🌷ब्रह्मजाल-सुत्त🌷
१-बुद्ध में साधारण बातें--आरंभिक शील, मध्यम शील, महाशील।
२-बुद्ध में असाधारण बातें बासठ दार्शनिक मत-(१) आदि के सम्बन्ध की 18 धारणायें; (२) अन्त के सम्बन्ध की 44 धारणायें ।
ऐसा मैंने सुना--एक समय भगवान् पाँच सौ भिक्षुओं के बडे संघ के साथ राजगृह और नालन्दाके बीच लम्बे रास्ते पर जा रहे थे ।
सुप्रिय परिव्राजक भी अपने शिष्य ब्रह्मदत माणवक के साथ जा रहा था। उस समय सुप्रिय परिव्राजक अनेक प्रकार से बुद्ध, धर्म और संघ की निन्दा कर रहा था। किन्तु सुप्रिय का शिष्य ब्रह्मदत्त माणवक अनेक प्रकार से बुद्ध, धर्म और संघ की प्रशंसा कर रहा था। इस प्रकार वे आचार्य और शिष्य दोनों परस्पर अत्यन्त विरुद्ध पक्ष का प्रतिपादन करते भगवान् और भिक्षु-संघ के पीछे-पीछे जा रहे थे।
तब भगवान् भिक्षु-संघ के साथ रात-भर के लिए अम्बलठ्ठिका (नामक बाग) के राजकीय भवन में टिक गये।
सुप्रिय भी अपने शिष्य ब्रह्मदत्त के साथ उसी भवन में टिक गया। वहाँ भी सुप्रिय अनेक प्रकार ले बुद्ध, धर्म और संघ की निन्दा कर रहा था और ब्रह्मदत्त० प्रशंसा। इस प्रकार वे आचार्य और शिष्य दोनों परस्पर विरोधी पक्ष का प्रतिपादन कर रहे थे।
रात ढल जानेके बाद पौ फटने के समय उठकर बैठक में इकठ्ठ हो बैठे बहुत से भिक्षुओं में ऐसी बात चली-“आवुस ! यह बडी आश्चर्य और अद्भुत है कि सर्वज्ञ, सर्वद्रप्टा, अर्हत् और सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् (सभी) जीवोंके (चित के) नाना अभिप्राय को ठीक-ठीक जान लेते हैं। यही सुप्रिय अनेक प्रकार से बुद्ध, धर्म और संघ की निन्दा कर रहा है, और उसका शिष्य ब्रह्मदत्त प्रशंसा ।
तब भगवान् उन भिक्षुओं के वार्तालाप को जान बैठक में गये, और बिछे हुए आसन पर बैठ गये।
बैठकर भगवान्ने भिक्षुओं को सम्बोधित किया--"भिक्षुओ ! अभी क्या बात चल रही थी; किस बात में लगे थे ?"
इतना कहनेपर उन भिक्षुओं ने भगवान्से यह कहा-“भन्ते(स्वामिन्) ! रात के ढल जाने के बाद पौ फटने के समय उठकर बैठक में इकट्ठ बैठे हम लोगों में यह बात चली—आवुस ! यह बडा आश्चर्य और अद्भुत है कि सर्ववित्, सर्वद्रप्टा, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् (सभी) जीवों के (चित्त के) नाना अभिप्राय को ठीक-ठीक जान लेते हैं। यही सुप्रिय० निन्दा कर रहा है और ब्रह्मदत्त प्रशंसा । इस तरह ये पीछे-पीछे आ रहे हैं। भन्ते ! हम लोगों की बात यही थी कि भगवान् पधारे।"
(भगवान् बोले-) "भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी निन्दा करे, या धर्म की निन्दा करे, या संघ की निन्दा करे, तो तुम लोगों को न (उससे) वैर, न असन्तोष और न चित्त कोप करना चाहिए।
"भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की निन्दा करे, और तुम (उससे) कुपित या खिन्न हो जाओगे, तो इसमें तुम्हारी ही हानि है।
“भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की निन्दा करे, तो क्या तुम लोग (झट) कुपित और खिन्न हो जाओगे, और इसकी जांच भी न करोगे कि उन लोगों के कहने में क्या सच बात है और क्या झूठ ?"
“भन्ते ! ऐसा नहीं ।”
"भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की निन्दा करे, तो तुम लोगों को सच और झूठ बातका पूरा पता लगानी चाहिए-क्या यह ठीक नहीं हैं, यह असत्य है, यह बात हम लोगों में नहीं है, यह बात हम लोगों में बिलकुल नहीं है ?
"भिक्षुओ ! और यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की प्रशंसा करे, तो तुम लोगों को न आनन्दित, न प्रसन्न और न हर्षोत्फुल्ल हो जाना चाहिए । यदि तुम लोग आनन्दित, प्रसन्न और हर्षोत्फुल्ल हो जाओगे, तो उसमें तुम्हारी ही हानि है । "भिक्षुओ ! यदि कोई मेरी, धर्म की या संघ की प्रशंसा करे, तो तुम लोगों को सच और झूठ बात का पूरा पता लगाना चाहिए---क्या यह बात ठीक है, यह बात सत्य है, यह बात हम लोगों में है और यथार्थ में है।
🌷१–बुद्ध में साधारण बातें
(१) आरम्भिक शील
"भिक्षुओ ! यह शील तो बहुत छोटा और गौण है, जिसके कारण अनाडी लोग (पृथग् जन) मेरी प्रशंसा करते हैं। भिक्षुओ ! वह छोटा और गौण शील कौन सा है, जिसके कारण अनाडी मेरी प्रशंसा करते हैं ?-
(वे ये हैं)--श्रमण गौतम जीव हिंसा (प्राणातिपात) को छोड हिंसा से विरत रहता है। वह दंड और शस्त्र को त्यागकर लज्जावान, दयालु और सब जीवों को हित चाहनेवाला है ।
“भिक्षुओ ! अथवा अनाडी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते हैं--श्रमण गोतम चोरी (-अदत्तादान) को छोडकर चोरीसे विरत रहता है। वह किसी से दो-गई चीज को ही स्वीकार करता है (दत्तादायी), किसी से दी गई चीज ही की अभिलाषा करता है (दत्ताभिलाषी), और इस तरह पवित्र आत्मावाला, होकर विहार करता है।
"भिक्षुओ ! अथवा अनाडी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते हैं-व्यभिचार छोडकर श्रमण गौतम निकृष्ट स्त्री-संभोग से सर्वथा विरत रहता है।
"भिक्षुओ ! अथवा०-मिथ्या-भाषणको छोड श्रमण गौतम मिथ्या-भाषण से सदा विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्यव्रत, दृढ़वक्ता, विश्वास-पात्र और जैसी कहनी वैसी करनीवाला है।
"भिक्षुओ ! अथवा--चुगली करना छोड श्रमण गौतम चुगली करने से विरत रहता है । फूट डालने के लिए न इधर की बात उधर कहता है और न उधर की बात इधर; बल्कि फूटे हुए लोगों को मिलानेवाला, मिले हुए लोगों के मेल को और भी दृढ़ करनेवाला, एकता-प्रिय, एकता-रत, एकता से प्रसन्न होने वाला और एकता स्थापित करने के लिये कहनेवाला है।
“भिक्षुओ ! अथवा०–कठोर भाषण को छोड श्रमण गौतम कठोर भाषण से विरत रहता है। वह निर्दोष, मधुर, प्रेमपूर्ण, जँचनेवाला, शिष्ट और बहुजनप्रिय भाषण करनेवाला है ।
"भिक्षुओ ! अथवा०—निरर्थक बातूनीपन को छोड श्रमण गौतम निरर्थक बातूनीपन से विरत रहता है। वह समयोचित बोलनेवाला, यथार्थवक्ता, आवश्यकोचित वक्ता, धर्म और विनय की बात बोलनेवाला तथा सारयुक्त बात कहनेवाला है।
“भिक्षुओ ! अथवा०–श्रमण गौतम किसी बीज या प्राणी के नाश करने से विरत रहता है, एकाहारी है, और बेवक्त के खाने से, नृत्य, गीत, वाद्य और अश्लील हाव-भाव के दर्शन से विरत रहता है। माला, गन्ध, विलेपन, उबटन तथा अपने को सजने-धजने से श्रमण गौतम विरत रहता है। श्रमण गौतम ऊँची और बहुत ठाट-बाटकी शय्यासे विरत रहता है । ० कच्चे अन्न ग्रहणसे विरत रहता है। ० कच्चे माँस के ग्रहण से विरत रहता है। ० स्त्री और कुमारी के ग्रहण से विरत रहता है। ० दास और दासी के ग्रहण से विरत रहता है। बकरी या भेड के ग्रहण से विरत रहता है। कुत्ता और सूअर के ग्रहण से विरत रहता है। ० हाथी, गाय, घोडा और खच्चरके ग्रहण से विरत रहता है।० खेत तथा माल असबाब के ग्रहण से विरत रहता है।० दूत के काम करने से विरत रहता है।० खरीद-बिक्री के काम करने से विरत रहता है।० तराजू, पैला और बटखरे में ठगबनीजी करने से विरत रहता है।० दलाली, ठगी और झूठा सोना-चाँदी बनाना (निकति) के कुटिल काम से, हाथ-पैर काटने, बध करने, बाँधने, लुटने-पीटने और डाका डालने के काम से विरत रहता है। "भिक्षुओ ! अनाडी तथागत की प्रशंसा इसी प्रकार करते हैं।
🌷 ( २ ) मध्यम शील
भिक्षुओ ! अथवा अनाडी मेरी प्रशंसा इस प्रकार करते हैं जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण (गृहस्थों के द्वारा) श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजन को खाकर इस प्रकार के सभी बीज और सभी प्राणी के नाशमें लगे रहते हैं, जैसे—मूलबीज (जिनका उगना मूल से होता है), स्कन्धबीज (जिनका प्ररोह गाँठ से होता है, जैसे-ईख), फलबीज और पाँचवाँ अग्रबीज (ऊपर से उगता पौधा) । उस प्रकार श्रमण गौतम बीज और प्राणीका नाश नहीं करता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार के जोडने और बटोरने में लगे रहते हैं, जैसे—अन्न, पान, वस्त्र, वाहन, शय्या, गन्ध तथा और भी वैसी ही दूसरी चीजों का इकट्ठा करना, उस प्रकार श्रमण गौतम जोडने और बटोरने में नहीं लगा रहता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे-नृत्य, गीत, बाजा, नाटक, लीला, ताली, ताल देना, घडीपर तबला बजानी, गीतमण्डली, लोहे की गोली का खेल, बाँस का खेल, धोफ्न,' हस्ति-युद्ध, अश्व-युद्ध, महिष-युद्ध, वृषभ-युद्ध, बकरों का युद्ध, भेडो का युद्ध, मुर्गो का लडाना, बत्तक को लडाना, लाठी का खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, मारपीट का खेल, सेना, लडाई की चालें इत्यादि उस प्रकार श्रमण गौतम अनुचित दर्शन में नहीं लगा रहता है।
“भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण जूआ आदि खेलों के नशे में लगे रहते हैं, जैसे-अष्टपद, दशपद, आकाश, परिहारपथ, सन्निक, खलिक, घटिक, शलाक-हस्त, अक्ष, पंगचिर, वंकक, मोक्खचक, चिलिगुलिक, पत्ताल्हक, रथ की दौड, तीर चलाने की बाजी, बुझौअल, और नकल, उस प्रकार श्रमण गौतम जूआ आदि खेलों के नशे में नहीं पडता है।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस तरह की ऊँची और ठाट-बाट की शय्यापर सोते हैं, जैसे-दीर्घ आसन, पलंग, बडे बडे रोयेंवाला आसन, चित्रित आसन, उजला कम्बल, फूलदार बिछावन, रजाई, गद्दा, सिंह-व्याघ्र आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, काम किया हुआ आसन, लम्बी दरी, हाथी का साज, घोडे का साज, रण का साज, कदलिमृग के खाल का बना आसन, चँदवादार आसन, दोनों ओर तकिया रखा हुआ (आसन) इत्यादि; उस प्रकार श्रमण गौतम ऊँची और ठाट-बाटकी शय्या पर नहीं सोता।
"भिक्षुओ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार अपने को सजने-वजने में लगे रहते हैं, जैसे--उबटन लगवाना, शरीर को मलवाना, दूसरे के हाथ नहाना, शरीर दबवाना, दर्पण, अंजन, माला, लेप, मुख-चूर्ण, मुख-लेपन, हाथ के आभूषण, शिखा में कुछ बाँधना; छडी, तलवार, छाता, सुन्दर जूता, टोपी, मणि, चंवर, लम्बे-लम्बे झालरवाले साफ उजले कपडे इत्यादि, उस प्रकार श्रमण गौतम अपनेको सजने-धजने में नहीं लगा रहता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकारकी व्यर्थकी (तिरश्चीन) कथा में लगे रहते हैं, जैसे-राजकथा, चोर, महामंत्री, सेना, भय, युद्ध, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, माला, गन्ध, जाति, रथ, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, मूर, नीरस्ता (विशिखा), पनघट, और भूत-प्रेत की कथायें, संसार की विविध घटनाएँ, सामुद्रिक घटनाएँ, तथा इसी तरहकी इधर उधर की जनश्रुतियाँ; उस प्रकार श्रमण गौतम तिरश्चीन कथाओं में नहीं लगता।
"भिक्षओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्राण इस प्रकारकी लडाई-झगडो की बातों में लगे रहते हैं, जैसे-तुम इस मत (धर्मविनय)को नहीं जानते, मैं जानता हूँ, तुम क्या जानोगे ? तुमने इसे ठीक नहीं समझा है; मैं इसे ठीक-ठीक समझता हूँ। मैं धर्मानुकूल कहता हूँ। तुम धर्म-विरुद्ध कहते हो; जो पहले कहना चाहिए था, उसे तुमने पीछे कह दिया, और जो पीछे कहना चाहिए था, उसे पहले कह दिया; बात कट गई; तुम पर दोषारोपण किया गया; तुम पकड लिये गये; इस आपत्ति मे छूटने की कोशिश करो; यदि सको, तो उत्तर दो इत्यादि; इस प्रकार श्रमण गौतम लडाई-झगडे की बात में नहीं रहता।
"भिक्षुओ ! अथवा--जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण (इधर-उधर) जैसे-राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मणों, गृहस्थों, कुमारों के दूत का काम करते फिरते हैं, वहाँ जाओ, यहाँ आओ, यह लाओ, यह वहाँ ले जाओ इत्याद; उस प्रकार श्रमण गौतम दूत का काम नहीं करता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण पाखंडी और वंचक, बातूनी, जोतिष के पेशावाले, जादू-मन्त्र दिखाने वाले और लाभ से लाभ की खोज करते हैं, वैसा श्रमण गौतम नहीं है।
🌷 (३) महाशील
जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक दिये गये भोजनको खाकर इस प्रकारकी हीन (नीच) विद्या से जीवन बिताते हैं, जैसे--अंगविद्या, उत्पाद०, स्वप्न०, लक्षण, मूषिक-विप० अग्निहवन, दर्वी-होम, तुष-होम, कण-होम, तण्डले-होम, घृत-होम, तैल-होम, मुख मैं घी लेकर कुले से होम, रुधिर-होम, वास्तुविद्या, क्षेत्रविद्या, शिव०, भूत, भूरि०, मर्प ०, विष०, बिच्छू के झाड-फूक की विद्या, मूषिक विद्या, पक्षि०, शरपरित्राण (मन्त्र जाप, जिससे लडाई में बाण शरीर पर न गिरे), और मृगचक्र; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार की हीन विद्या से निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा०—जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे--मणि-लक्षण, वस्त्र, दण्ड लक्षण, असि लक्षण, वाण लक्षण, धनुष लक्षण, आयुध लक्षण, स्की लक्षण, पुरुष लक्षण, कुमार लक्षण, कुमारी लक्षण, दास लक्षण, दासी लक्षण, हस्ति लक्षण, अश्व लक्षण, भैस लक्षण, वृषभ लक्षण, गाय लक्षण, अज लक्षण, मेष लक्षण, मुर्गा लक्षण, बत्तक लक्षण, गोह लक्षण, कणिका लक्षण, कच्छप लक्षण और मृगलक्षण; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकारको हीन विद्यासे निन्दित जीवन नहीं बिताता ।
"भिक्षुओ ! अथवा- कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से जिस प्रकार निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे-राजा बाहर निकल जायेगा नहीं निकल जायेगा, यहाँ का राजा बाहर निकल जायगा, बाहर को राजा यह आवेगा, यहाँ के राजा की जीत होगी और बाहर के राजा की हार, यहाँ के राजा की हार होगी और बाहर के राजा की जीत, इसकी जीत होगी और उसकी हार; श्रमण गौतम इस प्रकार की हीन विद्या से निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षओ ! अथवा-- कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे–चन्द्र-ग्रहण होगा, सूर्य-ग्रहण, नक्षत्रग्रहण, चन्द्रमा और सूर्य अपने-अपने मार्ग ही पर रहेंगे, चन्द्रमा और सूर्य अपने मार्ग से दूसरे मार्ग पर चले जायेंगे, नक्षत्र अपने मार्ग पर रहेगा, मार्ग से हट जायगा, उल्कापात होगा, दिशा दाह होगा, भूकम्प होगा, सूखा बादल गरजेगा, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्रों का उदय, अस्त, सदोष होगा और शुद्ध होना होगा, चन्द्र-ग्रहण का यह फल होगी, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र के उदय, अस्त सदोष या निर्दोष होने से यह फल होगा; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा०— कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे-अच्छी वृष्टि होगी, बुरी०, सस्ती होगी, महँगी पडेगी, कुशल होगा, भय होगा, रोग होगा, आरोग्य होगा, हस्तरेखा-विद्या, गणना, कवितापोट इत्यादि; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा०— कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे—सगाई, विवाह, विवाह के लिए उचित नक्षत्र बताना, तलाक देने के लिए उचित नक्षत्र बताना, उधार यो ऋण में दिये गये धन के वसूल करने के लिए उचित नक्षत्र बताना, उधार या ऋण देनेके लिए उचित नक्षत्र बताना, सजना-धजना, नष्ट करना, गर्भपुष्टि करना, मन्त्र बल से जीभ को बाँध देना, ठुड्डी को बाँध देना, दूसरे के हाथ को उलट देना, दूसरे के कान को बहरा बना देना, दर्पण पर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, कुमारी के शरीर पर और देववाहिनी के शरीरधर देवता बुलाकर प्रश्न पूछना, सूर्य-पूजा, महाब्रह्म-पूजा, मन्त्र के बल मुंहसे अग्नि निकालना; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! अथवा० कितने श्रमण और ब्राह्मण इस प्रकार हीन विद्या से निन्दित जीवन बिताते हैं, जैसे-मिन्नत मानना, मिन्नत पुराना, मन्त्र को अभ्यास करना, मन्त्रबल से पुरुष को नपुंसक और नपुंसक को पुरुष बनाना, इन्द्रजाल, बलिकर्म, आचमन, म्नान-कार्य, अग्नि-होम, दवा देकर वमन, विरेचन, ऊर्चीवरेचन, शिरोविरेचन कराना, कान में डालने के लिए तेल तैयार कराना, आँग्वके लिये०, नाक में तेल देकर छिकवाना, अंजन तैयार करना, छुरी काँटा की चिकित्सा करना, वैद्यकर्म; उस प्रकार श्रमण गौतम इस प्रकार को हीन विद्या मे निन्दित जीवन नहीं बिताता।
"भिक्षुओ ! यह शील तो बहुत छोटे और गौण है, जिसके कारण अनाडी लोग मेरी प्रशंसा करते हैं।
🌷२-बुद्ध में असाधारण बातें
बासठ दार्शनिक मत
“भिक्षुओ ! (इनके अतिरिक्त) और दूसरे धर्म हैं, जो गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, सुन्दर, अतर्कवचर (...जो तर्क से नहीं जाने जी सकते), निपुण और पंडितो के समझने योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, और जिन्हें तथागत के यथार्थ गुण को ठीक-ठीक कहने वाले कहते हैं।
🌷(१) आदिके सम्बन्धकी 18 धारणायें
"भिक्षुओ ! वे धर्म कौन से है ?
"भिक्षुओ ! कितने ही श्रमण और ब्राह्मण हैं, जो 18 कारणों से पूर्वान्त-कल्पिक-आदिम छोरवाले मत को माननेवाले और पूर्वान्नके आधार पर अनेक (केवल) व्यहवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाण के बल पर पूर्वान्त के आधारपर अनेक व्यवहार के शब्दोंका प्रयोग करते हैं।
"भिक्षुओ ! कितने ही श्रमण और ब्राह्मण नित्यवादी (शाश्वतवादी) हैं, जो चार कारणों से आत्मा और लोक दोनों को नित्य मानते हैं ? वे किस कारण और किस प्रमाण के बल पर आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं ?
🌷१----शाश्वत-वाद--(१)
“भिक्षुओ ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर-चित्त से उस प्रकार चित्तसमाधि को प्राप्त करता है, जिसे समाधिप्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के-जैसे एक सौ० हजार० लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है— मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । वहाँ भी मैं इस नाम का इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्वजन्म के सभी आकार प्रकार को स्मरण करता है। वह (इसी के बल पर) कहता है-आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं। प्राणी चलते, फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते हैं, (किन्तु) अस्तित्व नित्य है।
“सो कैसे ? मैं भी ० उस प्रकार को चितसमाधि को प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है। अतः ऐसा जान पडता है, मानो आत्मा और लोक नित्य हैं।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण है, जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
"(२) दूसरे, वे किस कारण और किस प्रमाण के आधार पर आत्मा और लोक को शाश्वत मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण० उस प्रकार की चित्तसमाधि को प्राप्त करना है, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्वजन्मों को जैसे-एक संवर्त-विवर्त (कल्प), दस संवर्त--में इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । ०स्मरण करता है, सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्व जन्म के सभी आकार-प्रकारों को स्मरण करता है। अतः वह (इसी के बल पर) कहता है—अत्मा और लोक दोनों नित्य हैं। प्राणी० मर जाते है; किन्तु अस्तित्व नित्य है।
सो कैसे ? मैं भी० उस प्रकार की चित्तसमाधी को प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्व जन्मोंकी स्मृति हो जाती है । अतः ऐसा जान पडता है, मानो आत्मा और लोक नित्य है।
"भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है । जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
(३) "तीसरे, वे किस कारण आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण उस चितसमाधि को प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकार के पूर्व जन्मो को स्मरण करता है, जैसे-दस संवर्त-विवर्त कल्प, बीस०, तीस०, चालीस संवर्त-विवतं कल्प --में इस नाम का था, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ । ०स्मरण करता है, सो मैं वहाँ मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ।
“इस प्रकार वह अपने पूर्व जन्म के सभी आकार-प्रकारों को स्मरण करता है। सो मैं वह मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ। अतः वह (इसी के बलपर) कहता है --आत्मा और लोक दोनों नित्य हैं। प्राणी० मर जाते हैं; किन्तु अस्तित्व नित्य है ।
'सो कैसे ? मै भी उस चित्त-समाधि को प्राप्त करता हूँ, जिस समाहित चित्त में अनेक प्रकारके पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है । अतः ऐसा जान पडता है, मानो आत्मा और लोक नित्य हैं।
"भिक्षुओ यह तीसरा कारण है । जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
(४) "चौथे, वे किस कारण आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं ? "भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण तर्क करनेवाला है। वह अपने तर्क से विचारकर ऐसा मानता है- आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कूटस्थ और अचल हैं। प्राणी चलते, फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते हैं, (किन्तु) अस्तित्व नित्य है।
“भिक्षुओ ! यह चौथा कारण है। जिस प्रमाण के आधार पर कितने श्रमण और ब्राह्मण शाश्वतवादी हो, आत्मा और लोक को नित्य बताते हैं।
"भिक्षुओ ! इन्हीं चार कारणों से शाश्वतवादी श्रमण और ब्राह्मण आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं। जो कोई आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं, उनके यही चार कारण हैं। इनको छोड और कोई कारण नहीं है।
‘‘तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं, उन कारणों के प्रमाण और प्रकार को जानते हैं, और अधिक भी जानते हैं; जानकर भी “मैं जानता हूँ” ऐसा अभिमान नहीं करते। अभिमान न करते हुए स्वयं मुक्ति को जान लेते हैं। वेदनाओं की उत्पत्ति (समुदय), अन्त, रस (आस्वाद), दोष और निराकरण को ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते हैं। भिक्षुओ ! वे धर्म गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, अतर्कावचर, निपुण और पंडितों के समझने योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, जिसे कि तथागत के यथार्थ गुण को कहने वाले कहते हैं।
🌷 (इति) प्रथम भाणार ॥१॥
२-नित्यता-अनित्यता-वाद (५)—
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण है, जो अंशतः। नित्य और अंशत: अनित्य माननेवाले हैं। वे चार कारणोंसे आत्मा और लोकको अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाण के बल पर आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! बहुत वर्ष के बीतने पर एक समय आता है, जब इस लोक का प्रलय (संवर्त) हो जाता है । प्रलय हो जाने के बाद आभास्वर ब्रह्मलोक के रहने वाले वहाँ मनोमय, प्रीतिभक्ष (समाधिज प्रीति में रत रह्नेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र और आभरण से युक्त बहुत दीर्घ काल तक रहते हैं।
"भिक्षुओ ! बहुत वर्षों के बीतने पर एक समय आता है, जब उस लोक को प्रलय हो जाता है । प्रलय हो जाने के बाद सूना (शून्य) ब्रह्मविमान उत्पन्न होता है । तब कोई प्राणी आयु या पुण्य के क्षय होने से आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर ब्रह्मविमान में उत्पन्न होता है । वह वहाँ मनोमय प्रीतिभक्ष (समाधिज प्रीति में रत रह्नेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र और आभरण से युक्त बहुत दीर्घ काल तक रहता हैं। वहां वह अकेले बहुत दिनों तक रहकर ऊब जाता है, और उसे भय होने लगता है-अहो ! यहाँ दूसरे भी प्राणी आवे !
“तब. (कुछ समय बाद) दूसरे भी आयु और पुण्य के क्षय होने से आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर ब्रह्मविमान में उत्पन्न होते हैं । वे उस (पहले) सत्व के साथी होते हैं। वे भी वहाँ मनोमय प्रीतिभक्ष (समाधिज प्रीति में रत रह्नेवाले) प्रभावान्, अन्तरिक्षचर, मनोरम वस्त्र और आभरण से युक्त बहुत दीर्घ काल तक रहते हैं। "वहाँ जो सत्व पहले उत्पन्न होता है, उसके मन में ऐसा होता है-मैं ब्रह्मा, महाब्रह्मा, अभिभू, अजित, सर्वद्रष्टा, वशवर्ती, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, महायशस्वी, वशी और हुए और होनेवाले (प्राणियों) का पिता हूँ; ये प्राणी मेरे ही द्वारा निर्मित हुए हैं।
सो कैसे ? मेरे ही मन में पहले ऐसा हुआ था-अहो ! दूसरे भी जीव यहाँ आवे । फिर मेरी ही इच्छा से ये सत्व यहाँ उत्पन्न हुए हैं।
"जो प्राणी पीछे उत्पन्न हुए थे, उनके मन में भी ऐसा हुआ--यह ब्रह्मा, महाब्रह्मा अभिभू, अजित, सर्वद्रष्टा, वशवर्ती, ईश्वर, कर्ता, निर्माता, श्रेष्ठ, महायशस्वी, वशी और हुए और होनेवाले (प्राणियों) का पिता है । हम सभी इसी ब्रह्मा द्वारा निर्मित किये गये हैं। सो किस हेतु इनको हम लोगों ने पहले ही उत्पन्न देखा, हम लोग तो इनके पीछे उत्पन्न हुए। अतः जो (हम लोगों से) पहले ही उत्पन्न हुआ, वह हम लोगों से दीर्घ आयु का, अधिक गुणपूर्ण और अधिक यशस्वी है, और जो (हम सब) प्राणी उसके पीछे हुए वे अल्प आयु के, अल्पगुणों से युक्त और अल्प यशवाले हैं।
"भिक्षुओ! तब कोई प्राणी वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है। यहाँ आकर वह घर से बे-घर हो साधु हो जाता है। वह उस चित्तसमाधि को प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में वह अपने पहले जन्म को स्मरण करता है, उससे पहले को नहीं,०। वह ऐसा कहता है-जो ब्रह्मा, महाब्रह्मा है, जिसके द्वारा हम लोग निमित किये गये हैं, वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिणामधर्मा और अचल है , और ब्रह्मा से निर्मित किये गये हम लोग अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील हैं।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण हैं, जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशत: अनित्य मानते हैं।
(६) "दुसरे ०? भिक्षुओ ! क्रीडाप्रदूषिक नाम के कुछ देव हैं । वे बहुत काल तक रमण क्रीडा में लगे रहते हैं। उससे उनकी स्मृति क्षीण हो जाती है। स्मृति के क्षीण हो जाने से वे उस शरीर से च्युत हो जाते है, और यहाँ उत्पन्न होते हैं । यहाँ आकर साघु हो जाते हैं। साधु हो उस चित्तसमाधि को प्राप्त करते हैं, जिस समाहित चित्त में अपने पहले जन्म को स्मरण करते हैं, उसके पहले को वह ऐसा कहते हैं जो क्रीडाप्रदूषिक देव नहीं होते हैं, वे बहुत काल तक रमण-क्रीडा में लगे होकर नहीं विहार करते। इससे उनकी स्मृति क्षीण नहीं होती। स्मृति के क्षीण न होने के कारण वे उस शरीर से च्युत नहीं होते, वे नित्य, ध्रुव रहते हैं; और जो हम लोग क्रीडा-प्रदूषिक देव हैं, सो बहुत काल तक रमण-क्रीडा में लगे होकर विहार करते रहे, जिससे हम लोगों की स्मृति क्षीण हो गई । स्मृति के क्षीण होने से हम लोग उस शरीर से च्युत हो गये । अतः हम लोग अनित्य, अधृव मरणशील हैं।
"भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है, जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
"(७) तीसरे ०? भिक्षुओ ! मनःप्रदूषिक नाम के कुछ देव हैं। वे बहुत काल तक परस्पर एक दूसरे को क्रोध से देखते हैं। उससे वे एक दूसरे के प्रति द्वेष करने लगते है। एक दूसरे प्रति बहुत काल तक द्वेष करते हुए शरीर और चित्त से क्लान्त हो जाते हैं, अतः वे देव उस शरीर से च्युत हो जाते हैं।
"भिक्षुओ ! तब कोई प्राणी उस शरीर से च्युत होकर यहाँ (इस लोक में) उत्पन्न होते हैं । यहाँ आकर साधु हो जाते हैं। साधु हो उस समाधि को प्राप्त करते हैं, जिस समाहित चित्त से अपने पहले जन्म को स्मरण करते हैं, उसके पहले को नहीं । (तब) वह ऐसा कहते हैं जो मनःप्रदूषिक देव नहीं होते, वे बहुत काल तक एक दूसरे को क्रोध की दृष्टि से नहीं देखते रहते, जिससे उनमें परस्पर द्वेष भी नहीं उत्पन्न होता । द्वेष नहीं करने में वे शरीर और चित्त मे क्लान्त भी नहीं होते । अतः वे उस शरीर से च्युत भी नहीं होते । वे नित्य, ध्रुव० हैं।
और जो हम लोग मनःप्रदूषिक देव थे, सो० क्रोध, द्वेष करते रहे, (और) मन तथा शरीर से थक गये । अतः हम लोग उस शरीर से च्युत हो गये । हम लोग अनित्य, अध्रुव० है ।
"भिक्षुओ ! यह तीसरा कारण हैं । जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
"(८) चौथे ? भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण तर्क करने वाले है ? वे तर्क और न्याय से ऐसा कहते हैं--जो यह चक्षु, श्रोत्र, नासिका, जिह्वा और शरीर है, वह अनित्य, अधुव है, और (जो) यह चित्त, मन या विज्ञान है (वह) नित्य, ध्रुव हैं ।
“भिक्षुओ । यह चौथा कारण है जिसके प्रमाण के बलपर वे आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
"भिक्षुओ ! ये ही श्रमण और ब्राह्मण अंशतः नित्य और अंशत: अनित्य मानते हैं। वे सभी इन्हीं चार कारणों से ऐसा मानते हैं; इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं, उन कारणों के प्रमाण और प्रकार को जानते हैं, और अधिक भी जानते हैं; जानकर भी “मैं जानता हूँ” ऐसा अभिमान नहीं करते। अभिमान न करते हुए स्वयं मुक्ति को जान लेते हैं। वेदनाओं की उत्पत्ति (समुदय), अन्त, रस (आस्वाद), दोष और निराकरण को ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते हैं। भिक्षुओ ! वे धर्म गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, अतर्कावचर, निपुण और पंडितों के समझने योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, जिसे कि तथागत के यथार्थ गुण को कहने वाले कहते हैं।
🌷३-सान्त-अनन्त-वाद-(९)
"भिक्षुओ! कितने श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से अन्तानन्तवादी हैं, जो लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं। वे किस कारण ऐसा मानते है ?. .
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण उस चित्तसमाधि को प्राप्त करता है, जिस समाहित चित्त में 'लोक सान्त हैं। ऐसा भान होता है। वह ऐसा कहता है-यह लोक सान्त और परिछिन्न है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्त में 'लोक सान्त है', ऐसा भान होता है, इसी से मैं समझता हूँ कि लोक सान्त और परिछिन्न हैं।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण है कि जिससे वे लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं।
"(१०) दूसरे ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण समाहित चित्त से ‘लोक अनन्त है ऐसा भान होता है । वह ऐसा कहता है-यह लोक अनन्त है, इसका अन्त कहीं नहीं है। जो ऐसा कहते हैं कि यह लोक सान्त और परिच्छिन्न है, वे मिथ्या कहने वाले हैं। (यथार्थ में) यह लोक अनन्त है, इसका अन्त कहीं नहीं है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्त 'लोक अनन्त है' ऐसा भान होता है, अतः मैं समझता हूँ कि यह लोक अनन्त है ।
"भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है कि जिससे वे० लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं।
"(११) तीसरे ०? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण समाहित चित्त से ‘यह लोक ऊपर से नीचे सान्त और दिशाओं की ओर अनन्त है', ऐसा भान होता है। वह ऐसा कहना है---यह लोक सान्त और अनन्त दोनों है। जो लोक को सान्त बताते हैं और जो अनन्त, दोनों मिथ्या कहनेवाले हैं। (यथार्थ में) यह लोक सान्त और अनन्त दोनों है । सो कैसे ? मुझे समाहित चित्त से ऐसा भान होता हैं, जिससे मैं समझता हूँ कि यह लोक सान्त और अनन्त दोनों है।
"भिक्षुओ ! यह तीसरा कारण है कि जिससे वे लोक को सान्ति और अनन्त मानते हैं।
"(१२) चौथे ०? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण तर्क करनेवाला होता है। वह अपने तर्क मे ऐसा समझता है कि यह लोक ने सान्त है और न अनन्त ।' जो ० लोक को सान्त, या अनन्त, (सान्तानन्त) मानते हैं, सभी मिथ्या कहनेवाले हैं। (यथार्थ में) यह लोक न सान्त और न अनन्त है।
"भिक्षुओ ! यह चौथा कारण है कि जिससे वे लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं।
“भिक्षुओ ! इन्हीं चार कारणों से कितने श्रमण अन्तानन्तवादी हैं; लोक को सान्त और अनन्त बनाते हैं। वे सभी इन्ही चार कारणों से ऐसा कहते हैं। इन्हें छोड और कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! उन कारणों को तथागत जानते हैं ।
"भिक्षुओ! कुछ श्रमण और ब्राह्मण अमराविक्षेपवादी हैं, जो चार कारणों से प्रश्नों के पूछे जानेपर उत्तर देनेमें घबडा जाते हैं ? वे क्यों घबडा जाते हैं ?
🌷४-*अमराविक्षेप-वाद-(१३)
“भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा । उसके मन में ऐसा होता है-मैं ठीक से नहीं जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरा। तब मैं ठीक से बिना जाने कह दूँ-'यह अच्छा है' और 'यह बुरा', यदि यह अच्छा है' या 'यह बुरा है तो यह असत्य ही होगा। जो मेरा असत्य-भाषण होगा, सो मेरा घातक (नाश का कारण) होगा, और जो घातक होगा, वह अन्तराय (मुक्तिमार्ग में विघ्नकारक) होगा। अतः वह असत्य-भाषण के भय और घृणा से न यह कहता है कि 'यह अच्छा है और न यह कि 'यह बुरा' ।
"प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बातें नहीं करता—यह भी मैंने नहीं कहा, वह भी नहीं कहा, अन्यथा भी नहीं, ऐसा नहीं है-यह भी नहीं, ऐसा नहीं नहीं है- यह भी नहीं कहा। भिक्षुओ ! यह पहला कारण है जिससे कितने अमराविक्षेपवादी श्रमण या ब्राह्मण प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नहीं कहते । "
(१४) दूसरे० ? भिक्षुओं ! जब कोई श्रमण या ब्राह्मण ठीक से नहीं जानता, कि यह अच्छा है और यह बुरा । उसके मन में ऐसा होता है मैं ठीक से नहीं जानता हूँ कि यह अच्छा है और यह बुरी तब यदि मैं बिना ठीकसे जाने कह दूं तो यह मेरा लोभ, राग, द्वेष और क्रोध ही होगा। लोभ, राग और क्रोध मेरा उपादान (संसार की ओर आसक्ति) होगा । जो मेरा उपादान होगा, वह मेरा घात होगा, और घात मुक्ति के मार्ग में विघ्नकर होगा । अतः वह उपादान के भय से और घृणा मे यह भी नहीं कहता कि यह अच्छा है, और यह भी नहीं कहता कि यह बुरा है। प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नहीं कहता-मैं यह भी नहीं कहता, वह भी नहीं कहता ।
“भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है कि जिससे वे कोई स्थिर बात नहीं कहते।
"(१५) तीसरे० ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण यह ठीक से नहीं जानता कि यह अच्छा है और यह बुरा। उसके मनमें ऐसा होता है - यदि मैं बिना ठीक मे जाने कह दूँ ०, और जो श्रमण और ब्राह्मण पण्डित, निपुण, बडे शास्त्रार्थ करने वाले, कुशाग्रबुद्धि तथा दूसरे के सिद्धान्तों को अपनी प्रज्ञा से काटनेवाले हैं, वे यदि मुझ से पूछे, तर्क करें, या बातें करें, और मैं उसका उत्तर न दे सकूं तो यह मेरा विघात (दुर्भाव) होगा । जो मेरा विघात होगा, वह मेरी मुक्ति के मार्ग में बाधक होगा। अतः, वह पूछे जाने के भय और घृणा से न तो यह कहता है कि यह अच्छा है और न यह कि यह बुरा है । प्रश्नों के पूछे जानेपर कोई स्थिर बात नहीं करता–मैं यह भी नहीं कहता, वह भी नहीं कहता ॥
"भिक्षुओ ! यह तीसरा कारण है, जिससे वे कोई स्थिर बात नहीं कहते ।
(१६) चौथे ०? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण मन्द और महामूढ़ होता है। वह अपनी मन्दता और महामूढ़ता के कारण प्रश्नों पूछे जाने पर कोई स्थिर बात नहीं कहता । यदि मुझे इस तरह पूछे---‘क्या परलोक है ?' और यदि मैं समझुँ कि परलोक है, तो कहूँ कि 'परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता । यदि मुझे पूछे, 'क्या परलोक नहीं है। परलोक है, नहीं है, और न है, न नहीं है। औपपातिक (अयोनिज) सत्व (-ऐसे प्राणी जी बिना माता पिता के संयोगके उत्पन्न हुए हों) हैं, नहीं हैं, है-भी-और-नहीं-भी, और-न-है-न-नहीं है । सुकृत और दुष्कृत कर्मो के विपाक (फल) है, नहीं-हैं, हैं-भी-और-नहीं-भी, और-न-हैं, न-नही हैं। तथागत मरने के बाद रहते हैं, नहीं रहते हैं। ऐसा भी मैं नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता ।
"भिक्षुओ ! यह चौथा कारण है जिसमे वे कोई स्थिर बातें नहीं कहते ।
"भिक्षुओ ! वे सभी इन्हीं चार कारणों से ऐसा मानते हैं। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है। भिक्षुओ ! तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं ।
🌷५--अकारण-बाद--(१७)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण के कारणवादी (बिना किसी कारण के सभी चीजें उत्पन्न होती हैं, ऐसा माननेवाले) हैं। दो कारणों से आत्मा और लोक को अकारण उत्पन्न मानते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाणके आधार पर ऐसा मानते हैं?
भिक्षुओ ! 'असंज्ञीसत्व' (जो संज्ञा से रहित हैं) नाम के कुछ देव है। संज्ञा के उत्पन्न होने से वे देव उस शरीर से व्युत हो जाते हैं। तब, उस शरीर से च्युत होकर यहाँ (इस लोक में) उत्पन्न होते हैं। यहाँ साधु हो जाते हैं। साधु होकर समाहित चित्त में संज्ञा के उत्पन्न होने को स्मरण करते हैं, उसके पहले को नहीं । वह ऐसा कहते हैं—आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न हुए हैं। सो कैसे ? मैं पहले नहीं था, मैं नहीं होकर भी उत्पन्न हो गया।
"भिक्षुओ ! यह पहला कारण है, जिससे कितने श्रमण और ब्राह्मण 'अकारणवादी' हो आत्मा और लोक को अकारण उत्पन्न बतलाते हैं।
"(१८) दूसरे० ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक होता है। वह स्वयं तर्क करके ऐसा समझता है—आत्मा और लोक अकारण उत्पन्न होते हैं।
“भिक्षुओ ! यह दूसरा कारण है, जिससे कितने श्रमण और ब्राह्मण 'अकारणवादी'• हैं।
"भिक्षुओ ! इन्हीं दो कारणों से वे अकारणवादी हैं, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है। भिक्षुओ ! तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं ०।
"भिक्षुओ ! वे श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं अट्ठारह कारणों से पूर्वान्तकल्पिक, पूर्वछोर के मत को माननेवाले और पूर्वान्तके आधार पर अनेक (केवल) व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! उन दृष्टि-स्थानों (सिद्धान्तों) के प्रकार, विचार, गति और भविष्य क्या हैं, (वह सब) तथागत को विदित है । तथागत उसे और उससे भी अधिक जानते हैं। जानते हुए ऐसा अभिमान नहीं करते---‘मैं इतना जानता हूँ। अभिमान नहीं करते हुए वे निर्वृति (मुक्ति) को जान लेते हैं। वेदनाओंके समुदय (उत्पत्तिस्थान), उपशम, आस्वाद, दोष और निःसरण (दूर करना) को यथार्थतः जानकर तथागत उपादान (लोकासक्ति) से मुक्त होते हैं।
"भिक्षुओ ! ये धर्म गम्भीर, दुर्जेये, दुरनुबोध, शान्त, सुन्दर, तर्क से परे, निपुण और पण्डितों के जानने योग्य है, जिसे तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर उपदेश देते हैं। जिन्हें कि तथागतके यथार्थ गुणों को कहनेवाले कहते हैं।
🌷 (२) अन्त के सम्बन्धकी चवालीस धारणायें
"भिक्षओ ! कितने ही श्रमण और ब्राह्मण हैं, जो चवालीस कारणों मे अपरान्तकल्पिक, अपरान्त मत माननेवाले और अपरान्त के आधारपर अनेक (केवल) व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे किस कारण और किस प्रमाण के बलपर अपरान्न के आधार पर अनेक व्यवहार के शब्दोंका प्रयोग करते हैं ?
६-मरणान्तर होशवाला आत्मा--(१९-३४)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण ‘मरने के बाद आत्मा' संज्ञी रहता है', ऐसा मानते हैं। वे सोलह कारणों से ऐसा मानते हैं। वे सोलह कारणों से ऐसा क्यों मानते हैं ? 'मरने के बाद आत्मा रूपवान्, रोगरहित और आत्म-प्रतीति (संज्ञा प्रतीति) के साथ रहता है । अरूपवान् और रूपवान् आत्मा होता है, न रूपवान्, न अरूपवान् आत्मा होता है; आत्मा सान्त होता है, आत्मा अनन्त होता है, आत्मा सान्त और अनन्त होता है, आत्मा न सान्त और न अनन्त होता है, आत्मा एकात्मसंज्ञी होता है, आत्मा नानात्मसंज्ञी होता है, आत्मा परिमित-संज्ञावाला होता है, आत्मा अपरिमितसंज्ञावाला होता है, आत्मा बिल्कुल शुद्ध होता है, आत्मा बिल्कुल दुःखी होता है, आत्मी सुखी और दुःखी होता है, आत्मा सुख दुःख से रहित होता है, आत्मा अरोग और संज्ञी होता है।
"भिक्षुओ ! इन्हीं सोलह कारणों से वे ऐसा कहते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नहीं है। "भिक्षुओ ! तथागत उन कारणों को जानते हैं ।
(इति) द्वितीय भाणवार ॥ ३ ॥
७–मरणान्तर बेहोश आत्मा--(३५-४२)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से मरने के बाद आत्मा असंज्ञी रहता है', ऐसा मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं ? वे कहते हैं—मरने के बाद आत्मा असंज्ञी, रूपवान् और अरोग रहता है-अरूपवान्०, रूपवान् और अरूपवान्,० न रूपवान् और न अरूपवान्, सान्त०, अनन्त०, सान्त और अनन्त०, न सान्त और ने अनन्त० ।
"भिक्षुओ ! इन्हीं आठ कारणोंसे वे 'मरनेके बाद आत्मा असंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं।
वे सभी इन्हीं आठ कारणों से इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है। | "भिक्षुओ ! तथागत इन कारणोंको जानते हैं।
८-मरणान्तर न-होशवाला न-बेहोश आत्मा-(४३-५०)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से मरने के बाद आत्मा नैवसंज्ञी, नैवअसंज्ञी रहता है', ऐसा मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! मरनेके बाद आत्मा रूपवान्, अरोग और नैवसंज्ञी नैवासंज्ञी रहता है। वे ऐसा कहते हैं-अरूपवान् ।
"भिक्षुओ ! इन्हीं आठ कारणों से वे 'मरने के बाद आत्मा नैवसंज्ञी नैवअसंज्ञी रहता है, ऐसा मानते हैं। वे सभी इन्हीं आठ कारणों से, इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत इन कारणोंको जानते हैं।
९-आत्मा का उच्छेद--(५१-५७)
"भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण सात कारणों से ‘सत्व (आत्मा) का उच्छेद, विनाश और लोप हो जाता है' ऐसा मानते हैं। वे ऐसा क्यों मानते हैं ? भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानते हैं—यथार्थ में यह आत्मा रूपी -चार महाभूतो से बना है, और माता पिता के संयोग से उत्पन्न होती हैं, इसलिए शरीर के नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन्न, विनष्ट और लुप्त हो जाता है। क्योंकि यह आत्मा बिल्कुल समुच्छिन्न हो जाता है, इसलिए वे सत्व (जीव) का उच्छेद, विनाश और लोप बताते हैं ।
"(जब) उन्हें दूसरे कहते-जिसके विषय में तुम कहते हो, वह आत्मा है; (उसके विषय में) मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि नहीं है, किन्तु यह आत्मा इस तरह से बिल्कुल उच्छिन्न नहीं हो जाता। दूसरा आत्मा है, जो दिव्य, रूपी, कामावचर लोकमें रहनेवाला (जहाँ आत्मी सुखोपभोग करता है), और भोजन खाकर रहनेवाली है। उसको तुम न तो जानते हो और न देखते हो। उसको मैं जानता और देखता हूँ। वह मत् आत्मा शरीर के नष्ट होने पर उच्छिन्न और विनष्ट हो जाता है, मरने के बाद नहीं रहता। इस तरह आत्मा समुच्छिन्न हो जाता है। इस तरह कितने सत्वों का वह उच्छेद, विनाश ओर लोग बताते हैं।
"उनसे दूसरे कहने हैं--जिसके विषय में तुम कहते हो, वह आत्मा है, (उसके विषय में) 'यह नहीं है', ऐसा मै नहीं कहता; किन्तु यह उस तरह बिल्कुल उच्छिन्न नहीं हो जाता। दूसरा आत्मा है, जो दिव्य, रूपी मनोमय, अंग-प्रत्यंग से युक्त और अहीनेन्द्रिय है। उसे तुम नहीं जानते, मैं जानता हूँ। वह सत् आत्मा शरीर के नष्ट होने पर उच्छिन्न हो जाता है । आत्मा समुच्छिन्न हो जाता है। इसलिये वह कितने सत्वों का उच्छेद, विनाश और लोप बताते हैं।
"उन्हें दूसरे कहते हैं--० वह आत्मा है; किन्तु उस तरह नहीं । दूसरा आत्मा है, जो सभी तरह से रूप और संज्ञा से भिन्न, प्रतिहिंसा की संज्ञाओ के अस्त हो जाने से नानात्म (नाना शरीर की) संज्ञाओं को मन में न करने से अनन्त आकाश की तरह अनन्त आकाश शरीरवाला है। उसे तुम नहीं जानते, मैं जानता हैं। वह आत्मा उच्छिन्न हो जाता है, अतः कितने इस प्रकार सत्व को उच्छेद बताते हैं।
“उनसे दूसरे कहते हैं----०। दूसरी आत्मा है, जो सभी तरह से अनन्त आकाश-शरीर को अतिक्रमण (लाँघ) कर अनन्त विज्ञान-शरीरवाला है।
"उन्हें दूसरे कहते हैं-०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरह से विज्ञान-आयतन को अतिक्रमण कर कुछ नहीं ऐसा अकिंचन (शून्य) शरीरवाला रहता है।
“उन्हें दूसरे कहते हैं-०। दूसरा आत्मा है, जो सभी तरहसे आकिंचन्य-आयतन को अतिक्रमण कर शान्त और प्रणीत नैवसंज्ञा-न-असंज्ञा है ।
"भिक्षुओ ! वे श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं सात कारणों से उच्छेदवादी हो, जो (वस्तु) अभी है, उसका उच्छेद, विनाश और लोप बताते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत उन सभी को जानते हैं ।
🌷१०-इसी जन्म में निर्वाण---(५८-६२)
भिक्षुओ ! कितने श्रमण और ब्राह्मण पाँच कारणों से दृष्टधर्मनिर्वाणवादी (इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण हो जाता है, ऐसा माननेवाले) है, जो ऐसा बतलाते हैं कि प्राणी का इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण हो जाता है। वे ऐसा क्यों मानते हैं ?
"भिक्षुओ ! कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मत माननेवाला होता है-चूंकि यह आत्मा पाँच काम-गुणों (भोगों) में लगकर सांसारिक भोग भोगता है, इसलिए यह इसी संसार में आँखों के सामने ही निर्वाण पा लेता है। अतः कितने ऐसा बतलाते हैं कि सत्व इसी संसार में देखते-देखते निर्वाण पा लेता है।
“उनसे दूसरे कहते है--- ०। यह आत्मा इस तरह देखते-देखते संसार ही में निर्वाण नहीं प्राप्त कर लेता । सो कैसे ? सांसारिक काम-भोग अनित्य, दुःख और चलायमान हैं। उनके परिवर्तन होने रहने से शोक, रोना पीटना, दुःख-दौर्मनस्य और बडी परेशानी होती है ।
"अतः यह आत्मा कामों से पृथक् रहे, बुरी बातोंको छोड, सवितर्क, सविचार विवेकज प्रीति-सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्तकर विहार करता है। इसलिए यह आत्मा इसी संमार में आँखों के सामने ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
“उनसे दूसरे कहते हैं-०। आत्मा इस प्रकार निर्वाण नहीं पाता । सो कैसे ? जो वितर्क और विचार करने से बडा स्थूल (उदार) मालूम होता है, वह आत्मा वितर्क और विचार के शान्त हो जाने से भीतरी प्रसन्नता (आध्यात्म सम्प्रसाद), एकाग्रचित्त हो, वितर्क-विचार-रहित मुमाधिज प्रीति-सुखवाले दूसरे ध्यान को प्राप्त हो विहार करता है ।
"इतने से यह आत्मा संसार ही में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है ।
उनसे दूसरे कहते हैं-०। सो कैसे ? जो प्रीति पा चित्त का आनन्द मे भर जाना है, उसी से स्थूल प्रतीत होता है। क्योंकि यह आत्मा प्रीति और विराग से उपेक्षायुक्त (अनासक्त) होकर विहार करता है, तथा ज्ञानयुक्त पण्डितों से वर्णित सभी सुख को शरीर से अनुभव करता है, अतः उपेक्षायुक्त स्मृतिमान् और सुखविहारी तीसरे ध्यान को प्राप्त करता है। "इतने से यह आत्मा संसार ही में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
उनसे दूसरे कहते हैं-०। जो वहाँ इतने से चित्त का सुखोपभोग स्थूल प्रतीत होता हैं, यह आत्मा सुख और दुःख के नष्ट होने से, सौमनस्य और दौर्मनस्य के पहले ही अस्त होने से, न सुख ने दुःख वाले, उपेक्षा और स्मृति से परिशुद्ध चौथे ध्यान को प्राप्तकर विहार करता है ।
"इतने से यह आत्मा संसार ही में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
"भिक्षुओ ! इन्हीं पाँच कारणों से वे 'इसी संसार में आँखों के सामने निर्वाण प्राप्त होता है, ऐसा मानते हैं। इनके अतिरिक्त कोई दूसरा कारण नहीं है।
"भिक्षुओ ! तथागत उन कारणोंको जानते हैं ।
"भिक्षुओ ! श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं चवालीस कारणों से अपरान्तकल्पिक मत माननेवाले और अपरान्तके आधारपर अनेक व्यवहारके शब्दोंका प्रयोग करते हैं। इनके अतिरिक्त और कोई दूसरा कारण नहीं है ।
"भिक्षुओ ! ये श्रमण और ब्राह्मण इन्हीं बासठ कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक, पूर्वान्त और अपरान्त मत माननेवाले तथा पूर्वान्त और अपरान्त के आधार पर अनेक व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं। इनके अतिरिक्त और दूसरा कोई कारण नहीं है।
"तथागत उन सभी कारणों को जानते हैं, उन कारणों के प्रमाण और प्रकार को जानते हैं, और उससे अधिक भी जानते हैं; जानकर भी मैं जानता हूँ', ऐसा अभिमान नहीं करते ।
“वेदनाओंकी निवृत्ति, उत्पत्ति (समुदय), अन्त, आस्वाद, दोष और लिप्तता को ठीक-ठीक जानकर तथागत अनासक्त होकर मुक्त रहते हैं। भिक्षुओ ! ये धर्म गम्भीर, दुर्जेय, दुरनुबोध, शान्त, उत्तम, तर्क से परे, निपुण और पण्डितों के समझने के योग्य हैं, जिन्हें तथागत स्वयं जानकर और साक्षात्कर कहते हैं, जिसे तथागत के यथार्थ गुण को कहनेवाले कहते हैं ।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से नित्यतावादी हैं तथा आत्मा और लोक को नित्य कहते हैं, वह उन सांसारिक वेदनाओं को भोगनेवाले तथा तृष्णा से चकित उन अज्ञ श्रमणों और ब्राह्मणों की चंचलता मात्र है।
"भिक्षुओ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से अंशतः नित्यतावादी और अंशतः अनित्यतावादी हैं, जो ० चार कारणों से आत्मा और लोक को अन्तानन्तिक (सान्त भी और अनन्त भी) मानते हैं; जो चार कारणों से प्रश्नों के पूछे जाने पर कोई स्थिर बात नहीं कहते; जो अकारणवादी हो दो कारणों से आत्मा और लोक को अकारण उत्पन्न मानते हैं; जो श्रमण और ब्राह्मण इन अट्ठारह कारणों से पूर्वान्त के आधार पर नाना प्रकार के व्यवहार के शब्द को प्रयोग करते हैं।
जो श्रमण और ब्राह्मण सोलह कारणों से मरने के बाद आत्मा संज्ञा वाला रहती है, ऐसा मानते; जो श्रमण और ब्राह्मण आठ कारणों से मरनेके बाद आत्मा संज्ञावाली नहीं रहता', ऐसा मानते हैं, जो आठ कारणों से आत्मा न तो संज्ञावाली और न नहीं-संज्ञावाली रहती है, ऐसा मानते हैं; जो सात कारणों से उच्छेदवादी हैं; जो पाँच कारणों से दृष्टधर्मनिर्वाणवादी हैं। जो इन चवालीस कारणों से अपरान्त के आधार पर नाना प्रकार के व्यवहार के शब्दों का प्रयोग करते हैं।
"जो श्रमण और ब्राह्मण इन बासठ कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक ० पूर्वान्त और अपरान्त के आधार पर नाना प्रकार के व्यवहार के शब्दोंका प्रयोग करते हैं, वह सभी उन सांसारिक वेदनाओं को भोगनेवाले तथा तृष्णा से चकित उन अज्ञ श्रमणों और ब्राह्मणों की चंचलता मात्र है ।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं वह स्पर्श के होने से ऐसा मानते हैं । जो श्रमण और ब्राह्मण इन बासठ कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक हैं, वह स्पर्श के ही होने से ऐसा मानते हैं ।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं, उन्हें स्पर्श के बिना ही वेदना होती है, ऐसी बात नहीं हैं ०।
"भिक्षुओ ! जो श्रमण और ब्राह्मण चार कारणों से पूर्वान्तकल्पिक और अपरान्तकल्पिक हैं, वे सभी छै स्पर्शायतनों (विषयों) से स्पर्श करके वेदना को अनुभव करते हैं। उनकी वेदना के कारण तृष्णा, तृष्णा से उपादान, उपादान से भव, भव से जन्म और जन्म से जरा, मरण, शोक, रोनापीटना, दुःख, दौर्मनस्य और परेशानी होती है।
भिक्षुओ ! जब भिक्षु छै स्पर्शायतनों के समुदय, अस्त होने, आस्वाद, दोष और विराग को यथार्थतः जान लेता है, तब वह इनसे ऊपर की बातों को भी जान लेता है।
"भिक्षुओ ! ० वे सभी इन्हीं बासठ कारणों के जाल में फंसकर वहीं बंधे रहते हैं। भिक्षुओ ! जैसे कोई दक्ष मल्लाह, या मल्लाह का लडको छोटे-छोटे छेदबाले जाल से सारे जलाशय को हींडे; उसके मन में ऐसा हो--इस जलाशय में जो अच्छी-अच्छी मछलियाँ हैं; सभी जाल में फंसकर बझ गई हैं, उसी तरह से "भिक्षुओ ! भव-तृष्णा(जन्म के लोभ) के उच्छिन्न हो जाने पर भी तथागत का शरीर रहता है। जब तक उनका शरीर रहता है, तभी तक उन्हें मनुष्य और देवता देख सकते हैं । शरीर-पात हो जाने के बाद उनके जीवन-प्रवाह निरुद्ध हो जाने से उन्हें देव और मनुष्य नहीं देख सकते। भिक्षुओ ! जैसे किसी आम के गुच्छे की ढेप के टूट जानेपर उस ढेप से लगे सभी आम नीचे आ गिरते हैं, उसी तरह भव-तृष्णा के छिन्न हो जानेपर तथागत का शरीर होता है।"
भगवान्के इतना कहने पर आयुष्मान आनन्द ने भगवान्से यह कहा--"भन्ते ! आश्चर्य है, अद्भुत है। भन्ते ! आपके इस उपदेश का नाम क्या हो ।”
“आनन्द ! तो तुम इस धर्म-उपदेश को ‘अर्थजाल' भी कह सकते हो, धर्मजाल भी, ब्रह्मजाल भी, दृष्टिजाल भी, तथा अलौकिक संग्रामविजय भी कह सकते हो।"
भगवान्ने यह कहा। उन भिक्षुओं ने भी अनुकूल मन से भगवान्के कथन का अभिनन्दन किया। भगवान के इस प्रकार विस्तारपूर्वक कहने पर दस हजार ब्रह्मांड प्रकंपित हो उठे।
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*उस समय के खेल । उस समय के जूये।
* अमराविषेप नामक छोटी-छोटी मछलियाँ बळी चंचल होती हैं। जिस तरह बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे हाथ में नहीं आती हैं, उसी तरह इनके सिद्धान्त मैं भी कोई स्थिरता नहीं।
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