Thursday, January 31, 2013

मुझे थोड़ी शांति दें...

 अशांत मन सम्राट वू ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः 'यह व्यक्ति अदभुत है, चमत्कार है। इसने कुछ किए बिना ही मेरे मन को शांत कर दिया...

कथा है कि चीन के सम्राट ने बोधिधर्म से पूछाः ‘मेरा चित्त अशांत है, बेचैन है। मेरे भीतर निरंतर अशांति मची रहती है। मुझे थोड़ी शांति दें या मुझे कोई गुप्त मंत्र बताएं कि कैसे मैं आंतरिक मौन को उपलब्ध होऊं।’’
बोधिधर्म ने सम्राट से कहाः ‘आप सुबह ब्रह्यमुहुर्त में यहां आ जाएं, चार बजे सुबह आ जाएं। जब यहां कोई भी न हो, जब मैं यहां अपने झोपड़े में अकेला होऊं, तब आ जाएं। और याद रहे, अपने अशांत चित्त को अपने साथ ले आएं; उसे घर पर ही न छोड़ आएं।’
सम्राट घबरा गया; उसने सोचा कि यह आदमी पागल है। यह कहता हैः ‘अपने अशांत चित्त को साथ लिए आना; उसे घर पर मत छोड़ आना। अन्यथा मैं शांत किसे करूंगा? मैं उसे जरूर शांत कर दूंगा, लेकिन उसे ले आना। यह बात स्मरण रहे।’ सम्राट घर गया, लेकिन पहले से भी ज्यादा अशांत होकर गया। उसने सोचा था कि यह आदमी संत है, ऋषि है, कोई मंत्र-तंत्र बता देगा। लेकिन यह जो कह रहा है वह तो बिलकुल बेकार की बात है, कोई अपने चित्त को घर पर कैसे छोड़ आ सकता है?
सम्राट रात भर सो न सका। बोधिधर्म की आंखें और जिस ढंग से उसने देखा था, पह सम्मोहित हो गया था। मानो कोई चुंबकीय शक्ति उसे अपनी और खींच रही हो। सारी रात उसे नींद नहीं आई। और चार बजे सुबह वह तैयार था। वह वस्तुतः नहीं जाना चाहता था, क्योंकि यह आदमी पागल मालूम पड़ता था। और इतने सबेरे जाना, अंधेरे में जाना, जब वहां कोई न होगा, खतरनाक था। यह आदमी कुछ भी कर सकता है। लेकिन फिर भी वह गया, क्योंकि वह बहुत प्रभावित भी था।
और बोधिधर्म ने पहली चीज क्या पूछी? वह अपने झोपड़े में डंडा लिए बैठा था। उसने कहाः‘अच्छा तो आ गए, तुम्हारा अशांत मन कहां है? उसे साथ लाए हो न? मैं उसे शांत करने को तैयार बैठा हूं।’ सम्राट ने कहाः ‘लेकिन यह कोई वस्तु नहीं है; मैं आपको दिखा नहीं सकता हूं। मैं इसे अपने हाथ में नहीं ले सकता; यह मेरे भीतर है।’
बोधिधर्म ने कहाः ‘बहुत अच्छा, अपनी आंखें बंद करो, और खोजने की चेष्टा करो कि चित्त कहां है। और जैसे ही तुम उसे पकड़ लो, आंखें खोलना और मुझे बताना मैं उसे शांत कर दूंगा।’
उस एकांत में और इस पागल व्यक्ति के साथ-सम्राट ने आंखें बंद कर लीं। उसने चेष्टा की, बहुत चेष्टा की। और वह बहुत भयभीत भी था, क्योंकि बोधिधर्म अपना डंडा लिए बैठा था, किसी भी क्षण चोट कर सकता था। सम्राट भीतर खोजने की कोशिश रहा। उसने सब जगह खोजा, प्राणों के कोने-कातर में झांका, खूब खोजा कि कहां है वह मन जो कि इतना अशांत है। और जितना ही उसने देखा उतना ही उसे बोध हुआ कि अशांति तो विलीन हो गई। उसने जितना ही खोजा उतना ही मन नहीं था, छाया की तरह मन खो गया था।
दो घंटे गुजर गए और उसे इसका पता भी नहीं था कि क्या हो रहा है। उसका चेहरा शांत हो गया; वह बुद्ध की प्रतिमा जैसा हो गया। और जब सूर्योदय होने लगा तो बोधिधर्म ने कहाः ‘अब आंखें खोलो। इतना पर्याप्त जैसा हो गया। और जब सूर्योदय होने लगा तो बोधिधर्म ने कहाः ‘अब आंखें खोलो। इतना पर्याप्त है। दो घंटे पर्याप्त से ज्यादा हैं। अब क्या तुम बता सकते हो कि चित्त कहा है?’
सम्राट ने आंख खोलीं। वह इतना शांत था जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। उसने बोधिधर्म के चरणों पर अपना सिर रख दिया और कहाः ‘आपने उसे शांत कर दिया।’
सम्राट वू ने अपनी आत्मकथा में लिखा हैः ‘यह व्यक्ति अदभुत है, चमत्कार है। इसने कुछ किए बिना ही मेरे मन को शांत कर दिया। और मुझे भी कुछ न करना पड़ा। सिर्फ मैं अपने भीतर गया और मैंने यह खोजने की कोशिश की कि मन कहां है। निश्चित ही बोधिधर्म ने सही कहा कि पहले उसे खोजो कि वह कहां है। और उसे खोजने की प्रयत्न ही काफी था-वह कहीं नहीं पाया गया।’

-ओशो
पुस्तकः तंत्र-सूत्रः 4
प्रवचन नं 56 सें संकलित

Wednesday, January 30, 2013

ध्यान क्या है?--ओशो एस धम्मो सनंतनो, भाग-9

 

 

 

 

 

 

 

प्रश्न: ध्यान क्या है?
इस छोटी सी घटना को समझें। चांग चिंग के संबंध में कहा जाता है, वह बड़ा कवि था, बड़ा सौंदर्य-पारखी था। कहते हैं, चीन में उस जैसा सौंदर्य का दार्शनिक नहीं हुआ। उसने जैसे सौंदर्य-शास्त्र पर, एस्थेटिक्स पर बहुमूल्य ग्रंथ लिखे हैं, किसी और ने नहीं लिखे। वह जैसे उन पुराने दिनों का क्रोशे था। बीस साल तक वह ग्रंथों में डूबा रहा। सौंदर्य क्या है, इसकी तलाश करता रहा।
एक रात, आधी रात, किताबों में डूबा-डूबा उठा, पर्दा सरकाया, द्वार के बाहर झाँका-पूरा चांद आकाश में था। चिनार के ऊंचे दरख्त जैसे ध्यानस्थ खड़े थे। मंद समीर बहती थी। और समीर पर चढ़कर फूलों की गंध उसके नासापुटों तक आयी। कोई एक पक्षी, जलपक्षी जोर से चीखा, और उस जलपक्षी की चीख में कुछ घटित हुआ-कुछ घट गया। चांग चिंग अपने आपसे ही जैसे बोला-हाउ मिस्टेकन आइ वाज! हाउ मिस्टेकन आइ वाज! रेज द स्क्रीन एंड सी द वल्र्ड। कैसी मैं भूल में भरा था! कितनी भूल में था मैं! पर्दा उठाओ और जगत को देखो! बीस साल किताबों में से उसे सौंदर्य का पता न चला। पर्दा हटाया और सौंदर्य सामने खड़ा था, साक्षात।
तुम पूछते हो, ‘ध्यान क्या है?’
ध्यान है पर्दा हटाने की कला। और यह पर्दा बाहर नहीं है, यह पर्दा तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम्हारे अंतस्तल पर पड़ा है। ध्यान है पर्दा हटाना। पर्दा बुना है विचारों से। विचार के ताने-बानों से पर्दा बुना है। अच्छे विचार, बुरे विचार, इनके ताने-बाने से पर्दा बुना है। जैसे तुम विचारों के पार झांकने लगो, या विचारों को ठहराने में सफल हो जाओ, या विचारों को हटाने में सफल हो जाओ, वैसे ही ध्यान घट जाएगा। निर्विचार दशा का नाम ध्यान है।
ध्यान का अर्थ है, ऐसी कोई संधि भीतर जब तुम तो हो, जगत तो है और दोनों के बीच में विचार का पर्दा नहीं है। कभी सूरज को ऊगते देखकर, कभी पूरे चांद को देखकर, कभी इन शांत वृक्षों को देखकर, कभी गुलमोहर के फूलों पर ध्यान करते हुए-तुम हो, गुलमोहर है, सजा दुल्हन ही तरह, और बीच में कोई विचार नहीं है। इतना भी विचार नहीं कि यह गुलमोहर का वृक्ष है, इतना भी विचार नहीं; कि फूल सुंदर हैं, इतना भी विचार नहीं-शब्द उठ ही नहीं रहे हैं-अवाक, मौन, स्तब्ध तुम रह गए हो, उस घड़ी का नाम ध्यान है।
पहले तो क्षण-क्षण को होगा, कभी-कभी होगा, और जब तुम चाहोगे तब न होगा, जब होगा तब होगा। क्योंकि यह चाह की बात नहीं, चाह में तो विचार आ गया। यह तो कभी-कभी होगा।
इसलिए ध्यान के संबंध में एक बात खयाल से पकड़ लेना, खूब गहरे पकड़ लेना-यह तुम्हारी चाहत से नहीं होता है। यह इतनी बड़ी बात है कि तुम्हारी चाहने से नहीं होती है। यह तो कभी-कभी, अनायास, किसी शांत क्षण में हो जाती है।
तो हम करें क्या? ध्यान के लिए हम करें क्या? यही शायद तुमने पूछना चाहा है कि ध्यान क्या है? कैसे करें?
ध्यान के लिए हम इतना ही कर सकते हैं कि अपने को शिथिल करें, दौड़धाप से थोड़ी देर के लिए रुक जाएं, घड़ी भर को चौबीस घंटे में सब आपाधापी छोड़ दें। लेकर तकिया निकल गए, लेट गए लान पर, टिक गए वृक्ष के साथ, आंखें बंद कर लीं; पहुंच गए नदी तट पर, लेट गए रेत में, सुनने लगे नदी की कलकल। मंदिर-मस्जिद जाने को मैं कह ही नहीं रहा हूं, क्योंकि पत्थरों में कहां ध्यान! तुम जीवंत प्रकृति को खोजो। इसलिए बुद्ध ने अपने शिष्यों को कहा, जंगल चले जाओ। वहां प्रकृति नाचती चारों तरफ। चौबीस घंटे वहां रहोगे, कितनी देर तक बचोगे, कभी न कभी-तुम्हारे बावजूद-किसी क्षण में अनायास प्रकृति तुम्हें पकड़ लेगी। एक क्षण को संस्पर्श हो जाएं, एक क्षण को द्वार खुल जाएं, एक क्षण को पर्दा हट जाए, तो ध्यान का पहला अनुभव हुआ।
मेरी बात को खयाल में ले लेना। ध्यान को सीधा-सीधा नहीं किया जाता, बाधा न दो। इसीलिए तो मैं कहता हूं, नाचो, गाओ। नाचने और गाने में तुम लीन हो जाओ, अचानक तुम पाओगे, हवा के झोंके की तरह ध्यान आया, तुम्हें नहला गया, तुम्हारा रोआं-रोआं पुलकित कर गया, ताजा कर गया। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे इस कला को-ध्यान का कोई विज्ञान नहीं है, कला है। धीरे-धीरे तुम समझने लगोगे कि किन घड़ियों में ध्यान घटता है, उन घड़ियों में मैं कैसे अपने को खुला छोड़ दूं। जैसे ही तुम इतनी सी बात सीख गए, तुम्हारे हाथ में कुंजी आ गयी।
इसलिए मेरे सूत्र अनूठे हैं। मैं तुमसे कहता हूं, जब तुम्हारा मन बहुत सुखी मालूम पड़े। कोई मित्र आया है, बहुत दिनों बाद मिले हैं, गले लगे हैं, गपशप हुई है, मन ताजा है, हलका है, खूब प्रसन्न हो तुम, इस मौके को छोड़ना मत। बैठ जाना एकांत में। इस घड़ी में सुख का सुर बज रहा है, परमात्मा बहुत करीब है।
सुख का अर्थ ही होता है, जब तुम्हारे जाने-अनजाने परमात्मा करीब होता है; चाहे जानो, चाहे न जानो! सुख जब तुम्हारे भीतर बजता है, तो उसका अर्थ हुआ कि परमात्मा तुमसे बहुत करीब आ गया। तुम किसी अनजाने मार्ग से घूमते-घूमते परमात्मा के पास पहुंच गए हो, मंदिर करीब है, इसीलिए सुख बज रहा है। इस घड़ी को चूकना मत। इसी घड़ी में तो जल्दी से खोजना, कहीं किनारे पर ही, हाथ के बढ़ाने से ही मंदिर का द्वार मिल जाएगा।
लेकिन जीवनभर याद करते हैं कि बचपन में बड़ा सुख था। किस सुख की याद है यह? क्या तुम सोचते हो बचपन में तुम्हारे पास बहुत धन था? नहीं था, जरा भी नहीं था, दो-दो पैसे के लिए रोना पड़ता था! एक-एक पैसे के लिए बाप और मां के मोहताज होना पड़ता था! धन तो नहीं था। कोई बड़ा पद था? कहां से होता पद! सब तरह की झंझटें थीं, स्कूल कारागृह था, जहां रोज-रोज बांधकर भेज दिए जाते थे; जहां बैठे-बैठे परेशान होते थे और कुछ समझ में न पड़ता था। और हर कोई दबा देता था, बल भी नहीं था। हर एक छाती पर सवार था।
तो बचपन में सुख कैसा था? न धन था, न पद था, न प्रतिष्ठा थी; न कोई सम्मान देता था, सुख हो कैसे सकता था? सुख कुछ और था। तितलियों के पीछे भागने में ध्यान की किरण उतर आयी थी। सागर के किनारे शंख-सीप बीनने में परम आनंद का क्षण उतरा था। कंकड़-पत्थर बीन लाए थे और समझे थे कि हीरे ले आए, और किस चाल से मस्त होकर आए थे! कुछ भी न था हाथ में, लेकिन कुछ ध्यान की सुविधा थी।
यहूदियों में एक कथा है कि जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो देवता आते हैं और उस बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हैं; ताकि वह भूल जाए उस सुख को जो सुख परमात्मा के घर उसने जाना था, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी-दयावश ऐसा करते हैं वे, नहीं तो जिंदगी बड़ी कठिन हो जाएगी। अगर वह सुख याद रहे, तो बड़ी कठिन हो जाएगी, तुलना में। तुम फिर कुछ भी करो, व्यर्थ मालूम पड़ेगा। धन कमाओ, पद कमाओ, सुंदर से सुंदर पत्नी और पति ले आओ, अच्छे से अच्छे बच्चे हों, बड़ा मकान हो, कार हो, कुछ भी सार न मालूम पड़ेगा, अगर वह सुख याद रहे। तो यहूदी कथा कहती है कि एक देवता उतरता है करुणावश और हर बच्चे के माथे पर सिर्फ हाथ फेर देता है। उस हाथ के फेरते ही पर्दा बंद हो जाता है, उसे भूल जाता है परमात्मा। सुख भूल गया, फिर यह जीवन के दुखों में ही सोचने लगता है, सुख होगा।
उस पर्दे को फिर से खोलना है, जो देवताओं ने बंद कर दिया है। मुझे तो नहीं लगता कि कोई देवता बंद करते हैं। देवता ऐसी मूढ़ता नहीं कर सकते। लेकिन समाज बंद कर देता है। शायद कहानी उसी की सूचना दे रही है। मां-बाप, परिवार, समाज, स्कूल बंद कर देते हैं, पर्दे को डाल देते हैं। ऐसा डाल देते हैं कि तुम भूल ही जाते हो कि यहां द्वार है, तुम समझने लगते हो दीवार है। ध्यान का अर्थ है, इस पर्दे को हटाना।
और इसे अनायास होने दो, इसे कभी-कभी तुम्हें पकड़ लेने दो-और जब तुम्हें यह तरंग पकड़े तो लाख काम छोड़कर बैठ जाना। क्योंकि इससे बहुमूल्य कोई और काम ही नहीं है। रात हो कि दिन, सुबह हो कि सांझ, फिर मत देखना। कुछ चूकोगे नहीं तुम, कुछ खोएगा नहीं। और अपूर्व होगी तुम्हारी संपदा फिर। और यह संपदा तुम्हारे भीतर पड़ी है, बस पर्दा हटाने की बात है।
‘ध्यान क्या है?’
ध्यान भीतर पड़े पर्दे को हटाना है।

-ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग-9

Monday, January 28, 2013

विचार, स्वप्न-मन की धूल हैं

एक झेन कथा है।

एक युवक अपने गुरु के पास वर्षों रहा, और गुरु कभी उसे कुछ कहा नहीं। बार-बार शिष्य पूछता कि मुझे कुछ कहें, आदेश दें, मैं क्या करूं? गुरु कहता, मुझे देखो। मैं जो करता हूं, वैसा करो। मैं जो नहीं करता हूं, वह मत करो, इससे ही समझो। लेकिन उसने कहा, इससे मेरी समझ में नहीं आता, आप मुझे कहीं और भेज दें। झेन-परंपरा में ऐसा होता है कि शिष्य मांग सकता है कि मुझे कहीं भेज दें, जहां में सीख सकूं। तो गुरु ने कहा, तू जा, पास में एक सराय है कुछ मील दूर, वहां तू रुक जा, चौबीस घंटे ठहरना और सराय का मालिक तुझे काफी बोध देगा।

वह गया। वह बड़ा हैरान हुआ। इतने बड़े गुरु के पास तो बोध नहीं हुआ और सराय के मालिक के पास बोध होगा! धर्मशाला का रखवाला! बेमन से गया। और वहां जाकर तो देखी उसकी शक्ल-सूरत रखवाले की तो और हैरान हो गया कि इससे क्या बोध होने वाला है! लेकिन अब चौबीस घंटे तो रहना था। और गुरु ने कहा था कि देखते रहना, क्योंकि वह धर्मशाला का मालिक शायद कुछ कहे न कहे, मगर देखते रहना, गौर से जांच करना।
तो उसने देखा कि दिनभर वह धूल ही झाड़ता रहा, वह धर्मशाला का मालिक; कोई यात्री गया, कोई आया, नया कमरा, पुराना, वह धूल झाड़ता रहा दिनभर। शाम को बर्तन साफ करता रहा। रात ग्यारह-बारह बजे तक यह देखता रहा, वह बर्तन ही साफ कर रहा था, फिर सो गया। सुबह जब उठा पांच बजे, तो भागा कि देखें वह क्या कर रहा है; वह फिर बर्तन साफ कर रहा था। साफ किए ही बर्तन साफ कर रहा था। रात साफ करके रखकर सो गया था।

इसने पूछा कि महाराज, और सब तो ठीक है, और ज्यादा ज्ञान की मुझे आपसे अपेक्षा भी नहीं, इतना तो मुझे बता दें कि साफ किए बर्तन अब किसलिए साफ कर रहे हैं? उसने कहा, रातभर भी बर्तन रखें रहें तो धूल जम जाती है। उपयोग करने से ही धूल नहीं जमती, रखे रहने से भी धूल जम जाती है। समय के बीतने से धूल जम जाती है।

यह तो वापस चला आया। गुरु से कहा, वहां क्या सीखने में रखा है, वह आदमी तो हद्द पागल है। वह तो बर्तनों को घिसता ही रहता है, रात बारह बजे तक घिसता रहा, फिर सुबह पांच बजे से--और घिसे-घिसायों को घिसने लगा। उसके गुरु ने कहा, यही तू कर, नासमझ! इसीलिए तुझे वहां भेजा था। रात भी घिस, घिसते-घिसते ही सो जा, और सुबह उठते ही से फिर घिस। क्योंकि रात भी सपनों के कारण धूल जम जाती है। समय के बीतते ही धूल जम जाती है।

विचार और स्वप्न हमारे भीतर के मन की धूल हैं।

-ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग-8
प्रवचन नं. 79 से संकलित

Sunday, January 27, 2013

रहस्यदर्शियों पर ओशो

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बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यह तुम्हारी ही अंतरात्मा का भवन है।


गौतम बुद्ध के संबंध में सात बातें।


पहली, गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं, द्रष्टा हैं।
दार्शनिक वह, जो सोचे। द्रष्टा वह, जो देखे। सोचने से दृष्टि नहीं मिलती। सोचना अज्ञात का हो भी नहीं सकता। जो ज्ञात नहीं है, उसे हम सोचेंगे भी कैसे? सोचना तो ज्ञात के भीतर ही परिभ्रमण है। सोचना तो ज्ञात की ही धूल में ही लोटना है। सत्य अज्ञात है। ऐसे ही अज्ञात है जैसे अंधे को प्रकाश अज्ञात है। अंधा लाख सोचे, लाख सिर मारे, तो भी प्रकाश के संबंध में सोचकर क्या जान पाएगा! आंख की चिकित्सा होनी चाहिए। आंख खुली होनी चाहिए। अंधा जब तक द्रष्टा न बनें, तब तक सार हाथ नहीं लगेगा।
तो पहली बात बुद्ध के संबंध में स्मरण रखना, उनका जोर द्रष्टा बनने पर है। वे स्वयं द्रष्टा हैं। और वे नहीं चाहते कि लोग दर्शन के ऊहापोह में उलझें।
दार्शनिक ऊहापोह के कारण ही करोड़ों लोग दृष्टि को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। प्रकाश की मुफ्त धारणाएं मिल जाएं, तो आंख का महंगा इलाज कौन करे! सस्ते में सिद्धान्त मिल जाएं, तो सत्य को कौन खोजे! मुफ्त, उधार सब उपलब्ध हो, तो आंख की चिकित्सा की पीड़ा से कौन गुजरे! और चिकित्सा कठिन है। और चिकित्सा में पीड़ा भी है।
बुद्ध ने बार-बार कहा है कि मैं चिकित्सक हूं। उनके सूत्रों को समझने में इसे याद रखना। बुद्ध किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं कर रहे हैं। वे किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं कर रहे हैं। वे केवल उन लोगों को बुला रहे हैं जो अंधे हैं और जिनके भीतर प्रकाश को देखने की प्यास है। और जब लोग बुद्ध के पास गए, तो बुद्ध ने उन्हें कुछ शब्द पकड़ाए, बुद्ध ने उन्हें ध्यान की तरफ इंगित और इशारा किया। क्योंकि ध्यान से है खुलती आंख, ध्यान से खुलती है भीतर की आंख।
विचारों से तो पर्त की पर्त तुम इकट्ठी कर लो, आंख खुली भी हो तो बंद हो जाएगी। विचारों के बोझ से आदमी की दृष्टि खो जाती है। जितने विचार के पक्षपात गहन हो जाते हैं, उतना ही देखना असंभव हो जाता है। फिर तुम वही देखने लगते हो जो तुम्हारी दृष्टियां होती है। फिर तुम वह नहीं देखते, जो है। जो है, उसे देखना हो तो सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरूरी है।
इस विरोधाभास को खयाल में लेना, दृष्टि पाने के लिए सब दृष्टियांे से मुक्त हो जाना जरूरी है। जिसकी कोई भी दृष्टि नहीं, जिसका कोई दर्शनशास्त्र नहीं, वही सत्य को देखने में समर्थ हो पाता है।
दूसरी बात, गौतम बुद्ध पारंपरिक नही, मौलिक हैं।
गौतम बुद्ध किसी परंपरा, किसी लीक को नहीं पीटते हैं। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि अतीत के ऋषियों ने ऐसा कहा था, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि वेद में ऐसा लिखा है, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि मैं कहता हूं, इसलिए मान लो। वे कहते हैं, जब तक तुम न जान लो, मानना मत। उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है। विश्वास मत करना, खोजना। अपने जीवन को खोज में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना। अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी। मान-मानकार ही लोग भटक गए हैं।
तो बुद्ध न तो परंपरा की दुहाई देते, न वेद की। न वे कहते हैं कि हम जो कहते हैं, वह ठीक होना ही चाहिए। वे इतना ही कहते हैं, ऐसा मैंने देखा। इसे मानने की जरूरत नहीं है। इसको अगर परिकल्पना की तरह ही स्वीकार कर लो, तो काफी है।
परिकल्पना का अर्थ होता है, हाइपोथीसिस। जैसे कि मैंने कहा कि भीतर आओ, भवन में दीया जल रहा है। तो मैं तुमसे कहता हूं कि यह मानने की जरूरत नहीं है कि भवन में दीया जल रहा है। इसको विश्वास करने की जरूरत नहीं। इस पर किसी तरह की श्रद्धा लाने की जरूरत नहीं है। तुम मेरे साथ आओ और दीए को जलता देख लो। दीया जल रहा है तो तुम मानो या न मानो, दीया जल रहा है। और दीया जल रहा है तो तुम मानते हुए आओ कि न मानते हुए आओ, दीया जलता ही रहेगा। तुम्हारे न मानने से दीया बुझेगा नहीं, तुम्हारे मानने से जलेगा नहीं।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यही तुम्हारी ही अंतरात्मा का भवन है। तुम भीतर आओ और दीए को जलता देख लो। देख लो, फिर मानना।
और खयाल रहे जब देख ही लिया तो मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। हम जो देख लेते हैं, उसे थोड़े ही मानते हैं। हम तो जो नहीं देखते, उसी को मानते हैं। तुम पत्थर-पहाड़ को तो नहीं मानते, परमात्मा को मानते हो। तुम सूरज-चांद-तारों को तो नहीं मानते, वे तो हैं। तुम स्वर्गलोक, मोक्ष, नर्क को मानते हो। जो नहीं दिखाई पड़ता, उसको हम मानते हैं। जो दिखायी पड़ता है, उसको तो मानने की जरूरत ही नहीं रह जाती है, उसका यथार्थ तो प्रगट है।
तो बुद्ध कहते हैं, मेरी बात पर भरोसा लाने की जरूरत नहीं, इतना ही काफी है कि तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लो। इतना पर्याप्त है। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, हाइपोथीसिस, परिकल्पना। एक वैज्ञानिक कहता है, सौ डिग्री तक पानी गर्म करने से पानी भाप बन जाता है। मानने की कोई जरूरत नहीं, चूल्हा तुम्हारे घर में है, जल उपलब्ध है, आग उपलब्ध है, चढ़ा दो चूल्हे पर जल को, परीक्षण कर लो। परीक्षण करने के लिए जो बात मानी गयी है, वह परिकल्पना। अभी स्वीकार नहीं कर ली है कि यह सत्य है, लेकिन एक आदमी कहता है, शायद सत्य हो, शायद असत्य हो, प्रयोग करके देख लें, प्रयोग ही सिद्ध करेगा-सत्य है या नहीं?
तो बुद्ध पारंपरिक नहीं हैं, मौलिक हैं। विचार की परंपरा होती है, दृष्टि की मौलिकता होती है। विचार अतीत के होते हैं, दृष्टि वर्तमान में होती है। विचार दूसरों के होते हैं, दृष्टि अपनी होती है।
तीसरी बात, गौतम बुद्ध शास्त्रीय नहीं हैं। पंडित नहीं हैं, वैज्ञानिक हैं।
बुद्ध ने धर्म को पहली दफे वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दी। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे विज्ञान के सिंहासन पर विराजमान किया। इसके पहले तक धर्म अंधविश्वास था। बुद्ध ने उसे बड़ी गरिमा दी। बुद्ध ने कहा, अंधविश्वास की जरूरत ही नहीं है। धर्म तो जीवन का परम सत्य है। एस धम्मो सनंतनो। यह धर्म तो शाश्वत और सनातन है। तुम जब आंख खोलोगे तब इसे देख लोगे।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि नरक के भय के कारण मानो, और यह भी नहीं कहा कि स्वर्ग के लोभ के कारण मानो। और इसलिए यह भी नहीं कहा कि परमात्मा सताएगा अगर न माना, और परमात्मा पुरस्कार देगा अगर माना। नही, ये सब व्यर्थ की बातें बुद्ध ने नहीं कहीं।
बुद्ध ने तो सारसूत्र कहा। बुद्ध ने तो कहा, यह धर्म तुम्हारा स्वभाव है। यह तुम्हारे भीतर बह रहा है, अहर्निश बह रहा है। इसे खोजने के लिए आकाश में आंखें उठाने की जरूरत नहीं है, इसे खोजने के लिए भीतर जरा सी तलाश करने की जरूरत है। यह तुम हो, तुम्हारी नियति है, यह तुम्हारा स्वभाव है। एक क्षण को भी तुमने इसे खोया नहीं, सिर्फ विस्मरण हुआ है।
तो बुद्ध ने चैतन्य की सीढ़ियां कैसे पार की जाएं, मूर्छा से कैसे आदमी अमूर्छा में जाए, बेहोशी कैसे टूटे और होश कैसे जगे, इसका विज्ञान थिर किया। और जो उनके साथ भीतर गए, उन्हें निरपवाद रूप से मान लेना पड़ा कि बुद्ध जो कहते हैं, ठीक कहते हैं।
यह अपूर्व क्रांति थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। बुद्ध मील के पत्थर हैं मनुष्य-जाति के इतिहास में। संत तो बहुत हुए, मील के पत्थर बहुत थोड़े लोग होते हैं। महावीर भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि महावीर ने जो कहा, वह तेईस तीर्थंकर पहले कह चुके थे। कृष्ण भी मील के पत्थर नहीं हैं। क्योंकि कृष्ण ने जो कहा, वह उपनिषद और वेद सदा से कहते रहे थे। बुद्ध मील के पत्थर हैं, जैसे लाओत्सू मील का पत्थर है। कभी-कभार, करोड़ों लोगों में एकाध संत होता है, करोड़ों संतों में एकाध मील का पत्थर होता है। मील के पत्थर का अर्थ होता है, उसके बाद फिर मनुष्य-जाति वही नहीं रह जाती। सब बदल जाता है, सब रूपांतरित हो जाता है। एक नयी दृष्टि और एक नया आयाम और एक नया आकाश बुद्ध ने खोल दिया।
बुद्ध के साथ धर्म अंधविश्वास न रहा, अंतर्खोज बना। बुद्ध के साथ धर्म ने बड़ी छलांग लगा ली। आस्तिक को ही धर्म में जाने की सुविधा न रही, नास्तिक को भी सुविधा हो गयी। ईश्वर को नहीं मानते, कोई हर्ज नहीं, बुद्ध कहते ही नहीं कि मानना जरूरी है। कुछ भी नहीं मानते, बुद्ध कहते हैं, तो भी कोई चिंता की बात नहीं। कुछ मानने की जरूरत ही नहीं है। बिना कुछ माने अपने भीतर तो जा सकते हो। भीतर जाने के लिए मानने की आवश्यकता क्या है! न तो ईश्वर को मानना है, न आत्मा को मानना है, न स्वर्ग-नर्क को मानना है। इसे तो नास्तिक भी इनकार न कर सकेगा कि मेरा भीतर है। इसे तो नास्तिकों ने भी नहीं कहा है कि भीतर नहीं है। भीतर तो है ही। नास्तिक कहते हैं, यह भीतर शाश्वत नहीं है। बुद्ध कहते हैं, फिकर छोड़ो, पहले यह जितना है उसे जान लो, उसी जानने से अगर शाश्वत का दर्शन हो जाए तो फिर मानने की जरूरत न होगी; तुम मान ही लोगे।
बुद्ध ने नास्तिकों को धार्मिक बनाने का महत कार्य पूरा किया। इसलिए बुद्ध के पास जो लोग आकर्षित हुए, बड़े बुद्धिमान लोग थे। आमतौर से धार्मिक साधु-संतों के पास बुद्धिहीन लोग इकट्ठे होते हैं। जड़, मूर्छित, मुर्दा। बुद्ध ने मनुष्य-जाति की जो श्रेष्ठतम संभावनाएं हैं, उनको आकर्षित किया। बुद्ध के पास नवनीत इकट्ठा हुआ चैतन्य का। ऐसे लोग इकट्ठे हुए जो और किसी तरह तो धर्म को मान ही नहीं सकते थे, उनके पास प्रज्वलित तर्क था। इसलिए बुद्ध दार्शनिक हैं, लेकिन बुद्ध के पास इस देश के सबसे बड़े से बड़े दार्शनिक इकट्ठे हो गए। बुद्ध अकेले एक व्यक्ति के पीछे इतना दर्शनशास्त्र पैदा हुआ, जितना मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी दूसरे व्यक्ति के पीछे नहीं हुआ। और बुद्ध के पीछे इतने महत्वपूर्ण विचारक हुए कि जिनकी तुलना सारी पृथ्वी पर कहीं भी खोजनी मुश्किल है।
कैसे यह घटित हुआ? बुद्ध ने महानास्तिकों को आकर्षित किया। आस्तिक को बुला लेना मंदिर में तो कोई खास बात नहीं, नास्तिक को बुला लेने में कुछ खास बात है। बुद्ध वैज्ञानिक हैं, इसलिए नास्तिक भी उत्सुक हुआ। विज्ञान को तो नास्तिक ठुकरा न सकेगा। बुद्ध ने कहा, संदेह है, चलो, संदेह की ही सीढ़ी बनाएंगे। संदेह से और शुभ क्या हो सकता है! संदेह के पत्थर को लेंगेी बना लेंगेे। संदेह से ही तो खोज होती है। इसलिए संदेह को फेंको मत।
इस बात को समझना। जिसके पास जितनी विराट दृष्टि होती है, उतना ही वह हर चीज का उपयोग कर लेना चाहता है। सिर्फ क्षुद्र दृष्टि के लोग काटते हैं। क्षुद्र दृष्टि का आदमी कहेगा, संदेह नहीं चाहिए, श्रद्धा चाहिए। काटो संदेह को। लेकिन संदेह तुम्हारा जीवंत अंग है, काटोगे तो तुम अपंग हो जाओगे। संदेह का रूपांतरण होना चाहिए, खंडन नहीं। संदेह ही श्रद्धा बन जाए, ऐसी कोई प्रक्रिया होनी चाहिए।
कोई कहता है, काटो कामवासना को। लेकिन काटने से तो तुम अपंग हो जाओगे। कुछ ऐसा होना चाहिए कि कामवासना राम की वासना बन जाए। ऊर्जा का अधोगमन ऊर्ध्वगमन बन जाए। तुम ऊर्ध्वरेतस बन जाओ। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे कंकड़-पत्थर भी हीरों में रूपांतरित हो जाएं। कुछ ऐसा होना चाहिए कि तुम्हारे जीवन की कीचड़ कमल बन सके।
बुद्ध ने वह कीमिया दी।
चौथी बात, गौतम बुद्ध वायवी, एब्सट्रेक्ट नहीं, अत्यंत व्यावहारिक हैं। ऊंचे से ऊंची छलांग ली है उन्होंने, लेकिन पृथ्वी को कभी नहीं छोड़ा। जड़ें जमीन में जमाए रखीं। वह सिर्फ हवा में ही पंख नहीं मारते रहे।
एक बहुत प्राचीन कथा है कि ब्रह्मा ने जब सृष्टि बनायी और सब चीजें बनायीं, तभी उसने यथार्थ और स्वप्न भी बनाया। बनते ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ और स्वप्न का झगड़ा तो प्राचीन है। पहले दिन ही झगड़ा शुरू हो गया। यथार्थ ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं; स्वप्न ने कहा, मैं श्रेष्ठ हूं, तुझमे रखा क्या है! झगड़ा यहां तक बढ़ गया कि कौन महत्वपूर्ण है दोनों में कि दोनों झगड़ते हुए ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा हंसे और उन्होंने कहा, ऐसा करो, सिद्ध हो जाएगा प्रयोग से। तुममें से जो भी जमीन पर पैर गड़ाए रहे और आकाश को छूने में समर्थ हो जाए, वही श्रेष्ठ है।
दोनों लग गये। स्वप्न ने तो तत्क्षण आकाश छू लिया, देर न लगी, लेकिन पैर उसके जमीन तक न पहुंच सके। टंग गया आकाश में। हाथ तो लग गए आकाश से, लेकिन पैर जमीन से न लगे-स्वप्न के पैर होते ही नहीं। यथार्थ जमीन में पैर गड़ाकर खड़ा हो गया, जैसे कि कोई वृक्ष हो, लेकिन ठूंठ की तरह, आकाश तक उसके हाथ न पहुंचे।
ब्रह्मा ने कहा, समझे कुछ? स्वप्न अकेला आकाश में अटक जाता है, यथार्थ अकेला जमीन पर भटक जाता है। कुछ ऐसा चाहिए कि स्वप्न और यथार्थ का मेल हो जाए।
तो बुद्ध वायवी नहीं हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उन्होंनें आकाश नहीं छुआ। उन्होंने आकाश छुआ, लेकिन यथार्थ के आधार पर छुआ।
इस फर्क को समझना।
बुद्ध ने अपने पैर तो जमीन पर रोके, बुद्ध ने यथार्थ को तो जरा भी नहीं भुलाया, यथार्थ में बुनियाद रखी; भवन उठा, मंदिर ऊंचा उठा, मंदिर पर स्वर्णकलश चढ़े। लेकिन मंदिर के स्वर्णकलश टिकते तो जमीन में छिपे हुए पत्थरों पर हैं, भूमि के भीतर छिपे हुए बुनियाद के पत्थरों पर टिकते हैं। बुद्ध ने एक मंदिर बनाया, जिसमें बुनियाद भी है और शिखर भी।
बहुत लोग हैं, जिनको हम नास्तिक कहते हैं, वे जमीन पर अटके रह जाते हैं। वे ठूंठ की तरह हैं। यथार्थ का ठूंठ। मार्क्सवादी हैं या चार्वाकवादी हैं, वे यथार्थ का ठूंठ। वे जमीन में तो पैर गड़ा लेते हैं, लेकिन उनके भीतर आकाश तक उठने की कोई अभीप्सा नहीं है, आकाश तक उठने की कोई क्षमता नहीं है। और चूंकि वे सपने को काट डालते हैं बिलकुल और कह देते हैं, आदर्श है ही नहीं जगत में। बस यही सब कुछ है, मिट्टी ही सब कुछ है। उनके जीवन में कमल नहीं फूलता, कमल नहीं उठता। कमल का उपाय ही नहीं रह जाता। जिसको इनकार कर दिया आग्रहपूर्वक, उसका जन्म नहीं होता।
और फिर दूसरी तरफ सिद्धांतवादी हैं: एब्सट्रेक्ट, वायवी विचारक है; वे आकाश में ही पर मारते रहते हैं, वे कभी जमीन पर पैर नहीं रोकते हैं। वे आदर्श में जीते हैं, यथार्थ से उनका कभी कोई मिलन ही नहीं होता। उनकी आंखों में आकाश-कुसुम खिलते हैं, असली कुसुम नहीं।
बुद्ध स्वप्नवादी नहीं हैं, परम व्यावहारिक हैं। लेकिन चार्वाक जैसे व्यवहारवादी भी नहीं हैं। उनका व्यवहारवाद अपने भीतर आदर्श की संभावना छिपाए हुए है। लेकिन वे कहते हैं, शुरू तो करना होगा जमीन पर पैर टेकने से। जिसके पैर जमीन में जितनी मजबूती से टिके हैं, वह उतनी ही आसानी से आकाश को छूने में समर्थ हो पाएगा। मगर यात्रा तो शुरू करनी पड़ेगी जमीन में पैर टेकने से।
इसलिए जब कोई बुद्ध के पास आता है और ईश्वर की बात पूछता है, वे कहते हैं, व्यर्थ की बातें मत पूछो। अनेकों को तो लगा कि बुद्ध अनीश्वरवादी हैं, इसलिए ईश्वर के बाबत जवाब नहीं देते। यह बात सच नहीं है। बुद्ध कहते हैं, पहले जमीन में तो पैर गड़ा लो, पहले ध्यान में तो उतरो, पहले अंतस चेतना में तो जड़ें फैला लो, पहले तुम जो हो उसको तो पहचान लो, फिर यह पीछे हो लेगा। यह अपने से हो लेगा। यह एक दिन अचानक हो जाता है। जब जमीन में वृक्ष की जड़े खूब मजबूती से रुक जाती हैं, तो वृक्ष अपने आप आकाश की तरफ उठने लगता है। एक दिन आकाश में उठे वृक्ष में फूल भी खिलते हैं, वसंत भी आता है। मगर वह अपने से होता है। असली बात जड़ की है।
तो बुद्ध बहुत गहरे में यथार्थवादी हैं, लेकिन उनका यथार्थ आदर्श को समाहित किए हुए है। वह आदर्श समन्वित है यथार्थ में।
पांचवी बात, गौतम बुद्ध विधिवादी नहीं, मानवीय हैं।
एक तो विधिवादी होता है, जैसे मनु। सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं, मनुष्य महत्वपूर्ण नहीं है। ऐसा लगता है मनु में, जैसे मनुष्य सिद्धांत के लिए बना है। मनुष्य की आहुति चढ़ायी जा सकती है सिद्धांत के लिए, लेकिन सिद्धांत में फेर-बदल नहीं की जा सकती।
बुद्ध अति मानवीय हैं, ह्ययूमनिस्ट। मानववादी हैं। वे कहते हैं, सिद्धांत का उपयोग है मनुष्य की सेवा में तत्पर हो जाना। सिद्धांत मनुष्य के लिए है, मनुष्य सिद्धांत के लिए नहीं। इसलिए बुद्ध के वक्तव्यों में बड़े विरोधाभास हैं। क्योंकि बुद्ध एक-एक व्यक्ति की मनुष्यता को इतना मूल्य देते, इतना चरम मूल्य देते हैं कि अगर उन्हें लगता है इस आदमी को इस सिद्धांत से ठीक नहीं पड़ेगा, तो वे सिद्धांत बदल देते हैं। अगर उन्हें लगता है कि थोड़े से सिद्धांत में फर्क करने से इस आदमी को लाभ होगा, तो उन्हें फर्क करने में जरा भी झिझक नहीं होती। लेकिन मौलिक रूप से ध्यान उनका व्यक्ति पर है, मनुष्य पर है। मनुष्य परम है। मनुष्य मापदंड है। सब चीजें मनुष्य पर कसी जानीं चाहिए।
इसलिए बुद्ध वर्ण-व्यवस्था को न मान सके। इसलिए बुद्ध आश्रम-व्यवस्था को भी न मान सके। क्योंकि ये जड़ सिद्धांत हैं। बुद्ध ने कहा, ब्राह्मण वही जो ब्रह्म को जाने। ब्राह्मण-घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। और शूद्र वही जो ब्रह्म न जाने। शूद्र-घर में पैदा होने से कोई शूद्र नहीं होता। तो अनेक ब्राह्मण शूद्र हो गए, बुद्ध के हिसाब से, और अनेक शूद्र बाह्मण हो गए। सब अस्तव्यस्त हो गया। मनु के पूरे शास्त्र को बुद्ध ने उखाड़ फेंका।
हिंदू अब तक भी बुद्ध से नाराजगी भूले नहीं हैं। वर्ण-व्यवस्था को इस बुरी तरह बुद्ध ने तोड़ा। यह कुछ आकस्मिक बात नहीं थी कि डाक्टर अंबेडकर ने ढाई हजार साल बाद फिर शूद्रों को बौद्ध होने को निमंत्रण दिया। इसके पीछे कारण है। अंबेडकर ने बहुत बातें सोची थीं। पहले उसने सोचा कि ईसाई हो जाएं, क्योंकि हिंदुओ ने तो सता डाला है, तो ईसाई हो जाएं। फिर सोचा कि मुसलमान हो जाएं। लेकिन यह कोई बात जमीं नही, क्योंकि मुसलमानों में भी वही उपद्रव है। वर्ण के नाम से न होगा तो शिया-सुन्नी का है।
अंततः अंबेडकर की दृष्टि बुद्ध पर पड़ी और तब बात जंच गयी अंबेडकर को कि शूद्र को सिवाय बुद्ध के साथ और कोई उपाय नहीं है। क्योंकि शूद्र के लिए भी अपने सिद्धांत बदलने को अगर कोई आदमी राजी हो सकता है तो वह गौतम बुद्ध हैं-और कोई राजी नहीं हो सकता-जिसके जीवन में सिद्धांत का मूल्य ही नहीं, मनुष्य का चरम मूल्य है।
यह आकस्मिक नहीं है कि अंबेडकर बौद्ध हुए। पच्चीस सौ साल के बाद शूद्रों का फिर बौद्धत्व की तरफ जाना, या बौद्धत्व के मार्ग की तरफ जाना, बौद्ध होने की आकांक्षा, बड़ी सूचक है। इससे बुद्ध के संबंध में खबर मिलती है।
बुद्ध ने वर्ण की व्यवस्था तोड़ दी और आश्रम की व्यवस्था भी तोड़ दी। जवान, युवकों को संन्यास दे दिया। हिंदू नाराज हुए। संन्यस्त तो आदमी होता है आखिरी अवस्था में, मरने के करीब। अगर बचा रहा, पचहत्तर साल के बाद उसे संन्यस्त होना चाहिए। तो पहले तो पचहत्तर साल तक लोग बचते नहीं। अगर बच गए, तो पचहत्तर साल के बाद ऊर्जा नहीं बचती जीवन में। तो हिंदुओं का संन्यास एक तरह का मुर्दा संन्यास है, जो आखिरी घड़ी में कर लेना है। मगर इसका जीवन से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है।
बुद्ध ने युवकों को संन्यास दे दिया, बच्चों को संन्यास दे दिया और कहा कि यह बात मूल्यवान नहीं है, लकीर के फकीर होकर चलने से कुछ भी न चलेगा। अगर किसी व्यक्ति को युवावस्था में भी परमात्मा को खोजने की, सत्य को खोजने की, जीवन के यथार्थ को खोजने की प्रबल आकांक्षा जगी है, तो मनु महाराज का नियम मानकर रुकने की कोई जरूरत नहीं है। वह अपनी आकांक्षा को सुने, वह अपनी आकांक्षा से जाए। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंकाक्षा को सुने। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आकांक्षा से जीए। उन्होंनें सब सिद्धांत एक अर्थ में गौण कर दिए, मनुष्य प्रमुख हो गया।
तो वे सैद्धांतिक नहीं हैं, विधिवादी नहीं हैं। लीगल नहीं है उनकी पकड़, उनकी पकड़ मानवीय है। कानून इतना मूल्यवान नहीं है, जितना मनुष्य मूल्यवान है। और हम कानून बनाते ही इसीलिए हैं कि मनुष्य के काम आए। मनुष्य कानून के काम आने के लिए नहीं है। इसलिए जब जरूरत हो, कानून बदला जा सकता है। जब मनुष्य के हित में हो, ठीक है, जब अहित में हो जाए तोड़ा जा सकता है। जो-जो मनुष्य के अहित में हो जाए, तोड़ देना है। कोई कानून शाश्वत नहीं है, सब कानून उपयोग के लिए हैं।
और छठवीं बात, गौतम बुद्ध नियमवादी नहीं है, बोधवादी हैं।
अगर बुद्ध से पूछो, क्या अच्छा है, क्या बुरा है, तो बुद्ध उत्तर नहीं देते। बुद्ध यह नहीं कहते कि यह काम बुरा है और यह काम अच्छा है। बुद्ध कहते हैं, जो बोधपूर्वक किया जाए, वह अच्छा; जो बोधहीनता से किया जाए, बुरा।
इस फर्क को खयाल में लेना। बुद्ध यह नहीं कहते कि हर काम हर स्थिति में भला हो सकता है। या कोई काम हर स्थिति में बुरा हो सकता है। कभी कोई बात पुण्य हो सकती है, और कभी कोई बात पाप हो सकती है-वही बात पाप हो सकती है, भिन्न परिस्थति में वही बात पाप हो सकती है। इसलिए पाप और पुण्य कर्मो के ऊपर लगे हुए लेबिल नहीं हैं। अभी जो तुमने किया, पुण्य है; और सांझ को दोहराओ तो शायद पाप हो जाए। भिन्न परिस्थिति।
तो फिर हमारे पास शाश्वत आधार क्या होगा निर्णय का? बुद्ध ने एक नया आधार दिया। बुद्ध ने आधार दिया-बोध, जागरूकता। इसे खयाल में लेना। जो मनुष्य जागरूकतापूर्वक कर पाए, जो भी जागरूकता में ही किया जा सके, वही पुण्य है। और जो बात केवल मूर्छा में ही की जा सके, वही पाप है। जैसे, तुम पूछो, क्रोध पाप है या पुण्य? तो बुद्ध कहते हैं, अगर तुम क्रोध जागरूकतापूर्वक कर सको, तो पुण्य है। अगर क्रोध तुम मूर्छित होकर ही कर सको, तो पाप है।
अब फर्क समझना। इसका मतलब यह हुआ कि हर क्रोध पाप नहीं होता और हर क्रोध पुण्य नहीं होता। कभी मां जब अपने बेटे पर क्रोध करती है, तो जरूरी नहीं है कि पाप हो। शायद पुण्य भी हो, पुण्य हो सकता है। शायद बिना क्रोध के बेटा भटक जाता। लेकिन इतना ही बुद्ध का कहना है, होशपूर्वक किया जाए।
मैंने एक झेन कहानी सुनी है। एक समुराई, एक क्षत्रिय के गुरु को किसी ने मार दिया। और जापान में ऐसी व्यवस्था है, अगर किसी का गुरु मार डाला जाए, तो शिष्य का कर्तव्य है कि बदला ले। और जब तक वह मारने वाले को न मार दे, तब तक चैन न ले। ये समुराई तो बड़े भयानक योद्धा होते हैं। गुरु को किसी ने मार डाला, तो उसका जो शिष्य था, वह तो सब कुछ छोड़कर बस इसी में लग गया।
दो साल बाद उसका पीछा करते-करते एक जंगल में, एक गुफा में उसको पकड़ लिया। बस उसकी छाती में छुरा भोंकने को था ही कि उस आदमी ने उस समुराई के ऊपर थूक दिया। जैसे ही उसने थूका, उसने छुरा वापस रख लिया अपनी म्यान में और वापस गुफा के बाहर निकल आया।
उस आदमी ने कहा, क्यों भाई, क्या हो गया? दो साल से मेरे पीछे पड़े हो, बमुश्किल तुम मुझे खोज पाए, मैं जंगल-जंगल भागता रहा, आज तुम्हें मिल गया, आज क्या बात हो गयी कि छुरा निकाला हुआ वापस रख लिया?
उसने कहा कि मुझे क्रोध आ गया। तुमने थूक दिया, मुझे क्रोध आ गया। मेरे गुरु का उपदेश था, मारो भी अगर किसी को, तो मूर्छा में मत मारना। तो मारने में भी कोई पाप नहीं है। लेकिन तुमने जो थूक दिया, दो साल तक मैंने होश रखा-यह तो सिर्फ एक व्यवस्था की बात थी कि गुरु को मेरे तुमने मारा तो मैं तुम्हें मार रहा था, मेरा इसमें कुछ वैयक्तिक लेना-देना नहीं था-लेकिन तुमने थूक क्या दिया मुझ पर, मैं भूल ही गया गुरु को और मेरे मन में भाव उठा कि मार डालूं इस आदमी को, इसने मेरे ऊपर थूका! मैं बीच में आ गया, मूर्छा आ गयी। अहंकार बीच में आ गया, मूर्छा आ गयी। इसलिए अब जाता हूं। अब फिर जब यह मूर्छा हट जाएगी तब सोचूंगा। लेकिन मूर्छा में कुछ किया नहीं जा सकता।
बुद्ध ने कहा है, जो तुम मूर्छा में करो, वही पाप; जो जागरूकता में करों, वही पुण्य है। यह पाप और पुण्य की बड़ी नयी व्यवस्था थी। और इसमें व्यक्ति को परम स्वतंत्रता है। कोई दूसरा तय नहीं कर सकता कि क्या पाप है, क्या पुण्य है। तुमको ही तय करना है। बुद्ध ने व्यक्ति को परम गरिमा दी।
और सातवीं बात, गौतम बुद्ध असहज के पक्षपाती नहीं, सहज के उपदेष्टा हैं।
गौतम बुद्ध कहते हैं, कठिन के ही कारण आकर्षित मत होओ। क्योंकि कठिन में अहंकार का लगाव है।
इसे तुमने देखा कभी? जितनी कठिन बात हो, लोग करने को उसमें उतने ही उत्सुक होते हैं। क्योंकि कठिन बात में अहंकार को रस आता है, मजा आता है-करके दिखा दूं। अब जैसे पूना की पहाड़ी पर कोई चढ़ जाए, तो इसमें कुछ मजा नहीं है, एवरेस्ट पर चढ़ जाऊं तो कुछ बात है। पूना की पहाड़ी पर चढ़कर कौन तुम्हारी फिकर करेगा, तुम वहां लगाए रहो झंडा, खड़े रहो चढ़कर! न अखबार खबर छापेंगे, न कोई वहां तुम्हारा चित्र लेने आएगा। तुम बड़े हैरान होओगे कि फिर यह हिलेरी पर और तेनसिंग पर इतना शोरगुल क्यों मचाया गया! आखिर इन ने भी कौन सी बड़ी बात की थी, जाकर हिमालय पर झंडा गाड़ दिया था, मैंने भी झंडा गाड़ दिया! लेकिन तुम्हारी पहाड़ी छोटी है। इस पर कोई भी चढ़ सकता है। जिस पहाड़ी पर कोई भी चढ़ सकता है, उसमें अहंकार को तृप्ति का उपाय नहीं है।
तो बुद्ध ने कहा कि अहंकार अक्सर ही कठिन में और दुर्गम में उत्सुक होता है। इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जो सहज और सुगम है, जो हाथ के पास है, वह चूक जाता है और दूर के तारों पर हम चलते जाते हैं।
देखते हैं, आदमी चांद पर पहुंच गया। अभी अपने पर नहीं पहुंचा! तुमने कभी देखा, सोचा इस पर? चांद पर पहुंचना तकनीक की अदभुत विजय है। गणित की अदभुत विजय है। विज्ञान की अदभुत विजय है। जो आदमी चांद पर पहुँच गया, यह अभी छोटी-छोटी चीजें करने में सफल नहीं हो पाया है। अभी एक ऐसा फाउंटेनपेन भी नहीं बना पाया जो लीकता न हो। और चांद पर पहुँच गए! छोटी-सी बात भी, अभी सर्दी-जुखाम का इलाज नहीं खोज पाए, चांद पर पहुंच गए! अब ऐसे फाउंटेनपेन को बनाने में उत्सुक भी कौन है जो लीके न! छोटी-मोटी बात है, इसमें रखा क्या है!
फाउंटेनपेन सदा लीकेंगे। कोई आशा नहीं दिखती कि कभी ऐसे फाउंटेनपेन बनेंगे जो लीकें न। और सर्दी-जुखाम सदा रहेगी, इससे छुटकारे का उपाय नहीं है। क्योंकि चिकित्सक कैंसर में उत्सुक हैं, सर्दी-जुखाम में नहीं। बड़ी चीज अहंकार की चुनौती बनती है। आदमी अपने भीतर नहीं पहुंचा जो निकटतम है और चांद पर पहुंच गया। मंगल पर भी पहुंचेगा, किसी दिन और तारों पर भी पहुंचेगा, बस, अपने को छोड़कर और सब जगह पहुंचेगा।
तो बुद्ध असहजवादी नहीं हैं। बुद्ध कहते है, सहज पर ध्यान दो। जो सरल है, सुगम है, उसको जीओ। जो सुगम है, वही साधना है। इसको खयाल में लेना। तो बुद्ध ने जीवनचर्या को अत्यंत सुगम बनाने के लिए उपदेश दिया है। छोटे बच्चे की भांति सरल जीओ। साधु होने का अर्थ बहुत कठिन और जटिल हो जाना नहीं, कि सिर के बल खड़े हैं, कि खड़े हैं तो खड़े ही हैं, बैठते नहीं, कि भूखों मर रहे हैं, कि लंबे उपवास कर रहे हैं, कि कांटों की शय्या बिछाकर उस पर लेट गए हैं, कि धूप में खड़े हैं, कि शीत में खड़े हैं, कि नग्न खड़े हैं। बुद्ध ने इन सारी बातों पर कहा कि ये सब अहंकार की ही दौड़ हैं। जीवन तो सुगम है, सरल है। सत्य सुगम और सरल ही होगा। तुम नैसर्गिक बनो और अहंकार के आकर्षणों में मत उलझो।

-ओशो
एस धम्मो सनंतनो, भाग 9
(प्रवचन नं. 82 से संकलित)

Friday, January 11, 2013

दो खराब ईंटॊं की दीवार – " Two bad bricks "

2 bad bricks
जिस मठ मे अजह्न ब्रह्म की शिक्षा आरम्भ हुयी वहीं  एक भिक्षु के रूप में पहली बार  उनको ईंटॊं  की दीवार बनाने  का कार्य सौंपा गया । जब निर्माण कार्य  समाप्त हो गया तब  उन्होंने देखा है कि दो ईंटॊं को छोडकर अन्य सभी ईंटें अच्छी तरह से व्यवस्थित रुप से लाइन में थीं " वह दो ईंटॆ एक कोण पर झुकी थी और बेतुकी  लग रही थी  " अजह्न ने अपने आप से कहा ।
अजह्न मठ की इस दीवार को गिरा कर दोबारा बनाना चाहते थे लेकिन मठ के मठाधीश ने इसके लिये मना कर दिया ।
bad-bricks
नव निर्मित मठ  मे आने वाले आगुतंको को अजह्न मठ के चारों ओर दिखाते सिवाय उस ईंट की दीवार के जिसका उन्होने  निर्माण किया था । लेकिन एक दिन एक आंगुतक की नजर इस दीवार पर पड गयी और उसने टिप्पणी मे दीवार की प्रंशसा कर दी ।
अजह्न आशचर्य मे पड गये और उस आंगुतक से बोले ,  " महोदय ,लगता है कि आप अपना चशमा गाडी  मे भूल आये हैं या शायद आप नेत्रहीन हैं ?  क्या आप उन दो ईटॊं को नहीं  देख पा रहे हैं जिनकी वजह से पूरी की पूरी दीवार खराब और बेतुकी  दिख रही है । आगंतुक के जवाब ने अजह्न ने दीवार के परिपेक्ष  खुद स्वयं  और अपने जीवन के कई अन्य पहलुओं के बारे मे सोचने की प्रक्रिया को  बदल दिया । उसने  कहा, " हाँ,  मैं उन दो खराब  ईंटों को भी देख रहा हूँ और साथ ही में उन ९९८ अच्छी और व्यवस्थित ढंग से लगी  ईटॊ को भी देख रहा हूँ जो बहुत सुरुचिपूर्ण लग रही है ।  ”
अजह्न आगुतंक की  बात सुनकर  दंग रह गये । पहली बार के लिए उन्होने दो खराब ईटॊं के अलावा अन्य ईटॊं को गौर से देखा । इन दो ईटॊ  के ऊपर, नीचे, बायें  और दायें  ओर अच्छी और व्यवस्थित ढंग से लगी ईंटॆं थी । और सबसे मुख्य बात कि सुरुचिपूर्ण ईटॊं  की संख्या खराब ईटॊं से कही अधिक थी । अब अजह्न को यह दीवार बुरी नही दिख रही थी ।
अजह्न ने अपने आप से कहा , “ न जाने कितने लोग बिलावजह रिशतों को समाप्त कर देते हैं या पति पत्नी संबध विच्छेद के मोड पर खडॆ हो जाते हैं क्योंकि वह अपने साथी में उन ‘ दो खराब ईटॊ ’  को देखने की चेष्टा करते हैं ?  हम में से कितने   अभागे ऐसे भी हैं जो छॊटी-२ बातों पर शोकागुल हो जाते हैं या कुछ ऐसे भी जो जीवन से तंग आ कर  मृत्यु को गले लगा लेते हैं ।  ”                         सच तो यह है कि हम सब में वह खराब और बुरी ईंटॆं हैं लेकिन यह भी सच है कि उन खराब ईटॊं की संख्या तमाम अच्छाईयो की तुलना में बहुत कम हैं ।
चुनाव आपके हाथों में है कि किस तरह की  दीवार का चुनाव आप इस जीवन में करेगें दो खराब दिखने वाली ईटॊं का या उन ९९८ अच्छी तरह से व्यवस्थित ईटॊं का ?
who odered this truckload of Dung
अजह्न्ह ब्रह्म की पुस्तक , “ Who ordered this trucload of Dung ? “ मे  से ली गई कहानी   “ Two bad bricks” का हिन्दी अनुवाद ।

Saturday, January 5, 2013

ध्यान , मन और पानी की लहरें

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इन्सान का मन तालाब के जल की तरह है । इसमें उत्पन्न हो रहे बैचेन विचार पानी में फ़ेंके गये कंकड की तरह हैं । यह विचार मन की शांत सतह पर लहर के रुप मे आ कर उद्देलित  कर जाते हैं । जब पानी इन बैचेन विचारों से उद्देलित रहता है तब हम स्पष्ट रुप से पानी की तलहटी को नही देख पाते । यह पानी की तलहटी हमारे भीतर के ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है ।  लेकिन अगर हम इन बैचेन विचारों पर अंकुश लगाते हैं तब हम स्पष्ट रुप से शांत पानी को नीचे तक देख सकते हैं , वह जगह जहाँ हमारा प्रबुद्ध स्व रहता है ।

                                                              -  डा. नील नीमार्क

The mind is likened to a pond of water. Restless thoughts are like pebbles thrown into the water. They send out a ripple of activity, disturbing the tranquil surface. When the water is constantly agitated with restless thoughts, we cannot see clearly to the bottom of the pond, which represents our inner wisdom. When we stop the restless thoughts, we calm the waters, enabling us to see clearly to the bottom—where our wisest, most enlightened self resides. -Dr. Neal F. Neimark, M.D.

courtesy : Meditation, Medication and Psychological Disorders.

Wednesday, January 2, 2013

श्रावस्ती संस्मरण - भाग २

पिछ्ले अंक से आगे …….
053
जेतवन और प्राचीन श्रावस्ती खण्डरों के मध्य कोई अधिक दूरी नही है । लगभग दो बजे तक जेतवन से हम निकल कर प्राचीन श्रावस्ती के खण्डरों  की तरफ़ चल पडे । यहाँ  सडक किनारे कई मोनेस्ट्री और जैन मन्दिर दिखाई पडे  । इसलिये पहले यही निर्णय  लिया गया लि इन मन्दिरों से ही शुरुआत की जाये ।
प्रतिहार टीला ( ओडाझार )
056
मुख्य सडक के ठीक किनारे पर यह स्थान है । कहते हैं कि इस स्थान  भगवान्‌ बुद्ध ने विशाल जन समुदाय के मध्य श्रद्धी चमत्कार लिया था । हाँलाकि बुद्ध चमत्कारों  के बिल्कुल भी पक्ष मे नही थे लेकिन एक वर्ग द्वारा उन्हें चुनोती देने के कारण बुद्ध ने यह निर्णय लिया । यह भी कहा जाता है कि बुद्ध ने यहाँ महामाया को अभिधम्म की देशना देकर अहर्त लाभ करवाया था एवं वर्षावास यहीं पूरा किया था ।
श्रीलंका आरामय बुद्ध मन्दिर 
श्रीलंका की श्रद्धालु जनता के द्वारा निर्मित इस भव्य मन्दिर में भगवान बुद्ध की जीवन चर्या को भित्त चित्रों में बडे ही सजीव व कलात्मक शैली में अंकित किया गया है ।
कम्बोज बुद्ध मन्दिर
156 
इस मन्दिर में  बौद्ध शिल्प संस्कृति की अनूठी प्रस्तुति देखने को मिलती है । यह सहेठ महेठ तिराहे पर मुख्य सडक के दक्षिण मे स्थित है ।
जैन मन्दिर 
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जैन मत के अनुसार श्रावस्ती तीर्थकर भगवान्‌ सम्भवनाथ की जन्मस्थली है । घण्टा पार्क के पूर्व मध्य सडक के दक्षिण में शवेताम्बर व दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के जैन मन्दिर बने हैं । शवेताम्बर मन्दिर सफ़ेद संगमरमर पत्थर का बना हुआ है । दोनों मन्दिर दर्शनीय हैं ।
जापानी घण्टा पार्क
143
मुख्य सडक पर एक उधान में विशाल घण्टा लगा है ।
कोरिया बुद्ध मन्दिर
106
122
126
कोरियन शिल्प का यह महायानी बुद्ध मन्दिर मुख्य सडक पर है ।
मायानामर मोनेस्ट्री
0903
0913
इसके अतिरिक्त इसी सडक के दोनों ओर कई और भी मन्दिर हैं जैसे भारत के नव बौद्धों द्वारा निर्मित भारतीय बुद्ध मन्दिर , समय माता मन्दिर , महामंकोल बुद्ध मन्दिर आदि । ओडिझार पर हमें स्थानीय लोगों ने बताया कि यहाँ एक ‘शिव बाबा ’ का मन्दिर है जो वास्तव मे सम्राट अशोक द्वारा स्थापित पत्थर की शिला है जिसे स्थानीय जनता शिव लिंग मानकर पूजा अर्चना करती है । यहाँ तक पहुँचने के लिये ओडीझार के ठीक सामने की रोड से ‘ काब्धारी गाँव ’  के बगल से होकर इस स्थान तक वाहन या पैदल  पहुँचाजा सकता है । यहाँ पहुँचने पर हमारी मुलाकात भिक्षु श्री विमल तिस्स से हुयी ।  भिक्षु श्री विमल तिस्स धर्म प्रसाद पूर्वाराम महाविहार को काफ़ी समय से देख रहे हैं ।
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भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में प्राचीन श्रावस्ती खण्डर का क्षेत्रफ़ल लभग २५० एकड है । इस विस्तूत खण्डरी जंगल के चारों तरफ़ ऊँचे टीले यह सिद्ध करते हैं कि सम्पूर्ण नगर ऊँचे प्राकारों से घिरा था । इन खणडरों के गर्भ में अभी बहुत कुछ अज्ञात पडा है । बुद्ध वाडगमय त्रिपिटक में सम्पूर्ण श्रावस्ती की तत्कालीन कला संस्कृति व सुख समृद्धि की भव्यता का विराट वर्णन है । भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा की जा रही खुदाई व संरक्षण मे कुछ स्थल प्रमाणित किये गये हैं ।
सम्भवनाथ मन्दिर
sambhav nath temple
सम्भवनाथ मन्दिर : साभार : shunya.net
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प्राचीन श्रावस्ती के खण्डर परिसर में प्रवेश करते ही यह देखा जा सकता है । इस स्थल पर जैनियों के तीसरे तीर्थांकर सम्भवनाथ का जन्म हुआ था। लाखोरी ईटॊं से बना हुआ यह गुम्बद युक्त मन्दिर ध्वंस मध्यकालीन युग का प्रतीत होता है ।
सुदत्त महल ( कच्ची कुटी )
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सुद्त्त यानी अनाथपिण्डक का यह निवास स्थल है । आज यह विध्वंस अतीत के विभिन्न काल खण्डों के मिश्रित वास्तु शिल्प का प्रतीक है । ये प्रतीक कुषाण काल से लेकर बारहवीं सदी तक के हैं । ऊपर पार्शव में  चित्र मे सुदत महल के आस पास विदेशी सैलानियों के अपार समूह को  देख सकते हैं । यह चित्र अगुंलिमाल गुफ़ा की छ्त से लिया गया है । कहते हैं कि काल प्रवाह में कोई संत जी कच्ची मिट्टी की कुटी बनाकर रहते थे इसी हेतु जनश्रुति में इस विध्वंस का नाम कच्ची कुटी पड गया ।
आंगुलिमाल गुफ़ा ( पक्की कुटी )
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आंगुलिमाल गुफ़ा नाम जनधारणा में अनजाने में ही कहा गया है । चीनी यात्री ह्वेनसांग व फ़ाह्यान के यात्रा दृष्टातों में इस विध्वंस का आंगुलिमाल के स्तूप के रुप मे वर्णन है , परन्तु पुरातत्वविद होई के अनुसार यह धर्म मंडप का विध्वंस चिन्ह है । इसकी वास्तु रचना से यह विध्वंस स्तूप ही सिद्ध होता है । चित्र को देखें तो नीचे एक सुरंग नजर आ रही है । होई ने विध्वंस की सुरक्षा के लिये वर्षा के जल की निकासी हेतु यह सुरंग खुदवाई  थी । एक मत के अनुसार यह  स्तूप उस दुखी महिला का है जो प्रसव पीडा से आक्रान्त थी और जिसे भिक्षु आंगुलिमाल ने अपने तपोपुण्य से पीडा मुक्त कर माता एंव शिशु दोनों को जीवन प्रदान किया था । कालांतर मे कोई संत जी पक्की कुटी बना के रहने लगे तभी से इसका नाम पक्की कुटी पड गया ।
राजा प्रसेनजित का महल
पुरातव की खुदाई मे भी यह स्थल चिन्हित नही किया जा सका है , परन्तु  यह सर्वविदित है कि श्रावस्ती बुद्ध काल में कोशल देश की एक मात्र राजधानी थी । चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उस महल के विध्वंस को देखा था ।
शाम के ४.३० बज रहे थे । श्रावस्ती में  और भी बहुत कुछ देखने को था लेकिन समय अब नही था । कुछ कडवी यादें भी रही , स्थानीय श्रावस्ती के कुछ युवकों  को  थाई मन्दिर मे उत्पात मचाते देखा , थाई युवतियों और विदेशी सैलानियों को वे बिलावजह निशाना बना रहे थे , यह सब करतूतें अपने देश की गरिमा को कम करती है  । इस तथ्य को भी  याद रखना होगा कि श्रावस्ती भी किसी धर्म विशेष की आराध्य भूमि है , जैसा सम्मान  आप अपने धर्म को देते हैं उतना ही दूसरे धर्मों  को भी देना सीखें । दूसरा श्रावस्ती के अधिकतर खंडहर बहुत ही जीर्ण- शीर्ण  अवस्था मे है , अधिकतर लाखोरी ईटॆं जगह –२ से गायब मिली या रास्ते मे जगह –२ बिखरी मिली । पुरातत्व विभाग को इस विरासत को सँभालने का प्रयास करना होगा ।
शायद अब यह समय है देश मे फ़ैली तमाम बौद्ध विरासत को  बौद्ध मतावलम्बियों के हवाले कर दिया जाये , संभव है इससे  इन विरासतॊ की सम्मानपूर्वक रक्षा की जा सके  ।

Tuesday, January 1, 2013

श्रावस्ती संस्मरण - भाग १


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पूरे दिन का अवकाश मुझे कम ही मिलता है , एक होली वाले दिन और दूसरा दीपावली के अगले दिन , जब क्लीनिक  बन्द रहती है । श्रावस्ती जाने  का मन कई सालों से था , लेकिन संयोग बना गत वर्ष दीपावली के अगले दिन । सोच कर गये थे कि दो घंटे मे श्रावस्ती  का  अतीत देख लेगें लेकिन लगे पूरे छ घंटे । भगवान बुद्ध , अंगुलिमाल  और कई  जैन तीर्थाकरों की कहानियाँ कई जगह पढी थी लेकिन सजीव ही अतीत के उन अवशेषों  को देखने का मौका मिला ।  देर रात घर लौटते हुये लगा कि कुछ पल और  श्रावस्ती में रुक लेते ।   श्रावस्ती भ्रमण  की यह यादें मानो मन:पटल मे आज भी सजीव रुप से अंकित है । यह पोस्ट शायद पिछले वर्ष ही डाल देनी चाहिये थी लेकिन समयभाव के कारण संभव न हो पाया । पूरी यात्रा के दौरान मेरे प्रिय मित्र श्री राजेश चन्द्रा जी का साथ फ़ोन के माध्यम से बना रहा , देर रात घर लौटने तक वह मेरे  और मेरे परिवार के कुशलप्रेम  की बार –२ खबर लेते रहे । उनके  प्रेम रुपी व्यवहार की मधुर स्मृतियाँ मुझे  हमेशा उनकी याद दिलाती रहेगी । साथ ही में पूर्वाराम विहार के भिक्षु श्री विमल तिस्स जी का भी जिनके सहयोग के बगैर कई तथ्यों को जानना मेरे लिये संभव नही होता ।
श्रावस्ती से भगवान्‌ बुद्ध का गहरा रिशता   रहा है । यह तथ्य इसी से प्रकट होता है कि जीवन के उत्तरार्थ के २५ वर्षावास( चार्तुमास ) बुद्ध ने श्रावस्ती मे ही बिताये । बुद्ध वाणी संग्रह त्रिपिटक के अन्तर्गत ८७१ सूत्रों ( धर्म उपदेशॊ )  को भगवान्‌ बुद्ध ने श्रावस्ती प्रवास मे ही दिये थे , जिसमें ८४४ उपदेशों को जेतवन – अनाथपिंडक महाविहार में व २३ सूत्रों को  मिगार माता पूर्वाराम मे उपदेशित किया था । शेष ४ सूत्रों समीप के अन्य स्थानों मे दिये गये थे । भगवान बुद्ध के महान आध्यात्मिक  गौरव का केन्द्र बनी श्रावस्ती का सांस्कृतिक प्रवाह मे भयानक विध्वंसों के बाद वर्तमान मे भी यथावत है ।
इतिहास मे दृष्टि दौडायें तो कई रोचक तथ्य दिखते हैं । प्राचीन काल में यह कौशल देश की दूसरी राजधानी थी। भगवान राम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती बौद्ध व जैन दोनो का तीर्थ स्थान है।
माना गया है कि श्रावस्ति के स्थान पर आज आधुनिक सहेत महेत ग्राम है जो एक दूसरे से लगभग डेढ़ फर्लांग के अंतर पर स्थित हैं। यह बुद्धकालीन नगर था, जिसके भग्नावशेष उत्तर प्रदेश राज्य के, बहराइच एवं गोंडा जिले की सीमा पर, राप्ती नदी के दक्षिणी किनारे पर फैले हुए हैं।
इन भग्नावशेषों की जाँच सन्‌ 1862-63 में जनरल कनिंघम ने की और सन्‌ 1884-85 में इसकी पूर्ण खुदाई डा. डब्लू. हुई (Dr. W. Hoey) ने की। इन भग्नावशेषों में दो स्तूप हैं जिनमें से बड़ा महेत तथा छोटा सहेत नाम से विख्यात है। इन स्तूपों के अतिरिक्त अनेक मंदिरों और भवनों के भग्नावशेष भी मिले हैं। खुदाई के दौरान अनेक उत्कीर्ण मूर्तियाँ और पक्की मिट्टी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो नमूने के रूप में प्रदेशीय संग्रहालय (लखनऊ) में रखी गई हैं। यहाँ संवत्‌ 1176 या 1276 (1119 या 1219 ई.) का शिलालेख मिला है, जिससे पता चलता है कि बौद्ध धर्म इस काल में प्रचलित था। जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान्‌ महावीर ने भी श्रावस्ति में विहार किया था। चीनी यात्री फाहियान 5वीं सदी ई. में भारत आया था। उस समय श्रावस्ति में लगभग 200 परिवार रहते थे और 7वीं सदी में जब हुएन सियांग भारत आया, उस समय तक यह नगर नष्टभ्रष्ट हो चुका था। सहेत महेत पर अंकित लेख से यह निष्कर्ष निकाला गया कि 'बल' नामक भिक्षु ने इस मूर्ति को श्रावस्ति के विहार में स्थापित किया था। इस मूर्ति के लेख के आधार पर सहेत को जेतवन माना गया। कनिंघम का अनुमान था कि जिस स्थान से उपर्युक्त मूर्ति प्राप्त हुई वहाँ 'कोसंबकुटी विहार' था। इस कुटी के उत्तर में प्राप्त कुटी को कनिंघम ने 'गंधकुटी' माना, जिसमें भगवान्‌ बुद्ध वर्षावास करते थे। महेत की अनेक बार खुदाई की गई और वहाँ से महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त हुई, जो उसे श्रावस्ति नगर सिद्ध करती है। श्रावस्ति नामांकित कई लेख सहेत महेत के भग्नावशेषों से मिले हैं।
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महामंकोल थाई मन्दिर
प्रात: दस बजे तक हम श्रावस्ती की सडकों पर थे । दूर से ही विशाल महामंकोल थाई मन्दिर और बुद्ध की प्रतिमा दिख रही  थी  । लेकिन मन्दिर मे पर्वेश करने पर ज्ञात हुआ कि स्थानीय लोगों के लिये मन्दिर के द्वार २ बजे के बाद खुलते है । मन्दिर की फ़ोटॊ लेने  की अनुमति नही है । हाँलाकि बाहर से फ़ोटॊ ले सकते हैं । दोपहर २.३० बजे हम इस विशाल फ़ैले हुये प्रांगण के अन्दर प्रवेश कर गये । मन्दिर का संचालन थाई युवतियों और उन्के स्टाफ़ द्वारा किया जाता है । थाई शैली पर बना यह मन्दिर बेहद दर्शीनीय  है ।
जेतवन अनाथपिण्क महाविहार ( सहेठ वन )
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भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित इस आश्रम ( विहार ) में अब केवल कुटियों की बुनियाद मात्र रह गयी है । कहते हैं  कि बुद्ध विहार के निर्माण  लिये राजकीय जेतवन का चयन सुद्त्त ने किया था । सुदत्‌ ने राजकुमार जेत से उधान के लिये किसी भी कीमत पर आग्रह किया । कुमार जेत  ने  भूखन्ड के बराबर सोने की मोहरों में सुदत ने लेन देन सुनिशचित किया । १८ करोड में विशाल भव्य सुविधाजनक विहार का निर्माण हुआ । राजकीय गौरव सम्मान के साथ यह अति रमणीय स्थान भगवान बुद्ध को दानार्पित किया गया । यही कारण है कि धर्म क्षेत्र मे सुदत – अनाथपिडंक का नाम चिरस्थाई हो गया । इसी तपोभूमि पर भगवान बुद्ध ने विशाल भिक्षु संघ के साथ उन्नीस चार्तुमास ( वर्षावास ) व्यतीत किये । सम्पूर्ण ८७१ उपदेशों में से ८४४ सूत्र इस  जेताराम मे ही भगवान्‌ बुद्ध ने दिया था ।
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                  मन्दिर सं. १ एवं मोनेस्ट्री
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               ध्यान लगाते हुये विदेशी तीर्थयात्री
ऐसा लगता है कि  इस तपस्थली पर नैसर्गिक शान्ति की   सदोऊर्जा सर्वत्र आज भी विधमान है । कुछ क्षण आँखों को बन्द कर के गन्ध कुटी के सामने खडा रहकर इस उर्जा का स्वानुभव किया जा सकता है । यह मेरा  दिव्यस्वपन था या कल्पनाशीलता , यह कहना मुशकिल है ।
जेतवन मे ही  आगे बढने पर वयोवृद्ध पीपल वृक्ष ‘ आनन्द बोध ’ के दर्शन होते हैं । इसे पारिबोधि चैत्य भी कहते हैं । भन्ते आनन्द व भन्ते महामौदगल्यायन के सद्‌ प्रयत्न से बोध गया के महायोगी वृक्ष की संतति तैयार की गयी , जिसे आनाथपिडंक ने यहाँ आरोपित किया था । कहते हैं कि भगवान्‌ बुद्ध ने इसके नीचे एक रात्रि की समाधि लगाई थी ।
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              आनन्द बोधि वृक्ष ( पारिबोधि चैत्य)
आनन्द बोधि वृक्ष के आस पास कई कुटियों की बुनियादें शेष हैं जो बुद्धकाल के स्वर्णिम युग की एक झलक दिखाती हैं । इनमें से प्रमुख हैं : कौशाम्बी कुटी ( मन्दिर सं० ३ ), चक्रमण स्थल , आनन्द कुटि , जल कूप , धर्म सभा मण्डप , करील कुटी( मन्दिर सं० १ ) , पुष्करिणी , शवदाह स्थल, सीवली कुटी (मन्दिर सं० ७ ), आंगुलिमाल कुटी , धातु स्तूप, जन्ताधर स्तूप, अष्ट स्तूप , राजिकाराम ( मन्दिर सं० १९ ) , पूतिगत तिस्स कुटी ( मन्दिर सं० १२ ) । शेष भग्नावशेष भी कुटियों के अथवा धातु स्तूपों के हैं ।
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                                  अष्ट स्तूप
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                 गन्ध कुटि ( मन्दिर सं० २ )
इन स्तूपों के अलावा जिस स्तूप का सर्वाधिक महत्व है,  वह है गन्ध कुटि ( मन्दिर सं० २ ) । भगवान्‌ बुद्ध का यह निवास स्थान था । चंदन की लकडी से निर्मित यह सात तल की सुंदर भव्य कुटी थी । इसे अनाथपिण्क ने बनवाया था । वर्तमान खण्डर के ऊपर का भाग बुद्धोतर काल का पुनर्निर्माण है । नीचे का भाग बुद्ध्कालीन है , इसमें भगवान्‌ बुद्ध की प्रतिमा बाद में स्थापित की गयी थी । चीनी यात्री फ़ाह्यान ने इस विध्वंस पर दो मंजिला ईंट का बना भव्य बुद्ध मन्दिर देखा था । ह्ववेनसांग के यात्रा काल मे वह मन्दिर नष्ट हो चुका था । ढांचें से स्पष्ट होता है कि दीवारों की आशारीय मोटाई छ: फ़ुट व प्रकारों की आठ फ़ुट है । सम्पूर्ण गन्धकुटी परिसर की माप ११५ * ८६ फ़ीट है ।
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                        धर्म सभा मण्डप
गन्ध कुटि से लगा हुआ  धर्म सभा मण्डप भगवान्‌ बुद्ध का धर्मोपदेश देने का स्थान था । यहाँ  भिक्षुओं और अन्य जनों को बैठाकर भगवान बुद्ध धर्मौपदेश करते थे । इनके द्वारा ८४४ धर्म उपदेश यही से दिये गये थे ।
कुछ अन्य स्तूपों के चित्र :
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                              मन्दिर सं. ११ एवं १२
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                 मन्दिर सं. १९ एवं मोनेस्ट्री
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                          स्तूप संख्या ५
जेतवन से हम चलते हैं महेठ वन की ओर ( लेकिन अगले अंक में )
…….. शेष अगले भाग में …..