Saturday, August 3, 2019

अलियवसाणि सुत्त (भाब्रूसिलालेख) 🌹🌹अरियवंस सुत्त (अंगुत्तर निकाय 4,3,8) 🌹🌹

अलियवसाणि सुत्त (भाब्रूसिलालेख) 

🌹🌹अरियवंस सुत्त
          (अंगुत्तर निकाय 4,3,8)
                                          🌹🌹



🌸1. भिक्षुओं!! ये चार अरियवंस (आर्य परम्परा से प्राप्त धर्म) अग्रगण्य हैं, दीर्घकालीन हैं, वंश परम्परा से प्राप्त हैं, पुराने (प्राचीनतम ) हैं, आज भी शुद्ध हैं, इनमें कोई कृत्रिमता (=मिलावट नहीं है), पहले भी शुद्ध थे। इनके विषय में किसी को न आज शंका है, न पहले कभी थी, तथा ये सभी श्रमण ब्राह्मण एवं विद्वानों द्वारा प्रशंसा प्राप्त हैं। कौन से चार ?

🌸 (1) “यहां, भिक्षुओं! कोई भिक्षु जिस किसी तरह के चीवर की प्राप्ति से संतुष्ट रहता है, साथ ही वह ऐसी संतुष्टि की प्रशंसा करता है। वह ऐसे वैसे चीवर से असंतोष या अनिच्छा या प्रतिकूलता प्रकट नही करता। अनुकूल चीवर न मिले तो उसे कोई परिसर्षणा (हैरानी) नहीं होती, तथा मनोनुकूल चीवर मिलने पर न उसमें कोई व्यामोह होता है न कोई आसक्ति ही होती है। अपितु उसके प्रति अनासक्त भाव रखता हुआ , उसमें साधनाविघ्नकारक दोष देखता हुआ, उससे छुटकारा पाने की इच्छा से ही उसका उपभोग करता है। ऐसा करता हुआ भी न उससे अपने में महत्त्व दिखाता है, न उसके कारण दूसरे का तिरस्कार ही करता है। जो साधक भिक्षु उस चीवर के प्रति ऐसे समीक्षण में दक्ष है, सावधान है, उत्साही है, वास्तविक समझ रखता है, अपनी अकिंचन स्थिति का सदा स्मरण रखता है; भिक्षुओं ! ऐसा भिक्षु ही इस प्राचीन अरियवंस में प्रतिष्ठित माना जाता है। (१)

🌸 (2) "फिर, भिक्षुओ! यहाँ कोई भिक्षु जिस किसी तरह के भिक्षादान (पिण्डपात) से संतुष्ट रहता है, साथ ही यह ऐसी संतुष्टि से प्रशंसा भी करता है । यह ऐसे-वैसे भिक्षादान के असन्तोष या अनिच्छा या प्रतिकूलता प्रकट नहीं करता। अनुकूल भिक्षा न मिले तो उसे कोई परितर्षणा (हैरानी) नहीं होती। तथा मोननुकूल भिक्षा मिलने पर उसे कोई व्यामोह होता है और न कोई आसक्ति ही। अपितु, उसके प्रति आनासक्त भाव रखता हुआ, उसमें साधना विध्नकारक दोष देखता हुआ उससे मुक्ति पाने की इच्छा से उसका उपयोग करता है। ऐसा करता हुआ भी, वह न उससे दूसरों के सम्मुख अपना महत्त्व दिखाता है, न उसके कारण , दूसरों का तिरस्कार ही करता है। जो साधक भिक्षु उस भिक्षादान के ऐसे समीक्षण में दक्ष है, सावधान है, उत्साही है, वास्तविक समझ रखता है। अपनी अकिंचन स्थिति का सदा स्मरण रखता है, भिक्खुओ! ऐसा भिक्खु ही उस प्राचीन अरियवंस में प्रतिष्ठित माना जाता है | (2)                     
 🌸 (3) भिक्षुओं! यहाँ कोई भिक्षु जिस किसी तरह के शय्यासन (मंच, ओढ़ना, बिछोना) से संतुष्ट रहता है, साथ ही वह ऐसी संतुष्टि की प्रशंसा भी करता है। यह ऐसे-वैसे शय्यासन से असंतोष अनिच्छा या प्रतिकुलता प्रकट नहीं करता। अनुकूल शय्यासन न मिले तो उसे कोई परितर्षणा (हैरानी) भी नहीं होती, तथा मोननुकूल शय्यासन मिलने पर उसके प्रति न कोई व्यामोह होता है, न कोई आसक्ति ही। अपितु, उसके प्रति अनासक्त भाव रखता हुआ, उसमें साधना-विध्नकारक दोष देखता हुआ उससे मुक्ति पाने की इच्छा से ही उसका उपयोग करता है। ऐसा करता हुआ भी , वह न उसके सहारे से दूसरों के सम्मुख अपना महत्त्व दिखाता है और न उसके कारण दूसरों का तिरस्कार ही करता है। जो साधक भिक्षु उस शय्यासन के ऐसे समीक्षण में दक्ष है, सावधान है, उत्साही है, वास्तविक समझदारी रखता है, अपनी अकिंचन स्थिति का स्मरण रखता है; भिक्षुओं ! ऐसे भिक्षु ही उस प्राचीन अरियवंस में प्रतिष्ठित माना जाता है। (३)

🌸 (4) “और फिर, भिक्षुओं ! कोई भावना में ही सुख मानता है अतः भावना में ही लगा रहता है ;  और अन्य कोई साधनारत भिक्षु प्रहाण (त्याग) में ही सुख मानता है, अतः प्रहाण में रत (लगा) रहता है। परन्तु ये दोनों प्रकार के भिक्षु अपनी भावनारति एवं प्रहाणरति के कारण न तो स्वयं को अन्य भिक्षुओं से उच्च मानते हैं, न दूसरे भिक्षुओं को इन गुणों के अभाव के कारण अपने से हीन समझते हैं। अपितु, वह अपनी धर्मसाधना में निरन्तर दक्ष, उत्साही, सम्प्रज्ञता (समझदार) एवं अकिंचन स्थिति का सतत स्मरण रखता है। भिक्षुओ ! ऐसा भिक्षु ही उस प्राचीन अरियपरम्पार के ज्ञान में प्रतिष्ठित माना जाता है। (४)

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    “ इस तरह भिक्षुओं! इन चार अरियवंसों से समन्वित भिक्षु भले ही पूर्व दिशा से, भले ही पश्चित दिशा से, भले ही उत्तर दिशा से या फिर दक्षिण दिशा से साधना करे वहाँ न उसको कोई अरूचि होती है न किसी प्रकार की अरूचि ही उसके पास पहुंच पाती है । वह किस कारण? वह इसलिए भिक्षुओं! कि वह साधना करते करते इतना धैर्यवान् हो जाता है कि वह इस अरूचि को सहन करने की स्थिति में आ जात है।
“ऐसे उस सर्वकर्मत्यागी को, स्वयं सब कुछ से भली भाँचि दूर हटे हुए को कौन पीछे हटाने का साहस कर सकता है! कसौटी चढ़े सुवर्ण के समान वह भी सबका प्रशंसापात्र ही होता है, उसकी निंदा कौन कर सकता है!  देवता भी उसकी प्रशंसा ही करते है। यहाँ तक कि ब्रह्मा भी उसके सर्वदा प्रशंसक ही बने रहते हैं।।"
               
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