🎯 (मौनेयसुत्त, भाब्रू सिलालेख)
सुत्तनिपात:- नाळकसुत्त ( ३,११)
(असित ऋषि के भांजे नाळ्क को भगवान् बुद्ध की धम्म उपदेशना )
☀ असित ऋषि ने (तुषित देवलोक में) दिन के विहार के लिए जाकर देखा कि सभी देवता आनन्दित है, प्रसन्न हैं। देवता और इन्द्र सत्कार पूर्वक सुद्ध वस्त्र धारण किए हुए हैं तथा वस्त्र लेकर अत्यधिक स्तुति कर रहे हैं ।।१।।
🌷देवताओं को प्रसन्न और हर्षित मन देखकर विचार कर (असित ऋषि ने) वहाँ यह कहा-
👇“किस कारण देवगण अत्यन्त प्रसन्न हो वस्त्र लेकर घूम रहा है? क्या कारण है? ।।२।।
जिस समय असुरों से युद्ध हुआ था, देवताओं की विजय हुई थी और असुर पराजित हुए थे, उस समय भी ऐसा रोमांचकारी आनन्द नहीं मनाया गया था,
किस अद्भुत बात को देखने के लिए देवता प्रमुदित हैं? ।।३।।
देवता चिल्लाते हैं, गाते है, बजाते हैं, भुजाओं को फड़काते हैं और नाचते हैं। मैं मेरू शिखर पर रहने वाले आप लोगों से पूछता हूँ, मार्ष! मेरे संशय को शीध्र दूर करें ।।४।।
⚜ “वह अतुलनीय, श्रेष्ठ-रत्न , बोधिसत्व मनुष्यों के हित सुख के लिए मनुष्य लोक में साक्य /शाक्य जनपद के लुम्बिनी ग्राम में उत्पन्न हुए हैं, इसीलिए हम लोग अत्याधिक तुष्ट और प्रसन्न हैं।।५।।
☸ वह सब प्राणियों में उत्तम , श्रेष्ठ-व्यक्ति , सब मनुष्यों में श्रेष्ठ, सारी प्रजा में उत्तम जिस प्रकार बलवान् मृगराज सिंह गर्जना करता है उसी प्रकार ऋषिवन (=ऋषिपत्तन) में (धम्म चक्क ) चक्र का प्रवर्तन करेंगें।।६।।
उस बात को सुनकर व (असित ऋषि ) शीध्र शुद्दोदन के भवन में आए। वहाँ बैठकर शाक्यों से यह कहे- “कुमार कहाँ है? मैं भी देखना चाहता हूँ" ।।७।।
🌺 तब सुन्दर ढंग से निर्मित , चमकदार, स्वर्ण के समान कान्ति से दमकते हुए उत्तम रूपवान् पुत्र को शाक्यों ने असित ऋषि को दिखालया।।८।।
☀ जलती आग, आकाश में निर्मल चन्द्रमा और मेध रहित शरद में सूर्य के समान तपते हुए कुमार ोक देखकर ऋषि आनन्दित हो गए और उन्हे विपुल प्रीति उतपन्न हो आई ।।९।।
🌺आकाश में देवताओं ने अनेक शाखा और सहस्त्र मण्डल वाले छत्र को धारण किया, स्वर्ण दण्ड लगे चामर (=चँवर) डुलाये, किन्तु चामर और छत्र को धारण करने वाले दिखाई नहीं दे रहे थे ।।१०।।
🌺 जटाधारी असित नामक ऋषि ने पीतवर्ण कम्बल में रखी स्वर्ण मुद्रा के समान सुन्दर , ऊपर श्वेत छत्रधारी कुमार को देख हर्षित और प्रमुदित मन हो उन्हें ग्रहण किया ।।११।।
☀उत्तम साक्य /शाक्य कुमार को ग्रहण कर, लक्षण शास्त्र और मन्त्र-पारंगत जिज्ञासु ऋषि ने प्रसन्न मन से यह बात कही- “यह सर्वोत्तम हैं। मनुष्यों में उत्तम है!” ।।१२।।
🌺तब अपने (परलोक-) गमन का स्मरण करते हुए उनके नेत्रों से आँसू पघरने लगे। शाक्यों ने ऋषि को रोता हुआ देख कहा- “क्या कुमार के लिए कोई विध्न तो नहीं होगा?” ।।१३।।
🌷ऋषि ने शाक्यों को दुःखित देखकर कहा-- “मैं कुमार का कोई अहित नहीं देखता और न उनकार कोई विध्न होगा। यह साधारण मनुष्य नहीं है।”आप लोग प्रसन्न हों ।।१४।।
⚜उत्तम , विसुद्धदर्शी /विशुद्धदर्शी यह कुमार सम्बोधि को प्राप्त करेंगे और बहुजन के प्रति अनुकम्पा कर उनके हित के लिए कर उनके हितके लिए धम्मचक्क का प्रवर्तन करेंगे, उनका ब्रह्मचर्य फैलेगा।।१५।।
🌷यहाँ मेरी आयु अधिक शेष नहीं है। इस बीच में ही मेरी मृत्यु हो जायेगी, सो मैं असदृश पराक्रमी के धम्म को नहीं सुन पाऊँगा, इसीलिए मैं आतुर हूँ, कष्ठ में हूँ और दुःखित हूँ।।१६।।
☀ साक्यों/शाक्यों को विपुल आनन्द देकर वह ब्रह्मचारी अन्तःपुर से निकेल। उन्होनें अपने भांजे पर अनुकम्पा करके उसे असदृश पराक्रमी के धम्म में लगाया।।१७।।
☸“सम्बोधि प्राप्त, धम्म मग्ग/ मार्ग का उपदेश देने वाले 'बुद्ध’ का घोष, जब दूसरे से सुनना तो उनके पास जा, धम्म के विषय में पूछकर उन भगवान् के पास ब्रह्मचर्य का पालन करना”।।१८।।
🌺हितैषीभाव से स्थिर , उत्तम , विसुद्ध/ विशुद्ध भविष्य-द्रष्टा से उपदिष्ट पुण्यवान् उन नालक ने जिन (=बुद्ध) की प्रतीक्षा में तपस्वी हो इन्द्रियों की रक्षा की ।।१९।।
☀धम्म चक्क-प्रवर्तन के समय बुद्ध का घोष सुनकर, पास जा , श्रेष्ठ ऋषि को देख धर्म के विष में असित के सिखाये प्रश्नों को उत्तम प्रज्ञ से पूछा ।।२०।।
वस्तुगाथा समाप्त।
🌷नालक- मैनें यह बात असित (ऋषि) से यथार्थ रुप से जानीं थी। सभी धम्मों के पारंगत हे गोतम ! मैं उसे आपसे पूछ रहा हूँ ।।२१।।
☀बेघर हो भिक्खा /दान पर जीने वाले मुझे प्रश्न करने पर उत्तम पद के विषय में मुनि बतलायें ।।२२।।
☸ भगवान्- दुष्कर और कठिनता से प्राप्त ज्ञान मार्ग की व्याख्या करुँगा। मैं अब उसके विषय में तुम्हें बताऊँगा , इसलिए तुम स्थिर चित्त और दृढ़ हो जाओ ।।२३।।
🌺ग्राम में जो वन्दना करते हैं या जो निन्दा करते हैं, उनके प्रति समान भाव रखे, मन को दूषित न होने दे, शान्त और विनीत होकर विचरण करें।।२४।।
⚜दावाग्नि की ज्वाला के समान नाना प्रकार के आलम्बन (=आकर्षण) उपस्थित होते हैं। स्त्रियाँ मुनि को प्रलोभित करती हैं, उनके प्रिति तुम प्रलोभित मत हो ।।२५।।
☀मैथुन धम्म से विरत हो अच्छे-बुरे काम-भोगों को त्यागकर स्थावर और जंगम प्राणियों के प्रति विरोघभाव या आसत्ति रहित होवे।।२६।।
🌷जिस इच्चा और लोभ में पृथक् जन प्राणी आसक्त रहता है उसे त्यागकर चक्खुमान विचरण करे और इस नरक को पारकर जाय ।।२८।।
🌺जो पेटू नहीं होता, मात्रा से भोजन करता है, अल्पेच्छ और लोभ रहित होता है, वही इच्छा से रहित सन्तोषी व्यक्ति शान्त होता है ।।२९।।
☀ पिण्डापात भिक्खा चारिका करके वह मुनि वन में जाय और पेड़ के नीचे जा आसन लगा कर बैठे ।।३०।।
🌷वन में रहते हुए वह धीर ध्यान तत्पर होवे , अपने को संतोष प्रदान कर पेड़ के नीचे ध्यान करे ।।३१।।
☸ तब रात्रि के बीतने पर प्रातः पिण्डापात भिक्खा चारिका के लिए गाँव में प्रवेश करेे वहाँ न तो किसी का निमंत्रण स्वीकार करे और न किसी के द्वारा गाँव से लाये गये भोजन को ।।३२।।
⚜ मुनि गाँव में आकर सहसा कुलों में विचरण न करे। चुपचाप रहकर पिण्डपात भिक्खा चारिका करे, संकेत करने वाली कोई बात न बोले ।।३३।।
☀यदि कुछ मिल जाय तो उत्तम है और न मिले तो भी ठीक है। एक स्थान पर स्थित वृक्ष के समान वह दोनों ही अवस्थाओं में समान रहता है ।।३४।।
🌺गूँगा न होते हुए भी गूंगे की भांति हाथ में पिण्डापात्र (भोजनपात्र ) पात्र लेकर विचरण करते हुए अल्प दान का अनादर न करे और न तो दाता की निन्दा करे ।।३५।।
☀समण (=भगवान् बुद्ध) द्वारा अच्छे-बुरे मार्ग बतलाये गए हैं। लोग दो बार संसार-सागर के पार नहीं जाते और न तो इस पार को एक बारगी ही प्राप्त किया जा सकता है ।।३६।।
🌷जिसमें तण्हा नहीं है, जिस भिक्खु का (भव-) स्रोत नष्ट हो गया है , जो कृत्या-कृत्य से परे है, उसे किसी प्रकार का संताप नहीं होता ।।३७।।
⚜मैं तुम्हें ज्ञानयोग (=मौनेय) को बातऊँगा। वह छुरे की धार के समान होता है। तालू से जीभ सटा कर पेट के प्रति संयमी बने ।।३८।।
☸ आलस्य रहित चित्त वाला बने, बहुत चिन्तन न करे, क्लेश-रहित और अनासक्त हो ब्रह्मचर्य का पालन करे ।।३९।।
☀एक आसन पर रहन का अभ्यास करे और समणों की संगति करे। एकान्त वास मौनेय कहा जाता है। यदि अकेले विहार करेगा तो दसों दिशाओं को प्रकाशित करेगा ।।४०।।
☸ध्यानी ,विषय-वासना-त्यागी धीरों के धोष को सुनकर श्रद्धालु व्यक्ति (पाप कम्म करने में) लज्जा करे और (पुण्य कम्मों के करने में ) श्रद्धा को अधिकाधिक बढ़ावें ।।४१।।
☀छोटी नदियों और नालों के मध्य उसे नदी समझे । छोटी नदी शोर करते बहती है, किन्तु सागर चुपचाप बहता है ।।४२।।
☸जो समण अर्थयुक्त बहुत बात बोलता है, वह जानते हुए धम्म देशना( उपदेश ) देता है और जानते हुए ही बहुत बोलता है ।।४४।।
☀जो जानते हुए भी संयम के कारण जाने हुए (धम्म) तो बहुत नही कहता है वह मुनि मौनेय के योग्य है। उस मुनि ने मौनेय (=ज्ञान) को प्राप्त कर लिया है ।।४५।।
🌷नालकसुत्त समाप्त।🌷
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