दोष) प्राणातिपात से विरत को नहीं उत्पन्न होते।
'अ-प्राणातिपात के लिए, प्राणातिपात छोड़ना चाहिए' यह जो कहा, वह इसी कारण से कहा।"
☝"दिन्नादान के लिए अदिन्नादान छोड़ना चाहिए, यह जो कहा, किस कारण से कहा? गहपति! अरिय-सावक ऐसा सोचता है,
जिन संयोजनों के हेतु मुझे अदिन्नादायी (=बिना दिया लेनेवाले) होना है, उन्हीं संयोजनों के छोड़ने के लिए, उच्छेद करने के लिए, मैं लगा हआ हूं और मैं ही अ-दिन्नादायी हो गया!
अ-दिन्नादान के कारण चित्त भी मुझे धिक्कारता है।
अ-दिन्नादान के कराण विज्ञ लोग भी जानकर धिक्कारते हैं।
अ-दिन्नादान के कारण काया छोडने पर मरने के बाद दुर्गति भी होनी है।
यही संयोजन है, यही नीवरण है,
जो कि यह अ-दिन्नादान।
अदिन्नादान के कारण विघात (=पीड़ा), परिदाह (जलन) (और) आसव उत्पन्न होते हैं;
अ-दिन्नादान-विरत को नहीं होते।
'दिन्नादान के लिए अ-दिन्नादान छोड़ना चाहिए, यह जो कहा, वह इसी कारण कहा।"
☝“अ-पिशुन-वचन के लिए...।"
☝“अ-गृद्ध-लोभ के लिए...।"
☝“अ-निन्दा-रोष के लिए...।"
☝“अ-क्रोध-उपायास के लिए...।"
☝“अन्-अतिमान के लिए...।"
☝“गहपति अरिय-विनय में ये आठ! संक्षिप्त से कहे, विस्तार से विभाजित, व्यवहार-उच्छेद करनेवाले हैं। ...(किंतु इनसे) सर्वथा सब कुछ व्यवहार का उच्छेद नहीं होता।"
🙏“तो कैसे भन्ते! अरिय-विनय में सर्वथा सब कुछ व्यवहार-उच्छेद होता है? अच्छा हो भन्ते! भगवान् मुझे वैसे धम्म का उपदेश करें, जैसे कि अरिय-विनय में सर्वथा सब कुछ व्यवहार का उच्छेद होता है?"
☝"तो गहपति ! सुनो, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूं।"
🙏“अच्छा भन्ते!" ... । ...।
☝“गहपति! जैसे भूख से अति-दुर्बल कुक्कुर गो-घातक के सूना (=मांस काटने के पीढ़े) के पास खड़ा हो। चतुर गो-घातक या गोघातक का अन्तेवासी उसको मांस-रहित लहू में सनी... हड्डी फेंक दे। तो क्या मानते हो, गहपति ! क्या वह कुक्कुर उस हड्डी... को खाकर भूख की दुर्बलता को हटा सकता है?"
🙏“नहीं, भन्ते!”
☝“सो किस हेतु?”
🙏"भन्ते! वह लहू में चुपड़ी मांस-रहित हड्डी है। वह कुक्कुर केवल परेशानी पीड़ा का ही भागी होगा।"
☝“ऐसे ही गहपति ! अरिय-सावक सोचता है-हड्डी के समान भगवान् ने भोगों को बहुत दुख, बहुत परेशानीवाला कहा है, इनमें बहुत-सी बुराइयां हैं। अतः इसको यथार्थ से, अच्छी तरह प्रज्ञा से, देखकर, जो यह अनेकता वाली अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड. जो यह एकान्ततावाली एकान्त में लगी (उपेक्षा) है, जिसमें लोक के आमिष (=आसक्ति) के उपादान (ग्रहण स्वीकार) सर्वथा ही टूट जाते हैं; उसी उपेक्षा की भावना करता है।"
☝“जैसे गहपति ! गिद्ध, कौवा या चील मांस के टुकड़े को लेकर उड़े, उसको गिद्ध भी, कौवे भी, चील भी पीछे उड़-उड़कर नोचें, खसोटें। तो क्या मानता है, गहपति ! वह गिद्ध, कौवे या चील, यदि शीघ्र ही उस मांस के टुकड़े को न छोड़ दें, तो क्या वह उसके कारण मरण के या मरणान्त दुख को पाएगा न?”
🙏 “ऐसा ही, भन्ते!"
☝“ऐसे ही, गहपति ! अरिय-सावक सोचता है-भगवान् ने मांस के टुकड़े मांस-पेशी की भांति कामों को बहुत दुखवाला बहुत परेशानीवाला कहा है; इनमें बहुत सी बुराइयां हैं। इस प्रकार इसको अच्छी तरह प्रज्ञा से देखकर, जो यह अनेकता की, अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड़, जो यह एकान्तता की एकान्त में लगी उपेक्षा है; जिसमें लोकामिष के उपादान (=ग्रहण) सर्वथा ही उच्छिन्न हो जाते हैं; उसी उपेक्षा की भावना करता है।"
☝"जैसे गहपति ! पुरुष तृण की उल्का (=मशाल, लुकारी) को ले, हवा के रुख जाए। तो क्या मानते हो, गहपति ! यदि वह पुरुष शीघ्र ही उस तृण-उल्का को न छोड़ दे तो (क्या) वह तृण-उल्का उसकी हथेली को (न) जला देगी, या बांह को (न) जला देगी, या दूसरे अंग-प्रत्यंग को न जला देगी...?"
🙏“ऐसा ही, भन्ते!"
☝"ऐसे ही, गहपति ! अरिय-सावक सोचता है-तृण-उल्का की भांति बहुत दुखवाले बहुत परेशानीवाले हैं ।।"
☝"जैसे कि गहपति ! धूम-रहित, अर्चि (=लौ)-रहित अंगार का (=भउर, अग्नि-चूण) हो।
तब जीवन-इच्छुक, मरण-अनिच्छुक,
सुख-इच्छुक, दुख-अनिच्छुक पुरुष आवे; उसको दो बलवान् पुरुष अनेक बाहुओं से पकड़कर अंगारका में डाल दें। तो क्या मानते हो गहपति ! क्या वह पुरुष इस प्रकार चिता ही में शरीर को (नहीं) डालेगा?"
🙏"हां भन्ते!"
☝"सो किस हेतु?"
🙏"भन्ते! उस पुरुष को मालूम है, यदि मैं इन अंगारकाओं में गिरूंगा, तो उसके कारण मरूंगा या मरणान्त दुख को पाऊंगा।"
☝"ऐसे ही गहपति ! अरिय-सावक यह सोचता है - अंगारका की भांति दुखद। इसमें बहुत बुराइयां हैं।।
☝"जैसे गहपति !
पुरुष आराम की रमणीयता -युक्त,
वन-रमणीयता-युक्त,
भूमि-रमणीयता-युक्त,
पुष्करिणी-रमणीयता-युक्त स्वप्न को देखे।
सो जागने पर कुछ न देखे।
ऐसे ही गहपति।! अरिय-सावक यह सोचता है भगवान् ने स्वप्न-समान (=स्वप्नोपम) बहुत दुखद... कहा है।...।"
☝"जैसे कि गहपति !
(किसी) पुरुष (के पास) मंगनी के भोग, यान या पुरुष के उत्तम मणि-कुण्डल हों।
वह उन मंगनी के भोगों के साथ... बाजार में जाए। उसको देखकर आदमी कहे -
कैसा भोग-संपन्न पुरुष है!
भोगी लोग ऐसे ही भोग का उपभोग करते हैं!! सो उसके मालिक (=स्वामी) जहां देखें वहां कनात लगा दें। तो क्या मानते हो, गहपति! क्या उस पुरुष को दूसरा (भाव समझना) युक्त है?”
🙏“हां, भन्ते!”
☝“सो किस हेतु?”
🙏“(क्योंकि जेवरों के) मालिक कनात घेर देते हैं।”
☝“ऐसे ही गहपति ! अरिय-सावक ऐसा सोचता है - मंगनी की चीज के समान (=याचित-कूपम)... कहा है।...।"
☝“जैसे गहपति ! ग्राम या निगम से अ-दूर, भारी वन-खण्ड हो। वहां फल-सम्पन्न-उत्पन्न-फल वृक्ष हो; कोई फल भूमि पर न गिरा हो। तब फल-इच्छुक, फल-गवेषक-फल-खोजी पुरुष घमते हुए आवे। वह उस वन के भीतर जाकर, उस फल-संपन्न वृक्ष को देखे। उसको यह हो-यह वृक्ष फल-सम्पन्न ... है, कोई फल भूमि पर नहीं गिरा है; मैं वृक्ष पर चढ़ना जानता हूं। क्यों न मैं चढ़कर इच्छा-भर खाऊं, और फांड़ (=उच्हंग, उत्संग) भर ले चलूं।
तब दूसरा फल-इच्छुक, फल-गवेषी फल खोजी, पुरुष घूमता हुआ तेज कुल्हाड़ा लिए उस वनखण्ड के भीतर जाकर, उस वृक्ष को देखे। उसको ऐसा हो-यह वृक्ष फल-सम्पन्न... है, मैं वृक्ष पर चढ़ना नहीं जानता; क्यों न इस वृक्ष को जड़ से काटकर इच्छा भर खाऊं, और फांड भर ले चलूं। वह उस वृक्ष को जड़ से काटे।
तो क्या मानते हो, गहपति ! वह जो पुरुष पेड़ पर पहले चढ़ा था, यदि जल्दी ही न उतर आए, तो (क्या) वह गिरता हुआ वृक्ष उसके हाथ को (न) तोड़ देगा, पैर को (न) तोड़ देगा, या दूसरे अंग-प्रत्यंग को (न) तोड़ देगा? वह उसके कारण क्या मरण को (न) प्राप्त होगा, या मरणान्त दुख को (न) प्राप्त होगा?"
🙏"हां, भन्ते!"
☝"ऐसे ही गहपति !
अरिय-सावक सोचता है -
वृक्ष-फल समान कामों को कहा है।
इनमें बहुत सी बुराइयां (=आदिनव) हैं।
इस प्रकार इसको यथार्थतः,
अच्छी प्रकार, प्रज्ञा से देखकर,
जो यह अनेकतावाली अनेक में लगी उपेक्षा है,
उसे छोड़;
जो यह एकान्त की एकान्त में में लगी उपेक्षा
है, जिसमें लोक-अमिष का उपादान (=ग्रहण)
सर्वथा ही उच्छिन्न हो जाता है,
उसी उपेक्षा की भावना करता है।"
☝“सो वह गहपति !
अरिय-सावक इसी अनुपम उपेक्षा,
सति (स्मृति) की पारिशुद्धि (=स्मरण को
शुद्धि करनेवाली उपेक्षा) को पाकर,
अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों (=पूर्व जन्मों,
पूर्व अवस्थाओं) को स्मरण करता है;
जैसे कि एक जन्म भी, दो जन्म भी,
तीन जन्म भी ...
इस प्रकार आकार-सहित उद्देश (=नाम)-
सहित, अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को
स्मरण करता है।"
☝“सो वह गहपति ! अरिय-सावक इसी
अनुपम उपेक्षा स्मृति-पारिशुद्धि को पाकर,
विशुद्ध अ-मानुष दिव्य-चक्षु से,
मरते उत्पन्न होते, नीच-ऊंच,
सुवर्ण-दुर्वर्ण, सुगत-दुर्गत...
कर्मानुसार (फल को) प्राप्त,
प्राणियों को जानता है।"
☝“सो वह गहपति ! अरिय-सावक इसी
अनुपम उपेक्षा स्मृति-पारिशुद्धि को पाकर,
इसी जन्म में आसवों (=चित्त-दोषों) के
क्षय से, अन्-आस्रव चित्त-विमुक्ति को
जानकर, प्राप्त कर, विहरता है।
गहपति ! अरिय-विनय में इस प्रकार ...
सर्वथा सभी कुछ सब व्यवहार का उच्छेद
होता है।
तो क्या मानता है, गहपति ! जिस प्रकार
अरिय-विनय में ... सर्वथा सभी कुछ
व्यवहार-उच्छेद होता है,
क्या तू वैसा व्यवहार-समुच्छेद अपने में
देखता है?"
🙏" भन्ते ! कहां मैं और कहां अरिय विनय
में... व्यवहार-समुच्छेद!!
भन्ते ! पहले अन्-आजानीय अन्य-तैर्थिक
(=पंथाई) परिव्राजकों को, हम आजानीय
(=परिशुद्ध, शुद्धजाति के) समझते थे,
अनाजानीय होनेवालों को आजानीय का
भोजन कराते थे,
अन-आजानीय होनेवालों को आजानीय -
स्थान पर स्थापित करते थे।
आजानीय भिक्खुओं को अन-आजानीय
समझते थे,
आजानीय होनेवालों को अन्-आजानीय
भोजन कराते थे,
अजानीय होनेवालों को अन्-आजानीय
स्थान पर रखते थे।
भन्ते! अब हम अन्-आजानीय होते अन्य
तैर्थिक परिव्राजकों को अन्-आजानीय
जानेंगे...
अन्-आजानीय भोजन कराएंगे, ...
अन् आजानीय स्थान पर स्थापित करेंगे।"
"भन्ते! अब हम आजानीय होते भिक्खुओं
को आजानीय समझेंगे, ...
आजानीय भोजन कराएंगे, ...
आजानीय स्थान पर रखेंगे।
अहो! भन्ते!
भगवान् ने मुझे समणों में समण-प्रेम पैदा
कर दिया,
समणों (=साधुओं) में समण-प्रसाद
(=श्रमणों के प्रति प्रसन्नता),
...समण-गौरव... ।"
"आश्चर्य! हे गौतम! आश्चर्य! हे गौतम! जैसे औंधे को सीधा कर दे, ढँके को उखाड़ दे, भूले को रास्ता बतला दे, अंधकार में तेल का प्रदीप रख दे -- जिसमें कि आँख वाले रूप को देखें, ऐसे ही आप गौतम ने अनेक प्रकार (=पलियाय/पर्याय) से धम्म को प्रकाशित किया | यह हम आप गौतम को शरण जाते हैं, धम्म और भिक्खु-संघ की भी। आज से आप गौतम हमें जीवन-पर्यन्त, अंजलिबद्ध, शरणागत उपासक स्वीकार करें।"
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
सफलता एवं उन्नति का आधार संकल्प शक्ति है 🌻
🌻 सफलता एवं उन्नति का आधार "संकल्प शक्त्ति" है 🌻
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एक बार तथागत बुद्ध अपने शिष्यों के साथ किसी पर्वतीय स्थल पर ठहरे थे | शाम के समय वह अपने एक शिष्य के साथ भ्रमण के लिए निकले | दोनों प्रकृति के मोहक दृश्य का आनंद ले रहे थे | विशाल और मजबूत चट्टानों को देख शिष्य के भीतर उत्सुकता जागी | उसने पूछा...इन चट्टानों पर तो किसी का शासन नहीं होगा क्योंकि ये अटल, अविचल और कठोर हैं | शिष्य की बात सुनकर बुद्ध बोले नहीं इन शक्तिशाली चट्टानों पर भी किसी का शासन है | लोहे के प्रहार से इन चट्टानों के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं | इस पर शिष्य बोला तब तो लोहा सर्वशक्तिशाली हुआ ? बुद्ध मुस्कराए और बोले नहीं | अग्नि अपने ताप से लोहे का रूप परिवर्तित कर सकती है | उन्हें धैर्यपूर्वक सुन रहे शिष्य ने कहा मतलब अग्नि सबसे ज्यादा शक्तिवान है | नहीं बुद्ध ने फिर उसी भाव से उत्तर दिया जल अग्नि की उष्णता को शीतलता में बदलता देता है तथा अग्नि को शांत कर देता है | शिष्य कुछ सोचने लग गया | बुद्ध समझ गए कि उसकी जिज्ञासा अब भी पूरी तरह शांत नहीं हुई है | शिष्य ने फिर सवाल किया आखिर जल पर किसका शासन है ? बुद्ध ने उत्तर दिया वायु का | वायु का वेग जल की दिशा भी बदल देता है | शिष्य कुछ कहता उससे पहले ही बुद्ध ने कहा अब तुम कहोगे कि पवन सबसे शक्तिशाली हुआ | नहीं वायु सबसे शक्तिशाली नहीं है | सबसे शक्तिशाली है मनुष्य की संकल्पशक्ति क्योंकि इसी से पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि को नियंत्रित किया जा सकता है | अपनी संकल्पशक्ति से ही अपने भीतर व्याप्त कठोरता, ऊष्णता और शीतलता के आगमन को नियंत्रित किया जा सकता है, इसलिए संकल्पशक्ति ही सर्वशक्तिशाली है | जीवन में कुछ भी महत्वपूर्ण कार्य संकल्पशक्ति के बगैर असंभव है | इसलिए अपने भीतर संकल्पशक्ति का विकास करो | सफलता एवं उन्नति का आधार : हमारी संकल्प शक्ति है |
Tuesday, August 20, 2019
🍃कन्दरक-सुत्त🍃
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃51-कन्दरक-सुत्त (2.1.1)
👂ऐसा मैंने सुना
🚶एक समय भगवान् बड़े भारी भिक्खुसंघ के साथ चम्पा में गग्गरा पोखर (गग्गरा-पुष्करिणी) के तीर विहार करते थे।
🌷तब हाथीवान् का पुत्र पेस्स और कन्दरक परिव्राजक जहां भगवान् थे, वहां गए। जाकर... पेस्स भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया, और कन्दरक परिव्राजक भगवान् के साथ कुशल प्रश्न पूछ एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे कन्दरक परिव्राजक ने चुपचाप बैठे भिक्खुसंघ को देखकर भगवान् से यह कहा- 👄
🙏“आश्चर्य! भो गोतम! अद्भुत!! भो गोतम! आप गोतम ने कैसे अच्छी तरह भिक्खुसंघ को बनाया है। हे गोतम! अतीत-काल में भी जो अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध हुए, उन भगवाओं ने भी इतने ही मात्र अच्छी तरह भिक्खुसंघ को प्रतिपन्न किया (=बनाया) होगा; जैसा कि इस वक्त आप गोतम ने अच्छी तरह भिक्खुसंघ को प्रतिपन्न किया है। भो गोतम! भविष्य-काल में भी जो अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध होंगे, उन भगवाओं ने भी इतने ही मात्र अच्छी तरह भिक्खुसंघ को प्रतिपन्न करेंगें।"
☝“ऐसा ही है, कन्दरक! ऐसा ही है, कन्दकर! जो कोई कन्दरक! अतीत काल में अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध हुए। भविष्य-काल में अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध होंगे उन भगवाओं ने भी इतने ही मात्र अच्छी तरह भिक्खुसंघ को प्रतिपन्न किया (=बनाया) होगा, भविष्य-काल में भी जो अर्हत् सम्यक्-सम्बुद्ध होंगे, उन भगवाओं ने भी इतने ही मात्र अच्छी तरह भिक्खुसंघ को प्रतिपन्न करेंगें।"
☝" कन्दरक! इस भिक्खुसंघ में क्षीणास्रव, (ब्रह्मचर्य-) वाससमाप्त, कृत-कृत्य, भारमुक्त, सत्य-अर्थ-प्राप्त, भव-बंधन-मुक्त, सम्यग्ज्ञान-द्वारा-मुक्त अर्हत् भी हैं।
कन्दरक! इस भिक्खुसंघ में निरन्तर शील(-युक्त), निरन्तर (सु-)वृत्ति (-युक्त), सन्तोषी, सन्तोष-वृत्ति-युक्त सेख (शैक्ष्य=सीखने वाले) भी हैं, जो कि चारों सति-पट्ठान (स्मृति-प्रस्थानों) में स्थिर-चित्त हो विहरते हैं। किन चार (स्मृति-प्रस्थानों) में? -...[कृपया देखें सतिपट्ठान-सुत्त]... धर्मों में धर्मानुपश्यी।
🌷ऐसा कहने पर... पेस्स ने भगवान् से यह कहा👄-
🙏“आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! भगवान ने भन्ते! प्राणियों की विशुद्धि के लिए, शोक-पीड़ा हटाने के लिए, दुख-दौर्मनस्य मिटाने के लिए, न्याय (परमज्ञान) की प्राप्ति के लिए, निर्वाण के साक्षात्कार के लिए. इन चार सतिपट्ठान (स्मृति-प्रस्थानों) को कितनी अच्छी तरह बतलाया है। श्वेतवस्त्रधारी हम गृही भी समय-समय पर, इन चार सतिपट्ठानं में चित्त को सुप्रतिष्ठित कर विहरते हैं। भन्ते! हम
काया में ... काय-अनुपश्यी हो विहरते हैं...
वेदना में ... वेदना-अनुपश्यी हो विहरते है...
चित्त में ... चित्ता-अनुपश्यी हो विहरते है...
धमों में ... धर्मानुपश्यी हो विहरते है ....।"
🙏 " आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! इतनी मनुष्यों की गहनता (=दुरूह) (होने पर भी) इतने मनुष्यों के कसट (=मैल), इतनी मनुष्यों की शठता होने पर भी, भन्ते! भगवान प्राणियों के हिताहित को देखते हैं। भन्ते! मनुष्य गहन हैं; भन्ते! जो पशु हैं वे उत्तान (=खुले, सरल) हैं।"
🌷 " भन्ते! मैं हाथी के स्वभाव को जानता हूं, चम्पा में जितने समय में वह (हाथी) गमन-आगमन करेगा, (अपनी) सभी शठता, कुटिलता, वक्रता जिह्मता को प्रकट कर देगा। किंतु, भन्ते! हमारे दास-प्रेष्य या कर्मकर हैं, (वे) काया से दूसरा ही करते हैं, वचन से दूसरा कहते हैं और उनके चित्त में और ही होता है। आश्चर्य! भन्ते! अद्भुत!! भन्ते! मनुष्यों की इतनी गहनता जो पशु हैं, वे उत्तान हैं।"
☝“यह ऐसा ही है पेस्स! यह ऐसा ही है पेस्स! जो मनुष्य गहन हैं, पशु उत्तान हैं। पेस्स! लोक में ये चार (प्रकार) के पुद्गल (=पुरुष) होते हैं। कौन से चार?4⃣-
🌷पेस्स!
🔯 (1) यहां कोई पुद्गल आत्मंतप-अपने को संताप देने वाले कामों में लगा होता है;
🔯(2) कोई पुद्गल परंतप-पर को संताप देने वाले उद्योगों में लगा होता है;
🔯(3) कोई पुद्गल आत्मतप-परंतप होता है-अपने को सन्ताप देने वाले उद्योगों में भी लगा होता, पर को सन्ताप देने वाले उद्योगों में भी लगा होता है;
🔯(4)"कोई पुद्गल न आत्मतप-न-परंतप होता है-(वह) न अपने को सन्ताप देने वाले उद्योगों में लगा होता, न पर को सन्ताप देने वाले उद्योगों में लगा होता है। अन्-आत्मतप-अ-परन्तप हो, वह शान्त, सुखी, शीतल (-स्वभाव), सुख-अनुभवी, ब्रह्मभूत (=विशुद्ध)-आत्मा से विहरता है।
☝पेस्स! इन चार पुद्गलों में कौन सा तेरे चित्त को पसन्द आया है?”
🙏"भन्ते! जो यह आत्मतप पुद्गल है, वह मेरे चित्त को पसन्द नहीं है। जो यह परंतप पुद्गल है, वह भी पसन्द नहीं है। जो यह आत्मतप-परंतप पुद्गल है, वह भी पसन्द नहीं है। जो यह अन्-आत्मन्तप-अ-परन्तप पुद्गल है, वह मुझे पसन्द है।"
☝"पेस्स! क्यों ये तीन पुद्गल तेरे चित्त को पसन्द नहीं हैं?”
🙏🌷“भन्ते! जो आत्मन्तप पुद्गल है, सुखेच्छुक, दुख-प्रतिकूल हो अपने को आतापित परितापित करता है, इसलिए भन्ते! यह पुद्गल मेरे चित्त को पसन्द नहीं आता।
🌷जो वह भन्ते! परन्तप पुद्गल है, वह सुखच्छुक दुख-प्रतिकूल दूसरे को आतापित परितापित करता है। इसलिए भन्ते! यह पुद्गल मेरे चित्त को पसन्द नहीं आता। ।
🌷जो वह भन्ते! आत्मन्तप-परन्तप पुद्गल है। वह सुखेच्छुक, दुख-प्रतिकूल अपने को और दूसरे को
आतापित परितापित करता है। इसलिए भन्ते! यह पुद्गल मेरे चित्त को पसन्द नहीं आता।
🌷जो यह भन्ते! अन्-आत्मन्तप-अ-परन्तप पुद्गल ...ब्रह्मभूत-आत्मा से विहरता है; यह सुखेच्छु दुख-प्रतिकूल हो अपने और पर के चित्त को नहीं तपाता, न सन्ताप देता, इसलिए भन्ते! यह पुद्गल मेरे चित्त को पसन्द आता है। हन्त! भन्ते! अब हम जाते हैं; बहुकृत्य-बहुकरणीय हैं हम, भन्ते!"
🙌“जिसका पेस्स! तू समय समझता है, (वैसा कर)।”
🔱तब हाथीवान का पुत्र पेस्स भगवान के भाषण को अभिनन्दित 🙏अनुमोदित कर आसन से उठ, भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चला गया।
☝तब पेस्स के जाने के थोड़े ही समय बाद भगवान ने भिक्खुओं को संबोधित किया--
🌷"भिक्खुओ! पेस्स पण्डित है। महाप्रज्ञ है भिक्खुओ! पेस्स! यदि भिक्खुओ! पेस्स मुहूर्त भर और बैठता, जितने में कि मैं इन चारों पुद्गलों को विस्तार से विभाजित करता, (तो वह) बड़े अर्थ से युक्त हो जाता। परंतु, इतने से भी भिक्खुओ! पेस्स बड़े अर्थ से युक्त है।"
🙏“इसी का भगवान् ! समय है, इसी का सुगत! काल है, कि भगवान् इन चारों पुद्गलाे को विस्तार से विभाजित करें। भगवान् से सुनकर भिक्खु धारण करेंगे।"
☝ “तो भिक्खुओ! सुनो, अच्छी तरह मन में (धारण) करो, कहता हूं।"
🙏“अच्छा, भन्ते!” (कह) उन भिक्खुओं ने भगवान को उत्तर दिया।
☝भगवान ने यह कहा-"भिक्खुओ!
🌷 कौन सा पुद्गल आत्मन्तप...अपने को सन्ताप देने वाले कामों में लग्न है?-भिक्खुओ! यहां कोई पुद्गल अचेलक (=नंगा) या मुक्ताचार(सरभंग), .... ऐसे अनेक प्रकार से काया के आतापन सन्तापन के व्यापार में लग्न हो विहरता है। भिक्खुओ! यह पुद्गल आत्मन्तप कहा जाता है।"
🌷“भिक्खुओ! कौन सा पुद्गल परन्तप... है?-भिक्खुओ! यहां कोई पुद्गल और भ्रिक (=भेड़ मारने वाला), शूकरिक, शाकुन्तिक, मार्गविक (=मृग मारनेवाला), रुद्र, मत्स्यघातक, चोर, चोरघातक, वन्धनागारिक (=जेलर) और जो दूसरे भी क्रूर व्यवसाय हैं (उनका करने वाला होता है)। भिक्खुओ! यह पुद्गल परन्तप कहा जाता है।"
🌷"भिक्खुओ! कौन सा पुद्गल आत्मतप-परन्तप है?- भिक्खुओं! यहां कोई पुरुष मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय राजा होता है या महाशाल (=महाधनी) ब्राह्मण होता है। वह नगर के पूर्व द्वार पर नये संथागार ( यज्ञशाला) को बनवा दाढ़ी-मूंछ मुंडा वर-अजिन धारणकर घी तेल से शरीर को चुपड़, मृग के सींग से पीठ को खुजलाते हुए (अपनी) महिषी (=पटरानी) और ब्राह्मण पुरोहित के साथ संथागार में प्रवेश करता है। वह वहां गोबर से लिपी नंगी भूमि पर शय्या करता है। समान रूप के बछड़े वाली एक (ही) गाय के एक स्तन के दूध से राजा गुजारा करता है; जो दूसरे स्तन में दूध है, उससे महिषी गुजारा करती है; जो तीसरे स्तन में दूध है, उससे ब्राह्मण पुरोहित..., जो चौथे स्तन में दूध है, उससे अग्नि में हवन करता है; शेष बचे से बछड़ा...। वह (यजमान) ऐसा कहता है -
यज्ञ के लिए इतने बैल मारे जाएं...,
इतने बछड़े...,
इतनी बछियां...,
...इतनी बकरियां...,
...इतनी भेड़ें,
...इतने वृक्ष काटे जाएं,
वेदी (=वर्हिष) के लिए इतना कुश काटा जाए। जो इसके दास-प्रेष्य या कर्मकर होते हैं, वे भी दंड से तर्जित, भयभीत अश्रुमुख होते कामों को करते हैं।
भिक्खुओं! यह कहा जाता है आत्मन्तप-परन्तप पुद्गल।"
🌷“भिक्खुओं ! कौन सा पुद्गल
अन्-आत्मन्तप-अ-परन्तप है? -
भिक्खुओं ! यहां (लोक में) तथागत ...उत्पन्न होते हैं... चतुर्थध्यान को प्राप्त हो विहरता है।"
“सो वह इस प्रकार चित्त के 'एकाग्र, परिशुद्ध... अब यहां करने के लिए कुछ शेष नहीं है'-यह जान लेता है।
☝ भिक्खुओ! यह कहा जाता है अन्-आत्मंतप-अ-परंतप पुद्गल।"
🙌भगवा ने यह कहा👄, सन्तुष्ट हो उन भिक्खुओं ने भगवा के भाषण का अभिनन्दन🙏 किया।
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
Wednesday, August 14, 2019
🌹🍁4-भयभेरव-सुत्त🍁🌹
🌹🍁4-भयभेरव-सुत्त🍁🌹
🌹🌿मज्झिम-निकाय (1,1,4)🌿🌹
🍀ऐसा मैंने सुना--
🌴एक समय भगवान सावत्थि (श्रावस्ती) में अनाथपिण्डिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।
🌷तब 'जानुस्सोणि' ब्राह्मण, जहां भगवान थे, वहां गया। जाकर भगवान से कुशल-क्षेम पूछकर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर 'जानुस्सोणि' ब्राह्मण ने भगवान से यह कहा --
🌷“हे गोतम! जो ये कुल-पुत्त आप गोतम को (नेता) मान, श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रव्रजित (=संन्यासी) हुए हैं; आप गोतम उनके अग्रगामी हैं, बहुत उपकारी हैं, आप उनके उपदेष्टा हैं। वह जनसमुदाय आप गोतम के देखे (मार्ग) का अनुगमन करता है।”
🌴"ऐसा ही है, ब्राह्मण! ऐसा ही है, ब्राह्मण! जो कुल-पुत्त मुझे (नेता) मानकर, श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रव्रजित हुए हैं, मैं उनका अग्रगामी हूं, मैं उनका बहुत उपकारक हूं, मैं उनका उपदेष्टा हूं और वह जनसमुदाय मेरा अनुगमन करता है।”
🍀 "हे गोतम! कठिन हैं अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियां (=शयनासन); दुष्कर है एकान्त रमण (=प्रविवेक); अकेले विहरना कठिन है; समाधि न प्राप्त होने वाले भिक्खु के मन को वन मानो हर लेते हैं।”
🍀 "ऐसा ही है ब्राह्मण! ऐसा ही है ब्राह्मण! कठिन हैं, अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियां,....... भिक्खु के मन को वन मानो हर लेते हैं। ब्राह्मण! सम्बोधि (=परमज्ञान) प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के वक्त, जब मैं बोधिसत्त (ही था), तो मुझे भी ऐसा ही होता था-
‘कठिन' हैं अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियां।'
🍀"तब, ब्राह्मण! मेरे (मन में) ऐसा हुआ-जो कोई अशुद्ध कायिक कर्म से युक्त समण (=संन्यासी) या ब्राह्मण अरण्य में वनखंड, और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं;"
🌴 "अशुद्ध कायिक कर्म के दोष के कारण, वे समण या ब्राह्मण बुरे भय-भैरव (=भय और भीषणता) का आह्वान करते हैं।"
🌴 "किंतु मैं अशुद्ध कायिक कर्म से युक्त हो अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन नहीं कर रहा हूं। मेरे कायिक कर्म (=कर्मान्त) परिशुद्ध हैं, जो परिशुद्ध कायिक कर्म वाले अरिय , अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं, मैं उनमें से एक हूं। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध कायिक कर्म के भावों को देखकर, मुझ में अरण्य में विहार करने का और भी अधिक (उत्साह हुआ)।"
🍀 "तब, ब्राह्मण! मेरे (मन में) ऐसा हुआ- 'जो कोई अशुद्ध वाचिक कर्म वाले समण/ब्राह्मण अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं।"
🌴 "अशुद्ध वाचिक कर्म के दोष के कारण, वे समण या ब्राह्मण बुरे भय-भैरव (=भय और भीषणता) का आह्वान करते हैं।"
🌴 "किंतु मैं अशुद्ध वाचिक कर्म से युक्त हो अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन नहीं कर रहा हूं। मेरे वाचिक कर्म (=कर्मान्त) परिशुद्ध हैं, जो परिशुद्ध वाचिक कर्म वाले अरिय , अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं, मैं उनमें से एक हूं। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध वाचिक कर्म के भावों को देखकर, मुझ में अरण्य में विहार करने का और भी अधिक (उत्साह हुआ)।"
🍀 "जो कोई अशुद्ध मानसिक कर्म वाले समण या ब्राह्मण अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटिया का सेवन करते हैं |
🌴 "अशुद्ध मानसिक कर्म के दोष के कारण, वे समण या ब्राह्मण बुरे भय-भैरव (=भय और भीषणता) का आह्वान करते हैं।"
🌴 "किंतु मैं अशुद्ध मानसिक कर्म से युक्त हो अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन नहीं कर रहा हूं। मेरे मानसिक कर्म (=कर्मान्त) परिशुद्ध हैं, जो परिशुद्ध मानसिक कर्म वाले अरिय , अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं, मैं उनमें से एक हूं। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध मानसिक कर्म के भावों को देखकर, मुझ में अरण्य में विहार करने का और भी अधिक (उत्साह हुआ)।"
🍀 "अशुद्ध आजीविका वाले समण या ब्राह्मण अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं,"
🌴"वे समण या ब्राह्मण अशुद्ध जीविका के कारण भय-भैरव का आह्वान करते हैं",
🌴"(किंतु) मैं अशुद्ध आजीविका से युक्त हो अरण्य में वन-खंड व कुटिया का सेवन नहीं कर रहा हूं। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध आजीविका (=रोजी) की विद्यमानता को देखकर, मुझे अरण्य में विहार करने का और भी अधिक उत्साह हुआ।"
🍀 "तब, ब्राह्मण! मेरे (मन में) ऐसा हुआ-जो समण या ब्राह्मण लोभी, काम (=वासनाओं) में तीव्र राग रखने वाले (हो) अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटिया का सेवन करते हैं वे लोभी और कामवासनाओं में तीव्र रागी होने के कारण ही बुरे भय-भैरव का आह्वान करते हैं,"
🌴"किंतु मैं लोभी और कामों में तीव्र राग रखने वाला न हो अरण्य में वनखंड और सूनी कुटियों का सेवन करता हूं। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध अन्अभिञ्ञा (निर्लोभिता) की विद्यमानता को देखकर, मुझे अरण्य में विहार करने का और भी अधिक उत्साह हुआ।"
🍀 “तब, ब्राह्मण! मेरे मन में ऐसा हुआ - जो समर या ब्राह्मण हिंसायुक्त चित्त वाले और मन में दुष्ट संकल्प रखने वाले हो अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटिया का सेवन करते हैं;"
🌴 "हिंसायुक्त चित्त और मन में दुष्ट संकल्प रखने के दोष के कारण, वे समण या ब्राह्मण बुरे भय-भैरव (=भय और भीषणता) का आह्वान करते हैं।"
🌴 "किंतु मैं हिंसायुक्त चित्त और मन में दुष्ट संकल्प रखने के दोस से युक्त हो अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन नहीं कर रहा हूं। मेरे सम्मा-संकप्पो (=सम्यक संकल्प) परिशुद्ध हैं, जो परिशुद्ध सम्मा-संकप्पो वाले अरिय , अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करते हैं, मैं उनमें से एक हूं। ब्राह्मण! अपने भीतर इस परिशुद्ध सम्मा-संकप्पो के भावों को देखकर, मुझ में अरण्य में विहार करने का और भी अधिक (उत्साह हुआ)।"
🍀 "तब, ब्राह्मण!
….थीन (=स्त्यान=शारीरिक आलस्य)-मिद्ध (=मृद्ध=मानसिक आलस्य) से प्रेरित हो….।"
🍀 "तब, ब्राह्मण!
….उद्धत और अशान्त चित्त वाले हो….।
🍀"तब ब्राह्मण!
…. लोभी कांक्षा वाले और संशयालु (=विचिकित्सी) हो…. ।
🍀तब ब्राह्मण!
…..अपना उत्कर्ष (चाहने वाले तथा दूसरे को निन्दने वाले हो….।
🍀तब ब्राह्मण!
….जड़ और भीरु प्रकृति वाले हो….।
🍀तब ब्राह्मण!
….लाभ, सत्कार और प्रशंसा की चाहना करते….।
🍀तब ब्राह्मण!
….आलसी उद्योगहीन हो….।
🍀तब ब्राह्मण!
….नष्टस्मृति और सूझ (=सम्पजान)से वंचित हो….।
🍀तब ब्राह्मण!
.....व्यग्र (=चित्त) और विभ्रान्त-चित्त हो....।"
🍀 “ब्राह्मण! तब मेरे (मन में) ऐसा हुआ-जो वह सम्मानित (=अभिज्ञात=अभिलक्षित) रातें हैं, (जैसे कि)
पक्ष की चतुर्दशी (=अमावस्या),
पूर्णमासी (=पंचदशी) और
अष्टमी की रातें,
वैसी रातों में, जो वह भयप्रद रोमांचकारक, आराम-चैत्य',
वन-चैत्य,
वृक्ष-चैत्य हैं,
वैसे शयनासनों (=वासस्थानों) में विहार करू, शायद तब (कुछ) भय-भैरव देखुँ।"
🍀 "तब ब्राह्मण! दूसरे समय.... सम्मानित ....रातों में वैसे शयनासनों में विहार करने लगा। तब ब्राह्मण! वैसे विहरते (समय) मेरे पास (जब कोई) मृग आता था, या मोर काठ गिरा देता था, या हवा पल्लवों को फरफराती; तो मेरे (मन में) होता-जरूर, यह यही भय-भैरव आ रहा है। तब, ब्राह्मण! मेरे (मन में) यह होता-
"क्यों मैं दूसरे में भय की आकांक्षा से विहर रहा हूं? क्यों न मैं जिस-जिस अवस्था में रहते, जैसे मेरे पास वह भय-भैरव आता है, वैसी-वैसी अवस्था में रहते उस भय-भैरव को हटाऊ। जब ब्राह्मण! टहलते हुए मेरे पास वह भय-भैरव आता, तब मैं ब्राह्मण! न खड़ा हो जाता, न बैठता, न लेटता; टहलते हुए ही उस भय-भैरव को हटाता। जब ....खड़े हुए रहते मेरे पास वह भय-भैरव आता....,बैठे रहते....,लेटे रहते....।"
🍀 “ब्राह्मण! कोई-कोई ऐसे समण या ब्राह्मण हैं, (जो) रात होने पर भी (उसे) दिन अनुभव करते हैं, दिन होने पर भी (उसे) रात अनुभव करते हैं। इसे मैं उन समण या ब्राह्मणो के संमोह (Hypnotization) का विहार कहता हूं।"
"मैं तो ब्राह्मण! रात होने पर (उसे) रात ही अनुभव करता हूं, और
दिन होने पर दिन....।
जिस के बारे में ब्राह्मण! यथार्थ में कहते वक्त कहना चाहिए-
लोकं बहुजन-हिताय
(लोक में बहुत जनों के हितार्थ),
बहुजन-सुखाय
(बहुत जनों के सुखार्थ),
लोकानुकंपाय
(लोकानुकम्पार्थ),
(लोकं बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय, लोकानुकंपाय)
देव-मनुष्यों के अर्थ-हित-सुख के लिए सम्मोह-रहित पुरुष उत्पन्न हुआ है।
सो वह यथार्थ में कहते वक्त मेरे लिए ही कहना होगा....।"
🍀 "ब्राह्मण! मैंने न दबने वाला विरिय (=उद्योग=effort) आरम्भ किया था, (उस समय) मेरी अमुषित स्मृति जागृत थी, (मेरा) शान्त काय अव्यग्र (=असारद्ध) था, समाधिनिष्ठ-चित्त एकाग्र था।"
🎯 "(1)पठम-झानं: सो मैं ब्राह्मण! कामों से रहित बुरी बातों (=अकुशल धर्मों) से रहित, विवेक से उत्पन्न स-वितक्क (वितर्क) और स-विचार, पीति (=प्रीति) और सुख वाले प्रथम ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा।"
🎯 "(2)दितिय-झानं: (फिर) वितर्क और विचार के शान्त होने पर भीतरी शान्त तथा चित्त की एकाग्रता वाले वितक्क-रहित विचार-रहित पीति-सुख वाले द्वितीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा।"
🎯 "(3)ततिय-झानं: (फिर) पीति से विरक्त हो, उपेक्खक बन सति-संप्रजन्य (=होश और अनुभव) से युक्त हो शरीर से सुख अनुभव करते, जिसे कि अरिय उपेक्खक, सतिमान् सुख-विहारी कहते हैं, उस तृतीय ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा।"
🎯 "(4) चतुथ-झानं: (फिर) सुख और दुख के परित्याग से सौमनस्स (=चित्तोल्लास) और दौमनस्स (=चित्तसंताप) के पहले ही अंत हो जाने से, सुख-दुख-रहित-जिसमें उपेक्खा से सति की शुद्धि हो जाती है, उस चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहरने लगा।"
🌹तीन-विद्याऐं🌹
🍀 (1) “सो इस प्रकार चित्त के एकाग्र, परिशुद्ध=पर्यवदात, अंगण-रहित=उपक्लेश (=मल)-रहित, मृदुभूत=कार्योपयोगी, स्थिर = अचलता प्राप्त (और) समाधि-युक्त हो जाने पर पूर्व जन्मों की स्मृति के ज्ञान (=पूर्वनिवासानुस्सति) के लिए मैंने चित्त को झुकाया। फिर मैं अनेक पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा, जैसे कि
एक जन्म को भी, दो जन्म को भी, तीन..., चार..., पाँच..., दस..., बीस..., तीस..., चालीस..., पचास..., सौ..., हजार..., सौ हजार...,
अनेक संवर्त (=प्रलय) कल्पों को भी,
अनेक विवर्त (=सृष्टि)-कल्पों को भी,
अनेक संवर्त-विवर्त-कल्पों को (भी) स्मरण करने लगा-
(तब मैं) अमुक स्थान पर इस नाम... गोत्र... वर्ण... आहार वाला अमुक प्रकार के सुख-दुख को अनुभव करता इतनी आयु तक रहा।
वहां से च्युत हो अमुक स्थान में उत्पन्न हुआ। वहां भी इस नाम...गोत्र।
फिर वहां से च्युत हो (अब) यहां उत्पन्न हुआ। इस प्रकार आकार और उद्देश्य के सहित अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को स्मरण करने लगा।"
"ब्राह्मण! इस प्रकार अप्पमादो (प्रमादरहित), तत्पर (तथा) आत्मसंयमयुक्त विहरते हुए, रात के पहले याम में मुझे यह :-
"पहली विद्या प्राप्त हुई, अविद्या नष्ट हुई, विद्या उत्पन्न हुई, तम नष्ट हुआ,आलोक उत्पन्न हुआ।"
🍀 (2) “सो इस प्रकार चित्त के समाहित (=एकाग्र), परिशुद्ध=पर्यवदात... होने पर"
"प्राणियों की च्युति (=मृत्यु) और उत्पत्ति के ज्ञान के लिए चित्त को झुकाया।
सो मैं अ-मानुष, विशुद्ध, दिव्य चक्षु से अच्छे-बुरे, सुवर्ण-दुर्वर्ण, सुगति वाले, दुर्गति वाले प्राणियों को मरते-उत्पन्न होते देखने लगा, कर्मानुसार गति को प्राप्त होते प्राणियों को पहचानने लगा-
"यह आप प्राणधारी (लोग) कायिक दुराचार से युक्त, वाचिक दुराचार से युक्त मानसिक दुराचार से युक्त, अरियं के निन्दक मिथ्या मत रखने वाले (=मिथ्या-दृष्टि), मिच्छा-दिट्ठी (मिथ्या-दृष्टि) (से प्रेरित) कर्म को करने वाले थे।
वह काया छोड़ने पर मरने के बाद अपाय (=दुर्गति), पतन, नरक (=निरय) में प्राप्त हुए हैं।
यह आप प्राणधारी (लोग) कायिक, वाचिक, मानसिक सदाचार (=सुचरित) से युक्त, अरियं के अ-निन्दक, सम्मा-दिट्ठी (सम्यक् दृष्टि) वाले (=सच्चे सिद्धांत वाले), सम्मा-दिट्ठी-सम्बन्धी कम्मं (कर्म) को करने वाले (ये),
यह काया छोड़ने पर मरने के बाद सुगति, स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए हैं।"
"...ब्राह्मण! ...रात के मध्यम याम में यह मुझे दूसरी विद्या प्राप्त हुई...।"
🍀 (3) "...आसवो (=आस्रवों=मल) के क्षय के ज्ञान के लिए चित्त को झुकाया।
फिर मैंने-
💐 '‘*यह दुख है*' इसे यथार्थ से जान लिया,
💐 “*यह दुख-समुदय (=दुख की उत्पत्ति) है*, 💐 “*यह दुख-निरोध है*,
💐 "*यह दुख-निरोध-गामिनी-पटिपद् है*'
इसे यथार्थ से जान लिया।"
💐 ‘*यह आसव (=आस्रव=fetter) है* ",
💐 '*यह आसव-समुदय(आसव-समुदय) है* ,
💐 '*यह आसव-निरोध (आस्रव-निरोध) है*,
💐 '*यह आसव-निरोध-गामिनी-पटिपद है* "।
सो इस प्रकार देखते, इस प्रकार जानते मेरा चित्त
*काम-आसव-मुक्त (=काम-वासना रूपी-आस्रवों*) से मुक्त हो गया,
*भव-आसव (=जन्म लेने के लोभ रूपी-आस्रवों*) से मुक्त हो गया,
*अविज्जा-आसवों (अ-विद्या-आस्रवों*) से मुक्त हो गया।
छूट (=विमुक्त हो) जाने पर ‘छूट गया' ऐसा ज्ञान हुआ।"
“जन्म खत्म हो गया,
ब्रह्मचर्य पूरा हो गया,
करना था सो कर लिया,
अब यहां करने के लिए कुछ (शेष) नहीं है-इसे जान लिया।"
"ब्राह्मण! रात के अन्तिम याम में यह मुझे तीसरी विद्या प्राप्त हुई।"
🍀 “ब्राह्मण! शायद तेरे (मन में) ऐसा हो–“आज भी समण गोतम अ-वीतराग, अ-वीत द्वेष, अ-वीतमोह है, इसीलिए अरण्य में वन-खंड तथा सूनी कुटियों का सेवन करता है। ब्राह्मण! इसे इस प्रकार नहीं देखना चाहिए। ब्राह्मण दो बातों के लिए मैं अरण्य में वन-खंड और सूनी कुटियों का सेवन करता हूं-
(1) इसी शरीर में अपने सुख विहार के ख्याल से; और
(2) आने वाली जनता पर अनुकम्पा के लिए (जिसमें) मेरा अनुगमन कर वह भी सुफल-भागी हो।”
🌷 “आप गोतम द्वारा आने वाली जनता अनुकम्पित-सी है, जो कि आप गोतम सम्मा सम्बुद्ध ने अनुकम्पा की।"
🌷 "आश्चर्य! हे गोतम! आश्चर्य! हे गोतम! जैसे औंधे को सीधा कर दे, ढंके को उघाड़ दे, भूले को रास्ता बतला दे, अन्धकार में तेल का प्रदीप रख दे-जिसमें कि आंख वाले रूप को देखें, ऐसे ही आप गोतम ने अनेक धम्म-पलियाय (प्रकार=पर्याय) से धम्म को प्रकाशित किया। यह मैं आप गोतम की शरण जाता हूं, धम्म
और भिक्खु संघ की भी।
आप गोतम आज से जीवन-पर्यन्त मुझे अंजलिबद्ध शरणागत उपासक स्वीकार करें ।”
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Tuesday, August 13, 2019
🌹🌹निरर्थक चर्चा अधर्म हैं 🌹🌹
🌻धम्म प्रभात🌻
👉निरर्थक चर्चा अधर्म हैं 👈
प्राचीनकाल से आत्मा और विश्व का आरंभ की निरर्थक चर्चा चली आ रही हैं ।
ऐसी उद्देश्यहीन चर्चा मानव समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हैं, निरर्थक है।
तथागत बुद्ध के अनुसार भूतकाल में आचार्य आत्मा के बारे में या स्वयं के बारे में कुछ प्रश्न उठाते थे ।
वे पूछते थे _
1) क्या मैं पहले था ?
2) क्या मैं पहले नहीं था ?
3) उस समय मैं क्या था ?
4) मैं क्या होकर क्या हुआ ? 5) क्या मैं भविष्य में होऊंगा ? 6) क्या मैं भविष्य में नहीं होऊंगा ?
7) तब मैं क्या होऊंगा ?
8) तब मैं कैसे होऊंगा ?
9) मैं क्या होकर क्या होऊंगा ?
अथवा वह अपने वर्तमान के विषय में संदेहशील होते थे -
1) क्या मैं हूँ ?
2) क्या मैं नही हूँ ?
3) मैं हूँ क्या ?
4) मैं कैसे हूँ ?
5) यह प्राणी कहां से आया हैं ? 6) यह किधर जायेगा ?
दूसरों ने विश्व के आरंभ के विषय में प्रश्न पूछे।
विश्व को किसने पैदा किया ? क्या संसार अनंत हैं ?
जो शरीर हैं, वही जीव हैं ? शरीर अन्य हैं, जीव अन्य हैं ?
ऐसे प्रश्न और ऐसी चर्चा निरर्थक हैं । इनसे प्राणीयों का कोई कल्याण होने वाला नहीं हैं ।
आज के वैज्ञानिक युग में भी अधर्मी लोग उन निरर्थक प्रश्नो में भोली-भाली जनता को उलझाए रखते है और उनका शोषण करते है।
मनुष्य के कल्याण के लिए,सुख व शान्ति के लिए आवश्यक है सदाचार का जीवन।
अधर्मी और पाखंडी धर्म के ठेकेदार समाज को काल्पनिक आत्मा और परमात्मा को ढूंढने के लिए ललचाते है। जो नहीं है वह भला कहां से मिले? इसलिए अधर्मी ठेकेदार बार बार काल्पनिक कहानी बनाकर, बदलकर लोगों को बेवकूफ बनाते है। इसलिए सावधान सावधान होना ज़रूरी है।
मनुष्य के सुख के लिए शील, समाधि और प्रज्ञा ही उत्तम मार्ग है।
साभार : Dr Kaushal Kumar Pattak
साभार : Dr Kaushal Kumar Pattak
Wednesday, August 7, 2019
Tuesday, August 6, 2019
🌻🌻सारिपुत्तसुत🌻🌻
🌹उपतिसपसिने🌹
🌹सारिपुत्तसुत्त🌹
🌹 सुत्तनिपात (4,16)🌹
🙏 सारिपुत्र-
🙏 "तुषित लोक से मनुष्य लोक में आए ऐसे मृदुभाषी शास्ता को मैंने आज से पहले नहीं देखा, न तो किसी से सुना ही था ।।1।।
🙏 देवताओं सहित लोक के लिए जैसे चक्षुष्मान् दिखाई देते हैं, सारे अन्धकार को दूर कर अकेले ही प्रव्रज्या सुख प्राप्त हो विचरण करते हैं ।।2।।
🙏 मनुष्यों के बीच आए, अनासक्त , स्थिर , निष्कपट बुद्ध से बहुत से बद्ध प्राणियों की और से प्रश्न करने आया हुँ ।।3।।
🙏 वृक्षमूलों, श्मशानों , पर्वतों तथा गुफाओं में एकान्त-चित्त का अभ्यास करने वाले अनासक्त भिक्खु को विविध स्थानों में कितने भयजनक शब्द होते हैं ? ,
जिनसे कि एकान्त स्थान में रहने वाला भिक्खु कम्पित न हो ।।4-5।।
🙏 निर्वाण को ओर जाने वाली दिशा में कितनी बाधायें हैं ? ,
जिनको कि भिक्खु एकान्त शयनासन में रहकर दूर करें।।6।।
🙏 संयमी भिक्खु के वचन कैसे हों ?
उसके गोचर (=विचरण भूमि) कौन से हैं?
और शील-व्रत कौन-से हैं? ।।7।।
🙏 एकान्तसेवी, ज्ञानी और सतिमान (स्मृतिमान्) भिक्खु किस शिक्षा को ग्रहण कर सोनार के चाँदी साफ करने के समान अपने मलों को दूर करें ?" ।।8।।
🌳भगवान्-
🌷 "विरक्त-चित्त, एकान्त स्थान-सेवी, धर्मानुसार संबोधि की इच्छा करने वाले के लिए जो अनुकूल है,
उसके विषय में अनुभव के अनुसार तुम्हे बताता हूँ ।।9।।
🌷 धीर, सतिमान, संयत आचरण वाला भिक्खु पाँच भयों से भयभीत न हो,
डँसने से , सर्पों से, मुनष्यों के स्पर्श से और पशुओं से ।।10।।
🌷 जो दूसरे धर्मावलम्बी है उनके बहुत से भयानक वेशों को देखकर न डरे।
कुशल गवेषक दूसरी बाधाओं का भी सामना करे ।।11।।
🌷 रोग-पीड़ा , भूख-वेदना , शील तथा अधिक गर्मी को सहे।
वह अनेक प्रकार से पीड़ित हो, बेघर हो वीर्य तथा पराक्रम को दृढ़ करें ।।12।।
🌷 चोरी न करे, असत्य न बोले,
दुर्बलों तथा सबलों के प्रति मैत्री करे।
यदि मन को व्याकुल जाने तो उसे मार का पक्षपाती जान दूर करे ।।13-14।।
🌷 अक्रोध पूर्वक कल्याणरत हो उन बाधाओं को दूर करे।
एकान्त स्थान में अरति पर विजय पा ले,
चार बिलाप की बातों पर विजय पा ले ।।15।।
🌷 क्या खाँऊ? कहाँ जाऊँ? कल दुःख से सोया था, आज कहाँ सोऊँ? – विलाप करने वाले इन वितर्कों को बेघर हो विहरने वाला सेख (शैक्ष्य) दूर करें ।।16।।
🌷 समय पर अन्न तथा वस्त्र पाकर वह वहाँ अपने संतोष की मात्रा को जान ले।
वह उनके विषय में संयत हो, संयम से गाँव में विचरे।
रूष्ट होने पर भी कठोर बात न करें।।17।।
🌷 नीचे की हुई आँखे हों, घुमक्कड़ न हो, ध्यान में लीन और सदा जागरुक हो,
उपेक्षक और एकाग्रचित्त हो,
काम-भोग संबंधी वितर्कों और चंचलता को त्याग दे ।।18।।
🌷 आचार्य आदि के वचनों द्वारा दोष दिखाये जाने पर स्मृतिमान हो उन्हे स्वीकार करे, गुरुभाईयों के प्रति देषभाव को त्याग दे, कल्याणकारी अनुकूल बात कहे ,
लोगों में विवाद उठाने की बात न सोचे।।19।।
🌷 संसार में जो पाँच रज हैं, उनसे दूर रहने का सतिमान (स्मृतिमान्) अभ्यास करे।
रूप, शब्द , रस, गन्ध और स्पर्श के राग पर विजय पा ले ।।20।।
🌷 इन बातों में राग त्यागकर सतिमान् और विमुक्त चित्त भिक्खु समय पर भली प्रकार धम्म का अनुशीलन कर, एकाग्रचित्त हो अन्घकार कर नाश करे ।।21।।
सारिपुत्तसुत्त समाप्त।
अट्ठकवग्ग समाप्त।
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Monday, August 5, 2019
🍀 गृहस्थ धर्म🍀🍃धम्मिक सुत्त 🍃
🌻धम्म प्रभात🌻
🍀 गृहस्थ धर्म🍀
एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार करते थे ।
तब धार्मिक उपासक 500 उपासकों के साथ जहां भगवान थे वहां गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुए धार्मिक उपासक ने भगवान को कहा -
हे महाप्रज्ञावान गौतम ! मैं आपसे पूछता हूँ कि कैसा करने वाला श्रावक अच्छा होता हैं ? घर से बेघर होनेवाला अथवा घर में रहनेवाला उपासक ?
हे भगवान ! आप के द्वारा उपदिष्ट जो यह धम्म हैं, वह उत्तम और सुखद हैं ।
" अयं हि धम्मो निपुणो सुखो च ।
" यो'यं तया भगवा सुप्पवुत्तो ।"
हम सब उसी को सुनने के लिए इच्छुक हैं ।
"सब्बेपिमे भिक्खवो संनिसिन्ना ,उपासका चापि तथेव सोतुं ।"
यहां सभी भिक्षु और उपासक सुनने के लिए बैठे हैं ।
उस प्रार्थना के उत्तर में तथागत बुद्ध ने भिक्षुओं और गृहस्थों के धर्म को बताया ।
गृहस्थ धर्म :
(पाणातिपाता वेरमणी)
_____________________
1) संसार में जो स्थावर और जंगम प्राणी हैं, न उसके प्राण की हत्या करें, न करवायें, और न तो उन्हें मारने की आज्ञा दें, सभी प्राणियों के प्रति दंड त्यागी हो ।
(अदिन्नादाना वेरमणी)
_____________________
2) दूसरों की किसी चीज को न चुराये, न चुराने वाले को अनुमति दें । सब प्रकार की चोरी का त्याग कर दें ।
(कामेसु मिच्छाचारा वेरमणी)
_____________________
3) विज्ञ पुरूष जलते हुए गड्ढे की भाँति अब्रह्मचर्य को छोड दें, ब्रह्मचर्य का पालन न कर सकते हुए भी दूसरे की स्त्री का सेवन न करें ।
(मुसावादा वेरमणी)
____________________
4) सभा या परिषद में जाकर एक दूसरे के लिए झूठ न बोले, न तो स्वयं झूठ बोले और न दूसरे को झूठ बोलने की अनुमति दें, सब प्रकार के असत्य भाषण को त्याग दें ।
(सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणी)
____________________
5) गृहस्थ कभी नशापता न करें।
शास्ता ने कहा - जो गृहस्थ इस धर्म को पालन करता है, वह उपासक अच्छा होता है।
नमो बुद्धाय🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Ref: धम्मिक - सुत्त
Sunday, August 4, 2019
ब्रह्मजाल-सुत्त
🌷ब्रह्मजाल-सुत्त🌷
१-बुद्ध में साधारण बातें--आरंभिक शील, मध्यम शील, महाशील।
२-बुद्ध में असाधारण बातें बासठ दार्शनिक मत-(१) आदि के सम्बन्ध की 18 धारणायें; (२) अन्त के सम्बन्ध की 44 धारणायें ।
ऐसा मैंने सुना--एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओं के बडे संघ के साथ राजगृह और नालन्दाके बीच लम्बे रास्ते पर जा रहे थे ।
सुप्रिय परिव्राजक भी अपने शिष्य ब्रह्मदत माणवक के साथ जा रहा था। उस समय सुप्रिय परिव्राजक अनेक प्रकार से बुद्ध, धर्म और संघ की निन्दा कर रहा था। किन्तु सुप्रिय का शिष्य ब्रह्मदत्त माणवक अनेक प्रकार से बुद्ध, धर्म और संघ की प्रशंसा कर रहा था। इस प्रकार वे आचार्य और शिष्य दोनों परस्पर अत्यन्त विरुद्ध पक्ष का प्रतिपादन करते भगवान् और भिक्षु-संघ के पीछे-पीछे जा रहे थे।
तब भगवान् भिक्षु-संघ के साथ रात-भर के लिए अम्बलठ्ठिका (नामक बाग) के राजकीय भवन में टिक गये।
सुप्रिय भी अपने शिष्य ब्रह्मदत्त के साथ उसी भवन में टिक गया। वहाँ भी सुप्रिय अनेक प्रकार ले बुद्ध, धर्म और संघ की निन्दा कर रहा था और ब्रह्मदत्त० प्रशंसा। इस प्रकार वे आचार्य और शिष्य दोनों परस्पर विरोधी पक्ष का प्रतिपादन कर रहे थे।
रात ढल जानेके बाद पौ फटने के समय उठकर बैठक में इकठ्ठ हो बैठे बहुत से भिक्षुओं में ऐसी बात चली-“आवुस ! यह बडी आश्चर्य और अद्भुत है कि सर्वज्ञ, सर्वद्रप्टा, अर्हत् और सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् (सभी) जीवोंके (चित के) नाना अभिप्राय को ठीक-ठीक जान लेते हैं। यही सुप्रिय अनेक प्रकार से बुद्ध, धर्म और संघ की निन्दा कर रहा है, और उसका शिष्य ब्रह्मदत्त प्रशंसा ।
तब भगवान् उन भिक्षुओं के वार्तालाप को जान बैठक में गये, और बिछे हुए आसन पर बैठ गये।
बैठकर भगवान्ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया--"भिक्षुओ ! अभी क्या बात चल रही थी; किस बात में लगे थे ?"
इतना कहनेपर उन भिक्षुओं ने भगवान्से यह कहा-“भन्ते(स्वामिन्) ! रात के ढल जाने के बाद पौ फटने के समय उठकर बैठक में इकट्ठ बैठे हम लोगों में यह बात चली—आवुस ! यह बडा आश्चर्य और अद्भुत है कि सर्ववित्, सर्वद्रप्टा, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् (सभी) जीवों के (चित्त के) नाना अभिप्राय को ठीक-ठीक जान लेते हैं। यही सुप्रिय० निन्दा कर रहा है और ब्रह्मदत्त प्रशंसा । इस तरह ये पीछे-पीछे आ रहे हैं। भन्ते ! हम लोगों की बात यही थी कि भगवान् पधारे।"
(भगवान् बोले-) "भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी निन्दा करे, या धर्म की निन्दा करे, या संघ की निन्दा करे, तो तुम लोगों को न (उससे) वैर, न असन्तोष और न चित्त कोप करना चाहिए।
"भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की निन्दा करे, और तुम (उससे) कुपित या खिन्न हो जाओगे, तो इसमें तुम्हारी ही हानि है।
“भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की निन्दा करे, तो क्या तुम लोग (झट) कुपित और खिन्न हो जाओगे, और इसकी जांच भी न करोगे कि उन लोगों के कहने में क्या सच बात है और क्या झूठ ?"
“भन्ते ! ऐसा नहीं ।”
"भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की निन्दा करे, तो तुम लोगों को सच और झूठ बातका पूरा पता लगानी चाहिए-क्या यह ठीक नहीं हैं, यह असत्य है, यह बात हम लोगों में नहीं है, यह बात हम लोगों में बिलकुल नहीं है ?
"भिक्षुओ ! और यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की प्रशंसा करे, तो तुम लोगों को न आनन्दित, न प्रसन्न और न हर्षोत्फुल्ल हो जाना चाहिए । यदि तुम लोग आनन्दित, प्रसन्न और हर्षोत्फुल्ल हो जाओगे, तो उसमें तुम्हारी ही हानि है । "भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की प्रशंसा करे, तो तुम लोगों को सच और झूठ बात का पूरा पता लगाना चाहिए---क्या यह बात ठीक है, यह बात सत्य है, यह बात हम लोगों में है और यथार्थ में है।
🌷१–बुद्ध में साधारण बातें
(१) आरम्भिक शील
"भिक्षुओ ! यह शील तो बहुत छोटा और गौण है, जिसके कारण अनाडी लोग (पृथग् जन) मेरी प्रशंसा करते हैं। भिक्षुओ ! वह छोटा और गौण शील कौन सा है, जिसके कारण अनाडी मेरी प्रशंसा करते हैं ?-
(वे ये हैं)--श्रमण गौतम जीव हिंसा (प्राणातिपात) को छोड हिंसा से विरत रहता है। वह दंड और शस्त्र को त्यागकर लज्जावान, दयालु और सब जीवों को हित चाहनेवाला है ।
“भिक्षुओ ! अथवा अनाडी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते हैं--श्रमण गोतम चोरी (-अदत्तादान) को छोडकर चोरीसे विरत रहता है। वह किसी से दो-गई चीज को ही स्वीकार करता है (दत्तादायी), किसी से दी गई चीज ही की अभिलाषा करता है (दत्ताभिलाषी), और इस तरह पवित्र आत्मावाला, होकर विहार करता है।
"भिक्षुओ ! अथवा अनाडी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते हैं-व्यभिचार छोडकर श्रमण गौतम निकृष्ट स्त्री-संभोग से सर्वथा विरत रहता है।
"भिक्षुओ ! अथवा०-मिथ्या-भाषणको छोड श्रमण गौतम मिथ्या-भाषण से सदा विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्यव्रत, दृढ़वक्ता, विश्वास-पात्र और जैसी कहनी वैसी करनीवाला है।
"भिक्षुओ ! अथवा--चुगली करना छोड श्रमण गौतम चुगली करने से विरत रहता है । फूट डालने के लिए न इधर की बात उधर कहता है और न उधर की बात इधर; बल्कि फूटे हुए लोगों को मिलानेवाला, मिले हुए लोगों के मेल को और भी दृढ़ करनेवाला, एकता-प्रिय, एकता-रत, एकता से प्रसन्न होने वाला और एकता स्थापित करने के लिये कहनेवाला है।
“भिक्षुओ ! अथवा०–कठोर भाषण को छोड श्रमण गौतम कठोर भाषण से विरत रहता है। वह निर्दोष, मधुर, प्रेमपूर्ण, जँचनेवाला, शिष्ट और बहुजनप्रिय भाषण करनेवाला है ।
"भिक्षुओ ! अथवा०—निरर्थक बातूनीपन को छोड श्रमण गौतम निरर्थक बातूनीपन से विरत रहता है। वह समयोचित बोलनेवाला, यथार्थवक्ता, आवश्यकोचित वक्ता, धर्म और विनय की बात बोलनेवाला तथा सारयुक्त बात कहनेवाला है।
“भिक्षुओ ! अथवा०–श्रमण गौतम किसी बीज या प्राणी के नाश करने से विरत रहता है, एकाहारी है, और बेवक्त के खाने से, नृत्य, गीत, वाद्य और अश्लील हाव-भाव के दर्शन से विरत रहता है। माला, गन्ध, विलेपन, उबटन तथा अपने को सजने-धजने से श्रमण गौतम विरत रहता है। श्रमण गौतम ऊँची और बहुत ठाट-बाटकी शय्यासे विरत रहता है । ० कच्चे अन्न ग्रहणसे विरत रहता है। ० कच्चे माँस के ग्रहण से विरत रहता है। ० स्त्री और कुमारी के ग्रहण से विरत रहता है। ० दास और दासी के ग्रहण से विरत रहता है। बकरी या भेड के ग्रहण से विरत रहता है। कुत्ता और सूअर के ग्रहण से विरत रहता है। ० हाथी, गाय, घोडा और खच्चरके ग्रहण से विरत रहता है।० खेत तथा माल असबाब के ग्रहण से विरत रहता है।० दूत के काम करने से विरत रहता है।० खरीद-बिक्री के काम करने से विरत रहता है।० तराजू, पैला और बटखरे में ठगबनीजी करने से विरत रहता है।० दलाली, ठगी और झूठा सोना-चाँदी बनाना (निकति) के कुटिल काम से, हाथ-पैर काटने, बध करने, बाँधने, लुटने-पीटने और डाका डालने के काम से विरत रहता है। "भिक्षुओ ! अनाडी तथागत की प्रशंसा इसी प्रकार करते हैं।
🌷 ( २ ) मध्यम शील
भिक्षुओ ! अथवा अनाडी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते हैं जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण (गृहस्थों के द्वारा) श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजन को खाकर इस प्रकार के सभी बीज और सभी प्राणी के नाशमें लगे रहते हैं, जैसे—मूलबीज (जिनका उगना मूल से होता है), स्कन्धबीज (जिनका प्ररोह गाँठ से होता है, जैसे-ईख), फलबीज और पाँचवाँ अग्रबीज (ऊपर से उगता पौधा) । उस प्रकार श्रमण गौतम बीज और प्राणीका नाश नहीं करता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार के जोडने और बटोरने में लगे रहते हैं, जैसे—अन्न, पान, वस्त्र, वाहन, शय्या, गन्ध तथा और भी वैसी ही दूसरी चीजों का इकट्ठा करना, उस प्रकार श्रमण गौतम जोडने और बटोरने में नहीं लगा रहता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे-नृत्य, गीत, बाजा, नाटक, लीला, ताली, ताल देना, घडीपर तबला बजानी, गीतमण्डली, लोहे की गोली का खेल, बाँस का खेल, धोफ्न,' हस्ति-युद्ध, अश्व-युद्ध, महिष-युद्ध, वृषभ-युद्ध, बकरों का युद्ध, भेडो का युद्ध, मुर्गो का लडाना, बत्तक को लडाना, लाठी का खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, मारपीट का खेल, सेना, लडाई की चालें इत्यादि उस प्रकार श्रमण गौतम अनुचित दर्शन में नहीं लगा रहता है।
“भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण जूआ आदि खेलों के नशे में लगे रहते हैं, जैसे-अष्टपद, दशपद, आकाश, परिहारपथ, सन्निक, खलिक, घटिक, शलाक-हस्त, अक्ष, पंगचिर, वंकक, मोक्खचक, चिलिगुलिक, पत्ताल्हक, रथ की दौड, तीर चलाने की बाजी, बुझौअल, और नकल, उस प्रकार श्रमण गौतम जूआ आदि खेलों के नशे में नहीं पडता है।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस तरह की ऊँची और ठाट-बाट की शय्यापर सोते हैं, जैसे-दीर्घ आसन, पलंग, बडे बडे रोयेंवाला आसन, चित्रित आसन, उजला कम्बल, फूलदार बिछावन, रजाई, गद्दा, सिंह-व्याघ्र आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, काम किया हुआ आसन, लम्बी दरी, हाथी का साज, घोडे का साज, रण का साज, कदलिमृग के खाल का बना आसन, चँदवादार आसन, दोनों ओर तकिया रखा हुआ (आसन) इत्यादि; उस प्रकार श्रमण गौतम ऊँची और ठाट-बाटकी शय्या पर नहीं सोता।
"भिक्षुओ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार अपने को सजने-वजने में लगे रहते हैं, जैसे--उबटन लगवाना, शरीर को मलवाना, दूसरे के हाथ नहाना, शरीर दबवाना, दर्पण, अंजन, माला, लेप, मुख-चूर्ण, मुख-लेपन, हाथ के आभूषण, शिखा में कुछ बाँधना; छडी, तलवार, छाता, सुन्दर जूता, टोपी, मणि, चंवर, लम्बे-लम्बे झालरवाले साफ उजले कपडे इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम अपनेको सजने-धजने में नहीं लगा रहता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकारकी व्यर्थकी (तिरश्चीन) कथा में लगे रहते हैं, जैसे-राजकथा, चोर, महामंत्री, सेना, भय, युद्ध, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, माला, गन्ध, जाति, रथ, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, मूर, नीरस्ता (विशिखा), पनघट, और भूत-प्रेत की कथायें, संसार की विविध घटनाएँ, सामुद्रिक घटनाएँ, तथा इसी तरहकी इधर उधर की जनश्रुतियाँ; उस प्रकार श्रमण गौतम तिरश्चीन कथाओं में नहीं लगता।
"भिक्षओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्राण इस प्रकारकी लडाई-झगडो की बातों में लगे रहते हैं, जैसे-तुम इस मत (धर्मविनय)को नहीं जानते, मैं जानता हूँ, तुम क्या जानोगे ? तुमने इसे ठीक नहीं समझा है; मैं इसे ठीक-ठीक समझता हूँ। मैं धर्मानुकूल कहता हूँ। तुम धर्म-विरुद्ध कहते हो; जो पहले कहना चाहिए था, उसे तुमने पीछे कह दिया, और जो पीछे कहना चाहिए था, उसे पहले कह दिया; बात कट गई; तुम पर दोषारोपण किया गया; तुम पकड लिये गये; इस आपत्ति मे छूटने की कोशिश करो; यदि सको, तो उत्तर दो इत्यादि; इस प्रकार श्रमण गौतम लडाई-झगडे की बात में नहीं रहता।
"भिक्षुओ ! अथवा--जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण (इधर-उधर) जैसे-राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मणों, गृहस्थों, कुमारों के दूत का काम करते फिरते हैं, वहाँ जाओ, यहाँ आओ, यह लाओ, यह वहाँ ले जाओ इत्याद; उस प्रकार श्रमण गौतम दूत का काम नहीं करता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण पाखंडी और वंचक, बातूनी, जोतिष के पेशावाले, जादू-मन्त्र दिखाने वाले और लाभ से लाभ की खोज करते हैं, वैसा श्रमण गौतम नहीं है।
🌷 (३) महाशील
जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजनको खाकर इस प्रकारकी हीन (नीच) विद्या से जीवन बिताते हैं, जैसे--अंगविद्या, उत्पाद०, स्वप्न०, लक्षण, मूषिक-विप० अग्निहवन, दर्वी-होम, तुष-होम, कण-होम, तण्डले-होम, घृत-होम, तैल-होम, मुख मैं घी लेकर कुले से होम, रुधिर-होम, वास्तुविद्या, क्षेत्रविद्या, शिव०, भूत, भूरि०, मर्प ०, विष०, बिच्छू के झाड-फूक की विद्या, मूषिक विद्या, पक्षि०, शरपरित्राण (मन्त्र जाप, जिससे लडाई में बाण शरीर पर न गिरे), और मृगचक्र; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार की हीन विद्या से निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे--मणि-लक्षण, वस्त्र, दण्ड लक्षण, असि लक्षण, वाण लक्षण, धनुष लक्षण, आयुध लक्षण, स्की लक्षण, पुरुष लक्षण, कुमार लक्षण, कुमारी लक्षण, दास लक्षण, दासी लक्षण, हस्ति लक्षण, अश्व लक्षण, भैस लक्षण, वृषभ लक्षण, गाय लक्षण, अज लक्षण, मेष लक्षण, मुर्गा लक्षण, बत्तक लक्षण, गोह लक्षण, कणिका लक्षण, कच्छप लक्षण और मृगलक्षण; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारको हीन विद्यासे निन्दित जीवन नहीं बिताता ।
"भिक्षुओ ! अथवा- कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से जिस प्रकार निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे-राजा बाहर निकल जायेगा नहीं निकल जायेगा, यहाँ का राजा बाहर निकल जायगा, बाहर को राजा यह आवेगा, यहाँ के राजा की जीत होगी और बाहर के राजा की हार, यहाँ के राजा की हार होगी और बाहर के राजा की जीत, इसकी जीत होगी और उसकी हार; श्रमण गौतम इस प्रकार की हीन विद्या से निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षओ ! अथवा-- कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे–चन्द्र-ग्रहण होगा, सूर्य-ग्रहण, नक्षत्रग्रहण, चन्द्रमा और सूर्य अपने-अपने मार्ग ही पर रहेंगे, चन्द्रमा और सूर्य अपने मार्ग से दूसरे मार्ग पर चले जायेंगे, नक्षत्र अपने मार्ग पर रहेगा, मार्ग से हट जायगा, उल्कापात होगा, दिशा दाह होगा, भूकम्प होगा, सूखा बादल गरजेगा, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रों का उदय, अस्त, सदोष होगा और शुद्ध होना होगा, चन्द्र-ग्रहण का यह फल होगी, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र के उदय, अस्त सदोष या निर्दोष होने से यह फल होगा; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा०— कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे-अच्छी वृष्टि होगी, बुरी०, सस्ती होगी, महँगी पडेगी, कुशल होगा, भय होगा, रोग होगा, आरोग्य होगा, हस्तरेखा-विद्या, गणना, कवितापोट इत्यादि; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा०— कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे—सगाई, विवाह, विवाह के लिए उचित नक्षत्र बताना, तलाक देने के लिए उचित नक्षत्र बताना, उधार यो ऋण में दिये गये धन के वसूल करने के लिए उचित नक्षत्र बताना, उधार या ऋण देनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, सजना-धजना, नष्ट करना, गर्भपुष्टि करना, मन्त्र बल से जीभ को बाँध देना, ठुड्डी को बाँध देना, दूसरे के हाथ को उलट देना, दूसरे के कान को बहरा बना देना, दर्पण पर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, कुमारी के शरीर पर और देववाहिनी के शरीरधर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, सूर्य-पूजा, महाब्रह्म-पूजा, मन्त्र के बल मुंहसे अग्नि निकालना; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा० कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे-मिन्नत मानना, मिन्नत पुराना, मन्त्र को अभ्यास करना, मन्त्रबल से पुरुष को नपुंसक और नपुंसक को पुरुष बनाना, इन्द्रजाल, बलिकर्म, आचमन, म्नान-कार्य, अग्नि-होम, दवा देकर वमन, विरेचन, ऊर्चीवरेचन, शिरोविरेचन कराना, कान में डालने के लिए तेल तैयार कराना, आँग्वके लिये०, नाक में तेल देकर छिकवाना, अंजन तैयार करना, छुरी काँटा की चिकित्सा करना, वैद्यकर्म; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! यह शील तो बहुत छोटे और गौण है, जिसके कारण अनाडी लोग मेरी प्रशंसा करते हैं।
🌷२-बुद्ध में असाधारण बातें
बासठ दार्शनिक मत
“भिक्षुओ ! (इनके अतिरिक्त) और दूसरे धर्म हैं, जो गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, सुन्दर, अतर्कवचर (...जो तर्क से नहीं जाने जी सकते), निपुण और पंडितो के समझने योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, और जिन्हें तथागत के यथार्थ गुण को ठीक-ठीक कहने वाले कहते हैं।
🌷(१) आदिके सम्बन्धकी 18 धारणायें
"भिक्षुओ ! वे धर्म कौन से है ?
"भिक्षुओ ! कितने ही श्रमण और ब्राह्मण हैं, जो 18 कारणों से पूर्वान्त-कल्पिक-आदिम छोरवाले मत को माननेवाले और पूर्वान्नके आधार पर अनेक (केवल) व्यहवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाण के बल पर पूर्वान्त के आधारपर अनेक व्यवहार के शब्दोंका प्रयोग करते हैं।
"भिक्षुओ ! कितने ही श्रमण और ब्राह्मण नित्यवादी (शाश्वतवादी) हैं, जो चार कारणों से आत्मा और लोक दोनों को नित्य मानते हैं ? वे किस कारण और किस प्रमाण के बल पर आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं ?
🌷१----शाश्वत-वाद--(१)
“भिक्षुओ ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर-चित्त से उस प्रकार चित्तसमाधि को प्राप्त करता है, जिसे समाधिप्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के-जैसे एक सौ० हजार० लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है— मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । वहाँ भी मैं इस नाम का इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्वजन्म के सभी आकार प्रकार को स्मरण करता है। वह (इसी के बल पर) कहता है-आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं। प्राणी चलते, फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते हैं, (किन्तु) अस्तित्व नित्य है।
“सो कैसे ? मैं भी ० उस प्रकार को चितसमाधि को प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है। अतः ऐसा जान पडता है, मानो आत्मा और लोक नित्य हैं।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण है, जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
"(२) दूसरे, वे किस कारण और किस प्रमाण के आधार पर आत्मा और लोक को शाश्वत मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण० उस प्रकार की चित्तसमाधि को प्राप्त करना है, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्वजन्मों को जैसे-एक संवर्त-विवर्त (कल्प), दस संवर्त--में इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । ०स्मरण करता है, सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्व जन्म के सभी आकार-प्रकारों को स्मरण करता है। अतः वह (इसी के बल पर) कहता है—अत्मा और लोक दोनों नित्य हैं। प्राणी० मर जाते है; किन्तु अस्तित्व नित्य है।
सो कैसे ? मैं भी० उस प्रकार की चित्तसमाधी को प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्व जन्मोंकी स्मृति हो जाती है । अतः ऐसा जान पडता है, मानो आत्मा और लोक नित्य है।
"भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है । जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
(३) "तीसरे, वे किस कारण आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण उस चितसमाधि को प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्व जन्मो को स्मरण करता है, जैसे-दस संवर्त-विवर्त कल्प, बीस०, तीस०, चालीस संवर्त-विवतं कल्प --में इस नाम का था, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । ०स्मरण करता है, सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्व जन्म के सभी आकार-प्रकारों को स्मरण करता है। सो मैं वह मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ। अतः वह (इसी के बलपर) कहता है --आत्मा और लोक दोनों नित्य हैं। प्राणी० मर जाते हैं; किन्तु अस्तित्व नित्य है ।
'सो कैसे ? मै भी उस चित्त-समाधि को प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकारके पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है । अतः ऐसा जान पडता है, मानो आत्मा और लोक नित्य हैं।
"भिक्षुओ यह तीसरा कारण है । जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
(४) "चौथे, वे किस कारण आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं ? "भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण तर्क करनेवाला है। वह अपने तर्क से विचारकर ऐसा मानता है- आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं। प्राणी चलते, फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते हैं, (किन्तु) अस्तित्व नित्य है।
“भिक्षुओ ! यह चौथा कारण है। जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
"भिक्षुओ ! इन्हीं चार कारणों से शाश्वतवादी श्रमण और ब्राह्मण आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं। जो कोई आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं, उनके यही चार कारण हैं। इनको छोड और कोई कारण नहीं है।
‘‘तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं, उन कारणों के प्रमाण और प्रकार को जानते हैं, और अधिक भी जानते हैं; जानकर भी “मैं जानता हूँ” ऐसा अभिमान नहीं करते। अभिमान न करते हुए स्वयं मुक्ति को जान लेते हैं। वेदनाओं की उत्पत्ति (समुदय), अन्त, रस (आस्वाद), दोष और निराकरण को ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते हैं। भिक्षुओ ! वे धर्म गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, अतर्कावचर, निपुण और पंडितों के समझने योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, जिसे कि तथागत के यथार्थ गुण को कहने वाले कहते हैं।
🌷 (इति) प्रथम भाणार ॥१॥
२-नित्यता-अनित्यता-वाद (५)—
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण है, जो अंशतः। नित्य और अंशत: अनित्य माननेवाले हैं। वे चार कारणोंसे आत्मा और लोकको अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाण के बल पर आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! बहुत वर्ष के बीतने पर एक समय आता है, जब इस लोक का प्रलय (संवर्त) हो जाता है । प्रलय हो जाने के बाद आभास्वर ब्रह्मलोक के रहने वाले वहाँ मनोमय, प्रीतिभक्ष (समाधिज प्रीति में रत रह्नेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र और आभरण से युक्त बहुत दीर्घ काल तक रहते हैं।
"भिक्षुओ ! बहुत वर्षों के बीतने पर एक समय आता है, जब उस लोक को प्रलय हो जाता है । प्रलय हो जाने के बाद सूना (शून्य) ब्रह्मविमान उत्पन्न होता है । तब कोई प्राणी आयु या पुण्य के क्षय होने से आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर ब्रह्मविमान में उत्पन्न होता है । वह वहाँ मनोमय प्रीतिभक्ष (समाधिज प्रीति में रत रह्नेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र और आभरण से युक्त बहुत दीर्घ काल तक रहता हैं। वहां वह अकेले बहुत दिनों तक रहकर ऊब जाता है, और उसे भय होने लगता है-अहो ! यहाँ दूसरे भी प्राणी आवे !
“तब. (कुछ समय बाद) दूसरे भी आयु और पुण्य के क्षय होने से आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर ब्रह्मविमान में उत्पन्न होते हैं । वे उस (पहले) सत्व के साथी होते हैं। वे भी वहाँ मनोमय प्रीतिभक्ष (समाधिज प्रीति में रत रह्नेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र और आभरण से युक्त बहुत दीर्घ काल तक रहते हैं। "वहाँ जो सत्व पहले उत्पन्न होता है, उसके मन में ऐसा होता है-मैं ब्रह्मा, महाब्रह्मा, अभिभू, अजित, सर्वद्रष्टा, वशवर्ती, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, महायशस्वी, वशी और हुए और होनेवाले (प्राणियों) का पिता हूँ; ये प्राणी मेरे ही द्वारा निर्मित हुए हैं।
सो कैसे ? मेरे ही मन में पहले ऐसा हुआ था-अहो ! दूसरे भी जीव यहाँ आवे । फिर मेरी ही इच्छा से ये सत्व यहाँ उत्पन्न हुए हैं।
"जो प्राणी पीछे उत्पन्न हुए थे, उनके मन में भी ऐसा हुआ--यह ब्रह्मा, महाब्रह्मा अभिभू, अजित, सर्वद्रष्टा, वशवर्ती, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, महायशस्वी, वशी और हुए और होनेवाले (प्राणियों) का पिता है । हम सभी इसी ब्रह्मा द्वारा निर्मित किये गये हैं। सो किस हेतु इनको हम लोगों ने पहले ही उत्पन्न देखा, हम लोग तो इनके पीछे उत्पन्न हुए। अतः जो (हम लोगों से) पहले ही उत्पन्न हुआ, वह हम लोगों से दीर्घ आयु का, अधिक गुणपूर्ण और अधिक यशस्वी है, और जो (हम सब) प्राणी उसके पीछे हुए वे अल्प आयु के, अल्पगुणों से युक्त और अल्प यशवाले हैं।
"भिक्षुओ! तब कोई प्राणी वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है। यहाँ आकर वह घर से बे-घर हो साधु हो जाता है। वह उस चित्तसमाधि को प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में वह अपने पहले जन्म को स्मरण करता है, उससे पहले को नहीं,०। वह ऐसा कहता है-जो ब्रह्मा, महाब्रह्मा है, जिसके द्वारा हम लोग निमित किये गये हैं, वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिणामधर्मा और अचल है , और ब्रह्मा से निर्मित किये गये हम लोग अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील हैं।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण हैं, जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशत: अनित्य मानते हैं।
(६) "दुसरे ०? भिक्षुओ ! क्रीडाप्रदूषिक नाम के कुछ देव हैं । वे बहुत काल तक रमण क्रीडा में लगे रहते हैं। उससे उनकी स्मृति क्षीण हो जाती है। स्मृति के क्षीण हो जाने से वे उस शरीर से च्युत हो जाते है, और यहाँ उत्पन्न होते हैं । यहाँ आकर साघु हो जाते हैं। साधु हो उस चित्तसमाधि को प्राप्त करते हैं, जिस समाहित चित्त में अपने पहले जन्म को स्मरण करते हैं, उसके पहले को वह ऐसा कहते हैं जो क्रीडाप्रदूषिक देव नहीं होते हैं, वे बहुत काल तक रमण-क्रीडा में लगे होकर नहीं विहार करते। इससे उनकी स्मृति क्षीण नहीं होती। स्मृति के क्षीण न होने के कारण वे उस शरीर से च्युत नहीं होते, वे नित्य, ध्रुव रहते हैं; और जो हम लोग क्रीडा-प्रदूषिक देव हैं, सो बहुत काल तक रमण-क्रीडा में लगे होकर विहार करते रहे, जिससे हम लोगों की स्मृति क्षीण हो गई । स्मृति के क्षीण होने से हम लोग उस शरीर से च्युत हो गये । अतः हम लोग अनित्य, अधृव मरणशील हैं।
"भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है, जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
"(७) तीसरे ०? भिक्षुओ ! मनःप्रदूषिक नाम के कुछ देव हैं। वे बहुत काल तक परस्पर एक दूसरे को क्रोध से देखते हैं। उससे वे एक दूसरे के प्रति द्वेष करने लगते है। एक दूसरे प्रति बहुत काल तक द्वेष करते हुए शरीर और चित्त से क्लान्त हो जाते हैं, अतः वे देव उस शरीर से च्युत हो जाते हैं।
"भिक्षुओ ! तब कोई प्राणी उस शरीर से च्युत होकर यहाँ (इस लोक में) उत्पन्न होते हैं । यहाँ आकर साधु हो जाते हैं। साधु हो उस समाधि को प्राप्त करते हैं, जिस समाहित चित्त से अपने पहले जन्म को स्मरण करते हैं, उसके पहले को नहीं । (तब) वह ऐसा कहते हैं जो मनःप्रदूषिक देव नहीं होते, वे बहुत काल तक एक दूसरे को क्रोध की दृष्टि से नहीं देखते रहते, जिससे उनमें परस्पर द्वेष भी नहीं उत्पन्न होता । द्वेष नहीं करने में वे शरीर और चित्त मे क्लान्त भी नहीं होते । अतः वे उस शरीर से च्युत भी नहीं होते । वे नित्य, ध्रुव० हैं।
और जो हम लोग मनःप्रदूषिक देव थे, सो० क्रोध, द्वेष करते रहे, (और) मन तथा शरीर से थक गये । अतः हम लोग उस शरीर से च्युत हो गये । हम लोग अनित्य, अध्रुव० है ।
"भिक्षुओ ! यह तीसरा कारण हैं । जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
"(८) चौथे ? भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण तर्क करने वाले है ? वे तर्क और न्याय से ऐसा कहते हैं--जो यह चक्षु, श्रोत्र, नासिका, जिह्वा और शरीर है, वह अनित्य, अधुव है, और (जो) यह चित्त, मन या विज्ञान है (वह) नित्य, ध्रुव हैं ।
“भिक्षुओ । यह चौथा कारण है जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
"भिक्षुओ ! ये ही श्रमण और ब्राह्मण अंशतः नित्य और अंशत: अनित्य मानते हैं। वे सभी इन्हीं चार कारणों से ऐसा मानते हैं; इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं, उन कारणों के प्रमाण और प्रकार को जानते हैं, और अधिक भी जानते हैं; जानकर भी “मैं जानता हूँ” ऐसा अभिमान नहीं करते। अभिमान न करते हुए स्वयं मुक्ति को जान लेते हैं। वेदनाओं की उत्पत्ति (समुदय), अन्त, रस (आस्वाद), दोष और निराकरण को ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते हैं। भिक्षुओ ! वे धर्म गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, अतर्कावचर, निपुण और पंडितों के समझने योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, जिसे कि तथागत के यथार्थ गुण को कहने वाले कहते हैं।
🌷३-सान्त-अनन्त-वाद-(९)
"भिक्षुओ! कितने श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से अन्तानन्तवादी हैं, जो लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं। वे किस कारण ऐसा मानते है ?. .
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण उस चित्तसमाधि को प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में 'लोक सान्त हैं। ऐसा भान होता है। वह ऐसा कहता है-यह लोक सान्त और परिछिन्न है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्त में 'लोक सान्त है', ऐसा भान होता है, इसी से मैं समझता हूँ कि लोक सान्त और परिछिन्न हैं।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण है कि जिससे वे लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं।
"(१०) दूसरे ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण समाहित चित्त से ‘लोक अनन्त है ऐसा भान होता है । वह ऐसा कहता है-यह लोक अनन्त है, इसका अन्त कहीं नहीं है। जो ऐसा कहते हैं कि यह लोक सान्त और परिच्छिन्न है, वे मिथ्या कहने वाले हैं। (यथार्थ में) यह लोक अनन्त है, इसका अन्त कहीं नहीं है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्त 'लोक अनन्त है' ऐसा भान होता है, अतः मैं समझता हूँ कि यह लोक अनन्त है ।
"भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है कि जिससे वे० लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं।
"(११) तीसरे ०? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण समाहित चित्त से ‘यह लोक ऊपर से नीचे सान्त और दिशाओं की ओर अनन्त है', ऐसा भान होता है। वह ऐसा कहना है---यह लोक सान्त और अनन्त दोनों है। जो लोक को सान्त बताते हैं और जो अनन्त, दोनों मिथ्या कहनेवाले हैं। (यथार्थ में) यह लोक सान्त और अनन्त दोनों है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्त से ऐसा भान होता हैं, जिससे मैं समझता हूँ कि यह लोक सान्त और अनन्त दोनों है।
"भिक्षुओ ! यह तीसरा कारण है कि जिससे वे लोक को सान्ति और अनन्त मानते हैं।
"(१२) चौथे ०? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण तर्क करनेवाला होता है। वह अपने तर्क मे ऐसा समझता है कि यह लोक ने सान्त है और न अनन्त ।' जो ० लोक को सान्त, या अनन्त, (सान्तानन्त) मानते हैं, सभी मिथ्या कहनेवाले हैं। (यथार्थ में) यह लोक न सान्त और न अनन्त है।
"भिक्षुओ ! यह चौथा कारण है कि जिससे वे लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं।
“भिक्षुओ ! इन्हीं चार कारणों से कितने श्रमण अन्तानन्तवादी हैं; लोक को सान्त और अनन्त बनाते हैं। वे सभी इन्ही चार कारणों से ऐसा कहते हैं। इन्हें छोड और कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! उन कारणों को तथागत जानते हैं ।
"भिक्षुओ! कुछ श्रमण और ब्राह्मण अमराविक्षेपवादी हैं, जो चार कारणों से प्रश्नों के पूछे जानेपर उत्तर देनेमें घबडा जाते हैं ? वे क्यों घबडा जाते हैं ?
🌷४-*अमराविक्षेप-वाद-(१३)
“भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा । उसके मन में ऐसा होता है-मैं ठीक से नहीं जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरा। तब मैं ठीक से बिना जाने कह दूँ-'यह अच्छा है' और 'यह बुरा', यदि यह अच्छा है' या 'यह बुरा है तो यह असत्य ही होगा। जो मेरा असत्य-भाषण होगा, सो मेरा घातक (नाश का कारण) होगा, और जो घातक होगा, वह अन्तराय (मुक्तिमार्ग में विघ्नकारक) होगा। अतः वह असत्य-भाषण के भय और घृणा से न यह कहता है कि 'यह अच्छा है और न यह कि 'यह बुरा' ।
"प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बातें नहीं करता—यह भी मैंने नहीं कहा, वह भी नहीं कहा, अन्यथा भी नहीं, ऐसा नहीं है-यह भी नहीं, ऐसा नहीं नहीं है- यह भी नहीं कहा। भिक्षुओ ! यह पहला कारण है जिससे कितने अमराविक्षेपवादी श्रमण या ब्राह्मण प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नहीं कहते । "
(१४) दूसरे० ? भिक्षुओं ! जब कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता, कि यह अच्छा है और यह बुरा । उसके मन में ऐसा होता है मैं ठीक से नहीं जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरी तब यदि मैं बिना ठीकसे जाने कह दूं तो यह मेरा लोभ, राग, द्वेष और क्रोध ही होगा। लोभ, राग और क्रोध मेरा उपादान (संसार की ओर आसक्ति) होगा । जो मेरा उपादान होगा, वह मेरा घात होगा, और घात मुक्ति के मार्ग में विघ्नकर होगा । अतः वह उपादान के भय से और घृणा मे यह भी नहीं कहता कि यह अच्छा है, और यह भी नहीं कहता कि यह बुरा है। प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नहीं कहता-मैं यह भी नहीं कहता, वह भी नहीं कहता ।
“भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है कि जिससे वे कोई स्थिर बात नहीं कहते।
"(१५) तीसरे० ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण यह ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा। उसके मनमें ऐसा होता है - यदि मैं बिना ठीक मे जाने कह दूँ ०, और जो श्रमण और ब्राह्मण पण्डित, निपुण, बडे शास्त्रार्थ करने वाले, कुशाग्रबुद्धि तथा दूसरे के सिद्धान्तों को अपनी प्रज्ञा से काटनेवाले हैं, वे यदि मुझ से पूछे, तर्क करें, या बातें करें, और मैं उसका उत्तर न दे सकूं तो यह मेरा विघात (दुर्भाव) होगा । जो मेरा विघात होगा, वह मेरी मुक्ति के मार्ग में बाधक होगा। अतः, वह पूछे जाने के भय और घृणा से न तो यह कहता है कि यह अच्छा है और न यह कि यह बुरा है । प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नहीं करता–मैं यह भी नहीं कहता, वह भी नहीं कहता ॥
"भिक्षुओ ! यह तीसरा कारण है, जिससे वे कोई स्थिर बात नहीं कहते ।
(१६) चौथे ०? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण मन्द और महामूढ़ होता है। वह अपनी मन्दता और महामूढ़ता के कारण प्रश्नों पूछे जाने पर कोई स्थिर बात नहीं कहता । यदि मुझे इस तरह पूछे---‘क्या परलोक है ?' और यदि मैं समझुँ कि परलोक है, तो कहूँ कि 'परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता । यदि मुझे पूछे, 'क्या परलोक नहीं है। परलोक है, नहीं है, और न है, न नहीं है। औपपातिक (अयोनिज) सत्व (-ऐसे प्राणी जी बिना माता पिता के संयोगके उत्पन्न हुए हों) हैं, नहीं हैं, है-भी-और-नहीं-भी, और-न-है-न-नहीं है । सुकृत और दुष्कृत कर्मो के विपाक (फल) है, नहीं-हैं, हैं-भी-और-नहीं-भी, और-न-हैं, न-नही हैं। तथागत मरने के बाद रहते हैं, नहीं रहते हैं। ऐसा भी मैं नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता ।
"भिक्षुओ ! यह चौथा कारण है जिसमे वे कोई स्थिर बातें नहीं कहते ।
"भिक्षुओ ! वे सभी इन्हीं चार कारणों से ऐसा मानते हैं। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है। भिक्षुओ ! तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं ।
🌷५--अकारण-बाद--(१७)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण के कारणवादी (बिना किसी कारण के सभी चीजें उत्पन्न होती हैं, ऐसा माननेवाले) हैं। दो कारणों से आत्मा और लोक को अकारण उत्पन्न मानते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाणके आधार पर ऐसा मानते हैं?
भिक्षुओ ! 'असंज्ञीसत्व' (जो संज्ञा से रहित हैं) नाम के कुछ देव है। संज्ञा के उत्पन्न होने से वे देव उस शरीर से व्युत हो जाते हैं। तब, उस शरीर से च्युत होकर यहाँ (इस लोक में) उत्पन्न होते हैं। यहाँ साधु हो जाते हैं। साधु होकर समाहित चित्त में संज्ञा के उत्पन्न होने को स्मरण करते हैं, उसके पहले को नहीं । वह ऐसा कहते हैं—आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न हुए हैं। सो कैसे ? मैं पहले नहीं था, मैं नहीं होकर भी उत्पन्न हो गया।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण है, जिससे कितने श्रमण और ब्राह्मण 'अकारणवादी' हो आत्मा और लोक को अकारण उत्पन्न बतलाते हैं।
"(१८) दूसरे० ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक होता है। वह स्वयं तर्क करके ऐसा समझता है—आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न होते हैं।
“भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है, जिससे कितने श्रमण और ब्राह्मण 'अकारणवादी'• हैं।
"भिक्षुओ ! इन्हीं दो कारणों से वे अकारणवादी हैं, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है। भिक्षुओ ! तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं ०।
"भिक्षुओ ! वे श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं अट्ठारह कारणों से पूर्वान्तकल्पिक, पूर्वछोर के मत को माननेवाले और पूर्वान्तके आधार पर अनेक (केवल) व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! उन दृष्टि-स्थानों (सिद्धान्तों) के प्रकार, विचार, गति और भविष्य क्या हैं, (वह सब) तथागत को विदित है । तथागत उसे और उससे भी अधिक जानते हैं। जानते हुए ऐसा अभिमान नहीं करते---‘मैं इतना जानता हूँ। अभिमान नहीं करते हुए वे निर्वृति (मुक्ति) को जान लेते हैं। वेदनाओंके समुदय (उत्पत्तिस्थान), उपशम, आस्वाद, दोष और निःसरण (दूर करना) को यथार्थतः जानकर तथागत उपादान (लोकासक्ति) से मुक्त होते हैं।
"भिक्षुओ ! ये धर्म गम्भीर, दुर्जेये, दुरनुबोध, शान्त, सुन्दर, तर्क से परे, निपुण और पण्डितों के जानने योग्य है, जिसे तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर उपदेश देते हैं। जिन्हें कि तथागतके यथार्थ गुणों को कहनेवाले कहते हैं।
🌷 (२) अन्त के सम्बन्धकी चवालीस धारणायें
"भिक्षओ ! कितने ही श्रमण और ब्राह्मण हैं, जो चवालीस कारणों मे अपरान्तकल्पिक, अपरान्त मत माननेवाले और अपरान्त के आधारपर अनेक (केवल) व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाण के बलपर अपरान्न के आधार पर अनेक व्यवहार के शब्दोंका प्रयोग करते हैं ?
६-मरणान्तर होशवाला आत्मा--(१९-३४)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण ‘मरने के बाद आत्मा' संज्ञी रहता है', ऐसा मानते हैं। वे सोलह कारणों से ऐसा मानते हैं। वे सोलह कारणों से ऐसा क्यों मानते हैं ? 'मरने के बाद आत्मा रूपवान्, रोगरहित और आत्म-प्रतीति (संज्ञा प्रतीति) के साथ रहता है । अरूपवान् और रूपवान् आत्मा होता है, न रूपवान्, न अरूपवान् आत्मा होता है; आत्मा सान्त होता है, आत्मा अनन्त होता है, आत्मा सान्त और अनन्त होता है, आत्मा न सान्त और न अनन्त होता है, आत्मा एकात्मसंज्ञी होता है, आत्मा नानात्मसंज्ञी होता है, आत्मा परिमित-संज्ञावाला होता है, आत्मा अपरिमितसंज्ञावाला होता है, आत्मा बिल्कुल शुद्ध होता है, आत्मा बिल्कुल दुःखी होता है, आत्मी सुखी और दुःखी होता है, आत्मा सुख दुःख से रहित होता है, आत्मा अरोग और संज्ञी होता है।
"भिक्षुओ ! इन्हीं सोलह कारणों से वे ऐसा कहते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नहीं है। "भिक्षुओ ! तथागत उन कारणों को जानते हैं ।
(इति) द्वितीय भाणवार ॥ ३ ॥
७–मरणान्तर बेहोश आत्मा--(३५-४२)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से मरने के बाद आत्मा असंज्ञी रहता है', ऐसा मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं ? वे कहते हैं—मरने के बाद आत्मा असंज्ञी, रूपवान् और अरोग रहता है-अरूपवान्०, रूपवान् और अरूपवान्,० न रूपवान् और न अरूपवान्, सान्त०, अनन्त०, सान्त और अनन्त०, न सान्त और ने अनन्त० ।
"भिक्षुओ ! इन्हीं आठ कारणोंसे वे 'मरनेके बाद आत्मा असंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं।
वे सभी इन्हीं आठ कारणों से इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है। | "भिक्षुओ ! तथागत इन कारणोंको जानते हैं।
८-मरणान्तर न-होशवाला न-बेहोश आत्मा-(४३-५०)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से मरने के बाद आत्मा नैवसंज्ञी, नैवअसंज्ञी रहता है', ऐसा मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! मरनेके बाद आत्मा रूपवान्, अरोग और नैवसंज्ञी नैवासंज्ञी रहता है। वे ऐसा कहते हैं-अरूपवान् ।
"भिक्षुओ ! इन्हीं आठ कारणों से वे 'मरने के बाद आत्मा नैवसंज्ञी नैवअसंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं। वे सभी इन्हीं आठ कारणों से, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत इन कारणोंको जानते हैं।
९-आत्मा का उच्छेद--(५१-५७)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण सात कारणों से ‘सत्व (आत्मा) का उच्छेद, विनाश और लोप हो जाता है' ऐसा मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानते हैं—यथार्थ में यह आत्मा रूपी -चार महाभूतो से बना है, और माता पिता के संयोग से उत्पन्न होती हैं, इसलिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाता है। क्योंकि यह आत्मा बिल्कुल समुच्छिन्न हो जाता है, इसलिए वे सत्व (जीव) का उच्छेद, विनाश और लोप बताते हैं ।
"(जब) उन्हें दूसरे कहते-जिसके विषय में तुम कहते हो, वह आत्मा है; (उसके विषय में) मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि नहीं है, किन्तु यह आत्मा इस तरह से बिल्कुल उच्छिन्न नहीं हो जाता। दूसरा आत्मा है, जो दिव्य, रूपी, कामावचर लोकमें रहनेवाला (जहाँ आत्मी सुखोपभोग करता है), और भोजन खाकर रहनेवाली है। उसको तुम न तो जानते हो और न देखते हो। उसको मैं जानता और देखता हूँ। वह मत् आत्मा शरीर के नष्ट होने पर उच्छिन्न और विनष्ट हो जाता है, मरने के बाद नहीं रहता। इस तरह आत्मा समुच्छिन्न हो जाता है। इस तरह कितने सत्वों का वह उच्छेद, विनाश ओर लोग बताते हैं।
"उनसे दूसरे कहने हैं--जिसके विषय में तुम कहते हो, वह आत्मा है, (उसके विषय में) 'यह नहीं है', ऐसा मै नहीं कहता; किन्तु यह उस तरह बिल्कुल उच्छिन्न नहीं हो जाता। दूसरा आत्मा है, जो दिव्य, रूपी मनोमय, अंग-प्रत्यंग से युक्त और अहीनेन्द्रिय है। उसे तुम नहीं जानते, मैं जानता हूँ। वह सत् आत्मा शरीर के नष्ट होने पर उच्छिन्न हो जाता है । आत्मा समुच्छिन्न हो जाता है। इसलिये वह कितने सत्वों का उच्छेद, विनाश और लोप बताते हैं।
"उन्हें दूसरे कहते हैं--० वह आत्मा है; किन्तु उस तरह नहीं । दूसरा आत्मा है, जो सभी तरह से रूप और संज्ञा से भिन्न, प्रतिहिंसा की संज्ञाओ के अस्त हो जाने से नानात्म (नाना शरीर की) संज्ञाओं को मन में न करने से अनन्त आकाश की तरह अनन्त आकाश शरीरवाला है। उसे तुम नहीं जानते, मैं जानता हैं। वह आत्मा उच्छिन्न हो जाता है, अतः कितने इस प्रकार सत्व को उच्छेद बताते हैं।
“उनसे दूसरे कहते हैं----०। दूसरी आत्मा है, जो सभी तरह से अनन्त आकाश-शरीर को अतिक्रमण (लाँघ) कर अनन्त विज्ञान-शरीरवाला है।
"उन्हें दूसरे कहते हैं-०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरह से विज्ञान-आयतन को अतिक्रमण कर कुछ नहीं ऐसा अकिंचन (शून्य) शरीरवाला रहता है।
“उन्हें दूसरे कहते हैं-०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरहसे आकिंचन्य-आयतन को अतिक्रमण कर शान्त और प्रणीत नैवसंज्ञा-न-असंज्ञा है ।
"भिक्षुओ ! वे श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं सात कारणों से उच्छेदवादी हो, जो (वस्तु) अभी है, उसका उच्छेद, विनाश और लोप बताते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत उन सभी को जानते हैं ।
🌷१०-इसी जन्म में निर्वाण---(५८-६२)
भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण पाँच कारणों से दृष्टधर्मनिर्वाणवादी (इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण हो जाता है, ऐसा माननेवाले) है, जो ऐसा बतलाते हैं कि प्राणी का इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण हो जाता है। वे ऐसा क्यों मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मत माननेवाला होता है-चूंकि यह आत्मा पाँच काम-गुणों (भोगों) में लगकर सांसारिक भोग भोगता है, इसलिए यह इसी संसार में आँखों के सामने ही निर्वाण पा लेता है। अतः कितने ऐसा बतलाते हैं कि सत्व इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण पा लेता है।
“उनसे दूसरे कहते है--- ०। यह आत्मा इस तरह देखते-देखते संसार ही में निर्वाण नहीं प्राप्त कर लेता । सो कैसे ? सांसारिक काम-भोग अनित्य, दुःख और चलायमान हैं। उनके परिवर्तन होने रहने से शोक, रोना पीटना, दुःख-दौर्मनस्य और बडी परेशानी होती है ।
"अतः यह आत्मा कामों से पृथक् रहे, बुरी बातोंको छोड, सवितर्क, सविचार विवेकज प्रीति-सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है। इसलिए यह आत्मा इसी संमार में आँखों के सामने ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
“उनसे दूसरे कहते हैं-०। आत्मा इस प्रकार निर्वाण नहीं पाता । सो कैसे ? जो वितर्क और विचार करने से बडा स्थूल (उदार) मालूम होता है, वह आत्मा वितर्क और विचार के शान्त हो जाने से भीतरी प्रसन्नता (आध्यात्म सम्प्रसाद), एकाग्रचित्त हो, वितर्क-विचार-रहित मुमाधिज प्रीति-सुखवाले दूसरे ध्यान को प्राप्त हो विहार करता है ।
"इतने से यह आत्मा संसार ही में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
उनसे दूसरे कहते हैं-०। सो कैसे ? जो प्रीति पा चित्त का आनन्द मे भर जाना है, उसी से स्थूल प्रतीत होता है। क्योंकि यह आत्मा प्रीति और विराग से उपेक्षायुक्त (अनासक्त) होकर विहार करता है, तथा ज्ञानयुक्त पण्डितों से वर्णित सभी सुख को शरीर से अनुभव करता है, अतः उपेक्षायुक्त स्मृतिमान् और सुखविहारी तीसरे ध्यान को प्राप्त करता है। "इतने से यह आत्मा संसार ही में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
उनसे दूसरे कहते हैं-०। जो वहाँ इतने से चित्त का सुखोपभोग स्थूल प्रतीत होता हैं, यह आत्मा सुख और दुःख के नष्ट होने से, सौमनस्य और दौर्मनस्य के पहले ही अस्त होने से, न सुख ने दुःख वाले, उपेक्षा और स्मृति से परिशुद्ध चौथे ध्यान को प्राप्तकर विहार करता है ।
"इतने से यह आत्मा संसार ही में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
"भिक्षुओ ! इन्हीं पाँच कारणों से वे 'इसी संसार में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त होता है, ऐसा मानते हैं। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत उन कारणोंको जानते हैं ।
"भिक्षुओ ! श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं चवालीस कारणों से अपरान्तकल्पिक मत माननेवाले और अपरान्तके आधारपर अनेक व्यवहारके शब्दोंका प्रयोग करते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नहीं है ।
"भिक्षुओ ! ये श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं बासठ कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक, पूर्वान्त और अपरान्त मत माननेवाले तथा पूर्वान्त और अपरान्त के आधार पर अनेक व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। इनके अतिरिक्त और दूसरा कोई कारण नहीं है।
"तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं, उन कारणों के प्रमाण और प्रकार को जानते हैं, और उससे अधिक भी जानते हैं; जानकर भी मैं जानता हूँ', ऐसा अभिमान नहीं करते ।
“वेदनाओंकी निवृत्ति, उत्पत्ति (समुदय), अन्त, आस्वाद, दोष और लिप्तता को ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते हैं। भिक्षुओ ! ये धर्म गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, तर्क से परे, निपुण और पण्डितों के समझने के योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, जिसे तथागत के यथार्थ गुण को कहनेवाले कहते हैं ।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से नित्यतावादी हैं तथा आत्मा और लोक को नित्य कहते हैं, वह उन सांसारिक वेदनाओं को भोगनेवाले तथा तृष्णा से चकित उन अज्ञ श्रमणों और ब्राह्मणों की चंचलता मात्र है।
"भिक्षुओ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से अंशतः नित्यतावादी और अंशतः अनित्यतावादी हैं, जो ० चार कारणों से आत्मा और लोक को अन्तानन्तिक (सान्त भी और अनन्त भी) मानते हैं; जो चार कारणों से प्रश्नों के पूछे जाने पर कोई स्थिर बात नहीं कहते; जो अकारणवादी हो दो कारणों से आत्मा और लोक को अकारण उत्पन्न मानते हैं; जो श्रमण और ब्राह्मण इन अट्ठारह कारणों से पूर्वान्त के आधार पर नाना प्रकार के व्यवहार के शब्द को प्रयोग करते हैं।
जो श्रमण और ब्राह्मण सोलह कारणों से मरने के बाद आत्मा संज्ञा वाला रहती है, ऐसा मानते; जो श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से मरनेके बाद आत्मा संज्ञावाली नहीं रहता', ऐसा मानते हैं, जो आठ कारणों से आत्मा न तो संज्ञावाली और न नहीं-संज्ञावाली रहती है, ऐसा मानते हैं; जो सात कारणों से उच्छेदवादी हैं; जो पाँच कारणों से दृष्टधर्मनिर्वाणवादी हैं। जो इन चवालीस कारणों से अपरान्त के आधार पर नाना प्रकार के व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं।
"जो श्रमण और ब्राह्मण इन बासठ कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक ० पूर्वान्त और अपरान्त के आधार पर नाना प्रकार के व्यवहार के शब्दोंका प्रयोग करते हैं, वह सभी उन सांसारिक वेदनाओं को भोगनेवाले तथा तृष्णा से चकित उन अज्ञ श्रमणों और ब्राह्मणों की चंचलता मात्र है ।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं वह स्पर्श के होने से ऐसा मानते हैं । जो श्रमण और ब्राह्मण इन बासठ कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक हैं, वह स्पर्श के ही होने से ऐसा मानते हैं ।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं, उन्हें स्पर्श के बिना ही वेदना होती है, ऐसी बात नहीं हैं ०।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक हैं, वे सभी छै स्पर्शायतनों (विषयों) से स्पर्श करके वेदना को अनुभव करते हैं। उनकी वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जन्म और जन्म से जरा, मरण, शोक, रोनापीटना, दुःख, दौर्मनस्य और परेशानी होती है।
भिक्षुओ ! जब भिक्षु छै स्पर्शायतनों के समुदय, अस्त होने, आस्वाद, दोष और विराग को यथार्थतः जान लेता है, तब वह इनसे ऊपर की बातों को भी जान लेता है।
"भिक्षुओ ! ० वे सभी इन्हीं बासठ कारणों के जाल में फंसकर वहीं बंधे रहते हैं। भिक्षुओ ! जैसे कोई दक्ष मल्लाह, या मल्लाह का लडको छोटे-छोटे छेदबाले जाल से सारे जलाशय को हींडे; उसके मन में ऐसा हो--इस जलाशय में जो अच्छी-अच्छी मछलियाँ हैं; सभी जाल में फंसकर बझ गई हैं, उसी तरह से "भिक्षुओ ! भव-तृष्णा(जन्म के लोभ) के उच्छिन्न हो जाने पर भी तथागत का शरीर रहता है। जब तक उनका शरीर रहता है, तभी तक उन्हें मनुष्य और देवता देख सकते हैं । शरीर-पात हो जाने के बाद उनके जीवन-प्रवाह निरुद्ध हो जाने से उन्हें देव और मनुष्य नहीं देख सकते। भिक्षुओ ! जैसे किसी आम के गुच्छे की ढेप के टूट जानेपर उस ढेप से लगे सभी आम नीचे आ गिरते हैं, उसी तरह भव-तृष्णा के छिन्न हो जानेपर तथागत का शरीर होता है।"
भगवान्के इतना कहने पर आयुष्मान आनन्द ने भगवान्से यह कहा--"भन्ते ! आश्चर्य है, अद्भुत है। भन्ते ! आपके इस उपदेश का नाम क्या हो ।”
“आनन्द ! तो तुम इस धर्म-उपदेश को ‘अर्थजाल' भी कह सकते हो, धर्मजाल भी, ब्रह्मजाल भी, दृष्टिजाल भी, तथा अलौकिक संग्रामविजय भी कह सकते हो।"
भगवान्ने यह कहा। उन भिक्षुओं ने भी अनुकूल मन से भगवान्के कथन का अभिनन्दन किया। भगवान के इस प्रकार विस्तारपूर्वक कहने पर दस हजार ब्रह्मांड प्रकंपित हो उठे।
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*उस समय के खेल । उस समय के जूये।
* अमराविषेप नामक छोटी-छोटी मछलियाँ बळी चंचल होती हैं। जिस तरह बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे हाथ में नहीं आती हैं, उसी तरह इनके सिद्धान्त मैं भी कोई स्थिरता नहीं।
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