54
🍁मज्झिम निकाय🍁
🔱मज्झिम-पण्णासक🔱
🛐गहपतिवग्ग🛐
🍃54-पोतलिय-सुत्त (2.1.4)🍃
👂ऐसा मैंने सुना--
🚶एक समय भगवान अंगुत्तराप-(जनपद) में अंगुत्तरापों के आपण नामक निगम (=कस्बे) में विहार करते थे।
🚶तब भगवान पूर्वाह्न समय (चीवर) पहनकर पात्र-चीवर ले, भिक्खाचार के लिए आपण में प्रविष्ट हुए। आपण में पिंडचार करके पिंडपात (=भोजन) समाप्तकर, एक वन-खण्ड में दिन के विहार के लिए गए। भीतर जाकर दिन के विहार के लिए एक वृक्ष के नीचे बैठे। पोतलिय गृहपति भी निवासन (=पोशाक) प्रावरण (=चादर) पहने, छाता जूता धारण किए, जंघा-विहार (=चहल-कदमी) के लिए टहलता, जहां वह वनखण्ड था वहां गया। वनखण्ड में घुसकर, जहां भगवान थे, वहां पहुंचा, जाकर भगवान के साथ सम्मोदन कर एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े हुए पोतलिय गृहपति से भगवान ने यह कहा👄-
🖐“गहपति! आसन विद्यमान है, यदि चाहते हो, तो बैठो।
😷ऐसा कहने पर पोतलिय गहपति - 'गहपति (=गृहस्थ, वैश्य) कहकर मुझे श्रमण गोतम पुकारता है'- कुपित और अ-सन्तुष्ट हो चुप रहा।
दूसरी बार भी ।। तीसरी बार भी।
तब पोतलिय गहपति ने - 'गृहपति कहकर' -कुपित और असन्तुष्ट हो भगवान से कहा👄-
.👉 “हे गोतम! आपको यह उचित नहीं, आपको यह योग्य नहीं, जो मुझे गहपति कहकर पुकारते हैं।"
☝"गहपति ! तेरे वही आकार हैं; वही लिंग हैं; वही निमित्त (=चिह्न) हैं, जैसे कि गहपति के।"
🙏"चूंकि हे गोतम!
मैंने सारे कर्मान्त (=खेती) छोड़ दिए,
सारे व्यवहार ( व्यापार, वाणिज्य) समाप्त कर दिए।
हे गोतम! मेरे पास जो धन, धान्य, रजत (=चांदी), जातरूप (सोना) था,
सब पुत्रों को तर्का दे दिया।
सो मैं (खेती आदि में) न ताकीद करनेवाला, कटु कहनेवाला हूं; सिर्फ खाने-पहनने भर से वास्ता रखनेवाला (हो) , विहरता हूं।"
☝"गहपति ! तू जिस प्रकार व्यवहार के उच्छेद को कहता है। अरियों (आर्यों) के विनय में व्यवहार-उच्छेद, (इससे) दूसरी ही प्रकार होता है।"
🙏"तो भन्ते! अरिय-विनय में व्यवहार-उच्छेद कैसे होता है? अच्छा! भन्ते! भगवान! मुझे उस प्रकार का धम्म उपदेश करें जैसे कि अरिय -विनय में व्यवहार-उच्छेद होता है।"
☝"तो गहपति ! सुनो, अच्छी तरह मन में करो; कहता हूं।"
🙏"अच्छा भन्ते!" कह पोतलिय गहपति ने भगवान को उत्तर दिया।
☝भगवान ने कहा-
🌷"गहपति ! अरिय-विनय (=अरिय - धम्म, अरिय - नियम) में ये आठ धम्म व्यवहार-उच्छेद करने के लिए हैं। कौन से आठ? --
🔱(1) अ-प्राणातिपात (=अहिंसा) के लिए,
प्राणातिपात छोड़ना चाहिए।
🔱(2) दिया (हुआ दान) लेने (=दिन्नादान) के
लिए, अ-दिन्नादान (=चोरी, न दिया लेना)
छोड़ना चाहिए।
🔱(3) सत्य बोलने के लिए,
मृषावाद (मिथ्यावाद) छोड़ना चाहिए।
🔱(4) अ-पिशुनवचन (=न चुगली करने)
के लिए, पिशुन-वचन छोड़ना चाहिए।
🔱(5) अ-गृद्ध-लोभ (=निर्लोभ) के लिए,
गृद्ध-लोभ छोड़ना चाहिए।
🔱(6) अ-निन्दा-दोष के लिए,
निन्दा छोड़नी चाहिए।
🔱(7) अ-क्रोध उपायास (=परेशानी) के लिए,
क्रोध-उपायास छोड़ना चाहिए।
🔱(8) अन्-अतिमान के लिए,
अतिमान (=अभिमान) को छोड़ना चाहिए।
☝गहपति ! संक्षिप्त से कहे, विस्तार से न विभाजित किए, ये आठ धम्म, अरिय-विनय में व्यवहार-उच्छेद करने के लिए हैं।"
🙏"भन्ते! भगवान ने जो मुझे विस्तार से न विभाजित किए, संक्षिप्त से, आठ धम्म...कहे। अच्छा हो भन्ते! (यदि) भगवान अनुकम्पा कर (उन्हें) विस्तार से विभाजित करें।" .
☝"तो गहपति ! सुनो, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूं।"
🙏“अच्छा भन्ते!” कह पोतलिय गहपति ने भगवान् को उत्तर दिया।
👄भगवान् बोले - "गहपति!
☝'अ-प्राणातिपात के लिए प्राणातिपात छोड़ना चाहिए', यह जो कहा, किस कारण से कहा? -
गहपति ! अरिय-सावक (आर्यश्रावक) ऐसा सोचता है -
'जिन संयोजनों के कारण मुझे प्राणातिपाती होना है, उन्हीं संयोजनों को छोड़ने के लिए, उच्छेद के लिए मैं लगा हूं और मैं ही प्राणातिपाती हो गया !
प्राणातिपात के कारण, आत्मा (=अपना चित्त) भी मुझे धिक्कारता है।
प्राणातिपात के कारण, विज्ञ लोग भी जानकर धिक्कारते हैं।
प्राणातिपात के कारण, काया छोड़ने पर, मरने के बाद, दुर्गति भी होनी है।
यही संयोजन (=बंधन) है,
यही नीवरण (=ढक्कन) है,
जो कि प्राणातिपात के कारण उत्पन्न होनेवाले विघात-परिदाह (=द्वेष-जलन) और आसव (=चित्त-दोष) प्राणातिपात से विरत को नहीं उत्पन्न होते।
'अ-प्राणातिपात के लिए, प्राणातिपात छोड़ना चाहिए' यह जो कहा, वह इसी कारण से कहा।"
☝"दिन्नादान के लिए अदिन्नादान छोड़ना चाहिए, यह जो कहा, किस कारण से कहा? गहपति! अरिय-सावक ऐसा सोचता है,
जिन संयोजनों के हेतु मुझे अदिन्नादायी (=बिना दिया लेनेवाले) होना है, उन्हीं संयोजनों के छोड़ने के लिए, उच्छेद करने के लिए, मैं लगा हआ हूं और मैं ही अ-दिन्नादायी हो गया!
अ-दिन्नादान के कारण चित्त भी मुझे धिक्कारता है।
अ-दिन्नादान के कराण विज्ञ लोग भी जानकर धिक्कारते हैं।
अ-दिन्नादान के कारण काया छोडने पर मरने के बाद दुर्गति भी होनी है।
यही संयोजन है, यही नीवरण है,
जो कि यह अ-दिन्नादान।
अदिन्नादान के कारण विघात (=पीड़ा), परिदाह (जलन) (और) आसव उत्पन्न होते हैं;
अ-दिन्नादान-विरत को नहीं होते।
'दिन्नादान के लिए अ-दिन्नादान छोड़ना चाहिए, यह जो कहा, वह इसी कारण कहा।"
☝“अ-पिशुन-वचन के लिए...।"
☝“अ-गृद्ध-लोभ के लिए...।"
☝“अ-निन्दा-रोष के लिए...।"
☝“अ-क्रोध-उपायास के लिए...।"
☝“अन्-अतिमान के लिए...।"
☝“गहपति अरिय-विनय में ये आठ! संक्षिप्त से कहे, विस्तार से विभाजित, व्यवहार-उच्छेद करनेवाले हैं। ...(किंतु इनसे) सर्वथा सब कुछ व्यवहार का उच्छेद नहीं होता।"
🙏“तो कैसे भन्ते! अरिय-विनय में सर्वथा सब कुछ व्यवहार-उच्छेद होता है? अच्छा हो भन्ते! भगवान् मुझे वैसे धम्म का उपदेश करें, जैसे कि अरिय-विनय में सर्वथा सब कुछ व्यवहार का उच्छेद होता है?"
☝"तो गहपति ! सुनो, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूं।"
🙏“अच्छा भन्ते!" ... । ...।
☝“गहपति! जैसे भूख से अति-दुर्बल कुक्कुर गो-घातक के सूना (=मांस काटने के पीढ़े) के पास खड़ा हो। चतुर गो-घातक या गोघातक का अन्तेवासी उसको मांस-रहित लहू में सनी... हड्डी फेंक दे। तो क्या मानते हो, गहपति ! क्या वह कुक्कुर उस हड्डी... को खाकर भूख की दुर्बलता को हटा सकता है?"
🙏“नहीं, भन्ते!”
☝“सो किस हेतु?”
🙏"भन्ते! वह लहू में चुपड़ी मांस-रहित हड्डी है। वह कुक्कुर केवल परेशानी पीड़ा का ही भागी होगा।"
☝“ऐसे ही गहपति ! अरिय-सावक सोचता है-हड्डी के समान भगवान् ने भोगों को बहुत दुख, बहुत परेशानीवाला कहा है, इनमें बहुत-सी बुराइयां हैं। अतः इसको यथार्थ से, अच्छी तरह प्रज्ञा से, देखकर, जो यह अनेकता वाली अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड. जो यह एकान्ततावाली एकान्त में लगी (उपेक्षा) है, जिसमें लोक के आमिष (=आसक्ति) के उपादान (ग्रहण स्वीकार) सर्वथा ही टूट जाते हैं; उसी उपेक्षा की भावना करता है।"
☝“जैसे गहपति ! गिद्ध, कौवा या चील मांस के टुकड़े को लेकर उड़े, उसको गिद्ध भी, कौवे भी, चील भी पीछे उड़-उड़कर नोचें, खसोटें। तो क्या मानता है, गहपति ! वह गिद्ध, कौवे या चील, यदि शीघ्र ही उस मांस के टुकड़े को न छोड़ दें, तो क्या वह उसके कारण मरण के या मरणान्त दुख को पाएगा न?”
🙏 “ऐसा ही, भन्ते!"
☝“ऐसे ही, गहपति ! अरिय-सावक सोचता है-भगवान् ने मांस के टुकड़े मांस-पेशी की भांति कामों को बहुत दुखवाला बहुत परेशानीवाला कहा है; इनमें बहुत सी बुराइयां हैं। इस प्रकार इसको अच्छी तरह प्रज्ञा से देखकर, जो यह अनेकता की, अनेक में लगी उपेक्षा है, उसे छोड़, जो यह एकान्तता की एकान्त में लगी उपेक्षा है; जिसमें लोकामिष के उपादान (=ग्रहण) सर्वथा ही उच्छिन्न हो जाते हैं; उसी उपेक्षा की भावना करता है।"
☝"जैसे गहपति ! पुरुष तृण की उल्का (=मशाल, लुकारी) को ले, हवा के रुख जाए। तो क्या मानते हो, गहपति ! यदि वह पुरुष शीघ्र ही उस तृण-उल्का को न छोड़ दे तो (क्या) वह तृण-उल्का उसकी हथेली को (न) जला देगी, या बांह को (न) जला देगी, या दूसरे अंग-प्रत्यंग को न जला देगी...?"
🙏“ऐसा ही, भन्ते!"
☝"ऐसे ही, गहपति ! अरिय-सावक सोचता है-तृण-उल्का की भांति बहुत दुखवाले बहुत परेशानीवाले हैं ।।"
☝"जैसे कि गहपति ! धूम-रहित, अर्चि (=लौ)-रहित अंगार का (=भउर, अग्नि-चूण) हो।
तब जीवन-इच्छुक, मरण-अनिच्छुक,
सुख-इच्छुक, दुख-अनिच्छुक पुरुष आवे; उसको दो बलवान् पुरुष अनेक बाहुओं से पकड़कर अंगारका में डाल दें। तो क्या मानते हो गहपति ! क्या वह पुरुष इस प्रकार चिता ही में शरीर को (नहीं) डालेगा?"
🙏"हां भन्ते!"
☝"सो किस हेतु?"
🙏"भन्ते! उस पुरुष को मालूम है, यदि मैं इन अंगारकाओं में गिरूंगा, तो उसके कारण मरूंगा या मरणान्त दुख को पाऊंगा।"
☝"ऐसे ही गहपति ! अरिय-सावक यह सोचता है - अंगारका की भांति दुखद। इसमें बहुत बुराइयां हैं।।
☝"जैसे गहपति !
पुरुष आराम की रमणीयता -युक्त,
वन-रमणीयता-युक्त,
भूमि-रमणीयता-युक्त,
पुष्करिणी-रमणीयता-युक्त स्वप्न को देखे।
सो जागने पर कुछ न देखे।
ऐसे ही गहपति।! अरिय-सावक यह सोचता है भगवान् ने स्वप्न-समान (=स्वप्नोपम) बहुत दुखद... कहा है।...।"
☝"जैसे कि गहपति !
(किसी) पुरुष (के पास) मंगनी के भोग, यान या पुरुष के उत्तम मणि-कुण्डल हों।
वह उन मंगनी के भोगों के साथ... बाजार में जाए। उसको देखकर आदमी कहे -
कैसा भोग-संपन्न पुरुष है!
भोगी लोग ऐसे ही भोग का उपभोग करते हैं!! सो उसके मालिक (=स्वामी) जहां देखें वहां कनात लगा दें। तो क्या मानते हो, गहपति! क्या उस पुरुष को दूसरा (भाव समझना) युक्त है?”
🙏“हां, भन्ते!”
☝“सो किस हेतु?”
🙏“(क्योंकि जेवरों के) मालिक कनात घेर देते हैं।”
☝“ऐसे ही गहपति ! अरिय-सावक ऐसा सोचता है - मंगनी की चीज के समान (=याचित-कूपम)... कहा है।...।"
☝“जैसे गहपति ! ग्राम या निगम से अ-दूर, भारी वन-खण्ड हो। वहां फल-सम्पन्न-उत्पन्न-फल वृक्ष हो; कोई फल भूमि पर न गिरा हो। तब फल-इच्छुक, फल-गवेषक-फल-खोजी पुरुष घमते हुए आवे। वह उस वन के भीतर जाकर, उस फल-संपन्न वृक्ष को देखे। उसको यह हो-यह वृक्ष फल-सम्पन्न ... है, कोई फल भूमि पर नहीं गिरा है; मैं वृक्ष पर चढ़ना जानता हूं। क्यों न मैं चढ़कर इच्छा-भर खाऊं, और फांड़ (=उच्हंग, उत्संग) भर ले चलूं।
तब दूसरा फल-इच्छुक, फल-गवेषी फल खोजी, पुरुष घूमता हुआ तेज कुल्हाड़ा लिए उस वनखण्ड के भीतर जाकर, उस वृक्ष को देखे। उसको ऐसा हो-यह वृक्ष फल-सम्पन्न... है, मैं वृक्ष पर चढ़ना नहीं जानता; क्यों न इस वृक्ष को जड़ से काटकर इच्छा भर खाऊं, और फांड भर ले चलूं। वह उस वृक्ष को जड़ से काटे।
तो क्या मानते हो, गहपति ! वह जो पुरुष पेड़ पर पहले चढ़ा था, यदि जल्दी ही न उतर आए, तो (क्या) वह गिरता हुआ वृक्ष उसके हाथ को (न) तोड़ देगा, पैर को (न) तोड़ देगा, या दूसरे अंग-प्रत्यंग को (न) तोड़ देगा? वह उसके कारण क्या मरण को (न) प्राप्त होगा, या मरणान्त दुख को (न) प्राप्त होगा?"
🙏"हां, भन्ते!"
☝"ऐसे ही गहपति !
अरिय-सावक सोचता है -
वृक्ष-फल समान कामों को कहा है।
इनमें बहुत सी बुराइयां (=आदिनव) हैं।
इस प्रकार इसको यथार्थतः,
अच्छी प्रकार, प्रज्ञा से देखकर,
जो यह अनेकतावाली अनेक में लगी उपेक्षा है,
उसे छोड़;
जो यह एकान्त की एकान्त में में लगी उपेक्षा
है, जिसमें लोक-अमिष का उपादान (=ग्रहण)
सर्वथा ही उच्छिन्न हो जाता है,
उसी उपेक्षा की भावना करता है।"
☝“सो वह गहपति !
अरिय-सावक इसी अनुपम उपेक्षा,
सति (स्मृति) की पारिशुद्धि (=स्मरण को
शुद्धि करनेवाली उपेक्षा) को पाकर,
अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों (=पूर्व जन्मों,
पूर्व अवस्थाओं) को स्मरण करता है;
जैसे कि एक जन्म भी, दो जन्म भी,
तीन जन्म भी ...
इस प्रकार आकार-सहित उद्देश (=नाम)-
सहित, अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों को
स्मरण करता है।"
☝“सो वह गहपति ! अरिय-सावक इसी
अनुपम उपेक्षा स्मृति-पारिशुद्धि को पाकर,
विशुद्ध अ-मानुष दिव्य-चक्षु से,
मरते उत्पन्न होते, नीच-ऊंच,
सुवर्ण-दुर्वर्ण, सुगत-दुर्गत...
कर्मानुसार (फल को) प्राप्त,
प्राणियों को जानता है।"
☝“सो वह गहपति ! अरिय-सावक इसी
अनुपम उपेक्षा स्मृति-पारिशुद्धि को पाकर,
इसी जन्म में आसवों (=चित्त-दोषों) के
क्षय से, अन्-आस्रव चित्त-विमुक्ति को
जानकर, प्राप्त कर, विहरता है।
गहपति ! अरिय-विनय में इस प्रकार ...
सर्वथा सभी कुछ सब व्यवहार का उच्छेद
होता है।
तो क्या मानता है, गहपति ! जिस प्रकार
अरिय-विनय में ... सर्वथा सभी कुछ
व्यवहार-उच्छेद होता है,
क्या तू वैसा व्यवहार-समुच्छेद अपने में
देखता है?"
🙏" भन्ते ! कहां मैं और कहां अरिय विनय
में... व्यवहार-समुच्छेद!!
भन्ते ! पहले अन्-आजानीय अन्य-तैर्थिक
(=पंथाई) परिव्राजकों को, हम आजानीय
(=परिशुद्ध, शुद्धजाति के) समझते थे,
अनाजानीय होनेवालों को आजानीय का
भोजन कराते थे,
अन-आजानीय होनेवालों को आजानीय -
स्थान पर स्थापित करते थे।
आजानीय भिक्खुओं को अन-आजानीय
समझते थे,
आजानीय होनेवालों को अन्-आजानीय
भोजन कराते थे,
अजानीय होनेवालों को अन्-आजानीय
स्थान पर रखते थे।
भन्ते! अब हम अन्-आजानीय होते अन्य
तैर्थिक परिव्राजकों को अन्-आजानीय
जानेंगे...
अन्-आजानीय भोजन कराएंगे, ...
अन् आजानीय स्थान पर स्थापित करेंगे।"
"भन्ते! अब हम आजानीय होते भिक्खुओं
को आजानीय समझेंगे, ...
आजानीय भोजन कराएंगे, ...
आजानीय स्थान पर रखेंगे।
अहो! भन्ते!
भगवान् ने मुझे समणों में समण-प्रेम पैदा
कर दिया,
समणों (=साधुओं) में समण-प्रसाद
(=श्रमणों के प्रति प्रसन्नता),
...समण-गौरव... ।"
"आश्चर्य! हे गौतम! आश्चर्य! हे गौतम! जैसे औंधे को सीधा कर दे, ढँके को उखाड़ दे, भूले को रास्ता बतला दे, अंधकार में तेल का प्रदीप रख दे -- जिसमें कि आँख वाले रूप को देखें, ऐसे ही आप गौतम ने अनेक प्रकार (=पलियाय/पर्याय) से धम्म को प्रकाशित किया | यह हम आप गौतम को शरण जाते हैं, धम्म और भिक्खु-संघ की भी। आज से आप गौतम हमें जीवन-पर्यन्त, अंजलिबद्ध, शरणागत उपासक स्वीकार करें।"
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
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