महात्मा बुद्ध के द्वारा स्त्रियों का संघ में प्रवेश की अनुमति एक युगांतकारी घटना थी . प्रव्रज्या प्राप्त स्त्रियाँ थेरी कहलाती थीं , जिन्होंने कविता में अपनी गाथाएँ लिखीं . थेरी गाथाएँ तत्कालीन समाज में स्त्री की स्थिति की समझ के लिए महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज हैं . रजनीश कुमार बौद्ध कालीन इस सामाजिक क्रान्ति की व्याख्या कर रहे हैं इस आलेख में. स्त्रीकाल के दलित स्त्रीवाद अंक में प्रकाशित आलेख का यह एक बड़ा हिस्सा है ।
भगवान बुद्ध ने संघ में जातिवाद या लिंग भेद को कोई स्थान नहीं दिया। उनकी दृष्टि में सभी लोग समान थे, भगवान बुद्ध ने चुल्लवग्ग में स्पष्ट कहा था, ‘ हे! भिक्षुओं! जिस प्रकार महानदियाँ, महासमुद्र में मिलकर अपने पहले नाम गोत्र को छोड़ देती हैं ,अर्थात महासमुद्र के ही नाम से ही प्रसिद्ध होती हैं ऐसे ही भिक्षुओ! विभिन्न जाति वर्णों के लोग तथागत द्वारा बतलाये गये। धर्म -विनय में प्रव्रजित होकर पूर्व के नाम गोत्र को छोड़ देते हैं। अर्थात् दीक्षा लेकर यह भूल जाते हैं कि हमारा अमुक वर्ण था अमुक वंश था।‘
तत्कालीन भारतीय समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति काफी निम्नस्तर की थी, उन्हें सम्मान प्राप्त न था, उसको देखते हुये भिक्षुणी संघ की स्थापना एक बड़ा ऐतिहासिक और साहसिक निर्णय था. भिक्षुणी संघ की स्थापना कराने में आनन्द का विशेष योगदान रहा- उन्होंने ही भगवान बुद्ध से महिलाओं को संघ में दीक्षित करने के लिए प्रार्थना की थी और तर्क सहित प्रेरित भी किया था।
आनन्द भगवान बुद्ध के चचेरे भाई थे। इनकी माता का नाम विदेह कुमारी था तथा पिता का नाम अमितोदन था- जो शुद्धोदन भगवान बुद्ध के पिता से छोटे थे। बुद्धत्व प्राप्ति के दूसरे साल भिक्षु आनन्द की प्रव्रज्या हुयी थी। आनन्द पच्चीस वर्ष तक छाया की तरह भगवान बुद्ध की सेवा करते रहे। आनन्द को चैरासी हजार धर्मस्कंध याद थे। पहली बौद्ध संगीति में ध्म्म का ज्ञाता होने के कारण उन्हें ‘धम्मधर’ की उपाधि से विभूषित किया गया था . इन्होंने इस संगीति में मुख्य रूप से भाग लेकर ध्म्म का संगायन किया।
भिक्षुणी-संघ की स्थापना का विवरण चुल्लवग्ग में मिलता है वह महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक है-‘उस समय भगवान बुद्ध शाक्यों के देश में कपिलवस्तु के न्योग्राधराम में विहार कर रहे थे। तब महाप्रजापतीगौतमी ने भगवान के सम्मुख जाकर निवेदन पूर्वक याचना की , ‘ भन्ते! अच्छा हो यदि स्त्रियाँ भी तथागत के दिखाये धर्म - विनय में प्रव्रज्या पायें.’
गौतमी ने तीन बार प्रार्थना की, भगवान बुद्ध ने तीनों बार प्रार्थना अस्वीकार कर दी और वहाँ से वे वैशाली चले गये और वैशाली जाकर महावन की कूटागार शाला में विहार करने लगे। कुछ समय पश्चात् महाप्रजापती गौतमी अपना सिर मुड़वाकर पाँच सौ शाक्य स्त्रियों को साथ लेकर भगवान बुद्ध के पास वैशाली आ गयीं। यात्रा करते-करते उनके पैर फूल गये थे, शरीर धूल से भर गया था और काफी दुःखी व उदास लग रही थीं। जब यहाँ स्थविर आनन्द ने उनकी उदासी का कारण पूछा तो महाप्रजापती गौतमी ने आनन्द को बताया कि ‘स्त्रिायों को बौद्ध संघ में प्रव्रज्या देने के लिये भगवान आज्ञा नहीं दे रहे, इसलिये मैं उदास हूँ। तब आनन्द ने भगवान बुद्ध के पास जाकर स्त्रिायों को संघ में प्रव्रजित करने के लिये तीन बार आग्रह किया ,परंतु भगवान ने तीनों बार अस्वीकार कर दिया। तब आनन्द ने दूसरी प्रकार से भगवान से अनुज्ञा माँगते हुये कहा कि ‘भन्ते! क्या तथागत प्रवेदित धर्म घर से वेघर, प्रव्रजित हो स्त्रिायाँ स्रोतापत्ति फल, सक्रदागामिफल, अनागामि फल तथा अर्हत्व का साक्षात् कर सकती हैं? भगवान ने कहा, ‘साक्षात् कर सकती हैं, आनन्द !
तब आनन्द ने पुनः कहा, ‘ भन्ते! यदि तथागत-प्रवेदित धर्म -विनय में प्रव्रजित होकर स्त्रियाँ साक्षात् कर सकने योग्य हैं। तो भन्ते! जो अभिभाविका हैं,पोषिका हैं, वह भगवान की मौसी महाप्रजापति गौतमी बहुत उपकार करने वाली हैं, उन्होंने माँ की मृत्यु के बाद भगवान का पालन पोषण किया है। भन्ते! अच्छा हो यदि महिलाओं को प्रव्रज्या की आज्ञा मिले।‘ और तब भगवान बुद्ध ने उत्तरदायित्व पूर्ण नियमों के साथ महाप्रजापतीगौतमी व अन्य पाँच सौ शाक्य महिलाओं को प्रव्रज्या की अनुमति दे दी।
थेरीगाथा-
थेरीगाथाओं में 73 भिक्षुणियों की 522 गाथाओं का संग्रह किया गया है, जो कि 16 भागों में विभक्त हैं। कुछ गाथाओं का संग्रह सामूहिक रूप में किया गया है। ये सभी भिक्षुणियाँ बुद्ध कालीन थीं और उनकी शिष्यायें भी थीं। अत्यन्त संगीतात्मक भाग में आत्म अभिव्यंजना पूर्ण गीत काव्य शैली के आधर पर भिक्षुणियों ने अपने जीवन अनुभव को बताया है. नैतिक सच्चाई और भावनाओं की गहनता की विशेषता ही उसका काव्यगत सौन्दर्य है। भिक्षुणियाँ निराशावदी नहीं है। निर्वाण की परम शक्ति का वे खुशी से वर्णन करती हैं- ‘अहो सुखं ति सुखो झायामी ‘ ‘अहो! मैं कितनी सुखी हूँ! मैं कितने सुख से ध्यान करती हूँ’ यह उद्गार आत्मध्वनि को प्रदर्शित करते हैं। बार-बार उनका यही प्रसन्न उद्गार होता है, ‘सीतिभूतम्हि निब्बुता’ अर्थात ‘ निर्वाण को प्राप्त कर मैं परम शांत हो गई, निर्वाण की परम शांति का मैंने साक्षात्कार कर लिया है।‘ थेरीगाथा के स्वरूप को आम्रपाली की गाथाओं में सन्निहित उद्गारों से समझा जा सकता है-‘ पुष्पराशि से सुगन्ध्ति मेरे केश सुगन्ध् से परिपूर्ण मंजूषा के समान महकते थे। परंतु आज इनमें खरगोश के रोमों की सी दुर्गन्ध् आती है। सत्यवादी बुद्ध के वचन कभी मिथ्या नहीं होते।‘ इस प्रकार अन्य उत्कृष्ट उद्गारों के साथ आम्रपाली ने अपनी वृद्धावस्था में अपने शरीर के प्रति विचार प्रकट किये हैं। इसी तरह के सभी उदाहरण साहित्यिक दृष्टि से काव्य के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। थेरीगाथा के संबंध् में डा.रायस डैविड्स का कथन है कि ‘थेरीगाथा की बहुत सी गाथायें न केवल उनके बाह्य रूप की दृष्टि से अत्यंत मनोरम हैं बल्कि वे उस उँची आध्यात्मिक साध्ना की भी गवाही देती हैं, जिसका आदर्श बौद्ध जीवन से सम्बन्ध् था। जिन स्त्रियों ने भिक्षुणी की दीक्षा ली , उनमें से अधिकांश उँची आध्यात्मिक पहुँच के लिए और नैतिक जीवन के लिए प्रसिद्ध हुईं। कुछ स्त्रियाँ तो न केवल पुरुषों की शिक्षिका तक बन गईं ध,र्म की बारीकियों को समझा सकने वाली, बल्कि उन्होंने उस चिरन्तन शन्ति को भी प्राप्त कर लिया था, जो आध्यात्मिक उड़ान और नैतिक साध्ना के ही पफलस्वरूप प्राप्त की जा सकती है।‘
थेरीगाथा ग्रंथ की महत्ता इस संबंध् में और अधिक बढ़ जाती है , जब हमें उसमें इतिहास के उस कालखण्ड की विशेष जानकारी मिल जाती है, जहाँ भगवान बुद्ध ने एक ऐसे समय में महिलाओं को आध्यात्म का रास्ता बताया, जब समाज में महिलाओं की भूमिका काफी सीमित व निम्न स्तर की रही हो ,व विश्व की रचना व प्रगति में महिलाओं को भागी मानने के बजाय पुरुषों ने उन्हें बाधक के रूप में देखा हो, तथा ग्रंथ द्वारा यह भी जानकारी उपलब्ध् होती है कि स्त्रियाँ किसी भी दृष्टि से पुरुषों से कम नहीं होती और वे बहन, माँ, पत्नी के अतिरिक्त एक कुशल शिक्षिका व उपदेशकर्ता भी बन सकती हैं। थेरी शुक्ला द्वारा राजगृह निवासियों को ध्म्म उपदेश देना , थेरी नन्दउत्तरा द्वारा निग्र्रन्थ साधुओं के साथ तर्क करना, सोणा भिक्षुणी को स्वयं भगवान बुद्ध ने भिक्षुणी – साधिकाओं में अग्रणी उद्घोषित किया था, पटाचारा भिक्षुणी द्वारा अपनी भिक्षुणी-शिष्याओं को कुशलता से उपदेशित करना, किसा गौतमी तथा अन्य और बहुत सारी भिक्षुणियों का समाज में अग्रणी भूमिका निभाने का साक्ष्य मिलता है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।
संघ में सभी वर्णों की महिलायें दीक्षित हुई थीं, इससे यह स्पष्ट होता है भगवान बुद्ध ने सभी के लिये समान रूप से संघ में प्रवेश को बल दिया था। थेरीगाथा में संदर्भ मिलता है कि भिन्न-भिन्न जाति, कुल ,धर्म से प्रव्रजित होने वाली महिलाओं में ब्राह्मण कुल से- कुल अट्ठारह थेरी मैत्रिका, दंतिका, सोमा, भद्राकापिलायिनी,नंदउत्तरा, मुक्ता-१ , मुक्ता-2, उत्तमा-2, मित्तकाली, सवुफला,चन्द्रा,गुप्ता, चाला,उपचाला, शीर्षोपचाला, रोहिणी,सुन्दरी,शुभा-2 सम्मिलित थीं। क्षत्रिय वुफल से दो थेरीयाँ, आतरा और सिंहा थीं। पूर्णा, तिष्या-1,तिष्या 2, अभिरूपानन्दा, मित्रा, सुंदरीनंदा,महाप्रजापतीगौतमी, ये सभी शाक्य कुल से सात-थेरी संबंध् रखती थी,वैश्य कुल की सात-थेरी- महिलाओं में ध्म्मदिन्ना, उत्तमा-1, भद्राकुण्डलवेफशा, पटाचारा, सुजाता, अनुपमा, दासी सम्मिलित थीं। जबकि राजवंशों की चार-थेरी- महिलाओं में सुमना-2 ,वृद्ध आलविका ,शैला, क्षेमा, सुमेध आदि थीं। अड्ढकासी और विमला वैश्यायें थीं तो पद्मावती और आम्रपाली जैसी गणिकाओं ने भी संघ में दीक्षा ली थी. इसके अतिरिक्त उच्चकुल -प्रतिष्ठित व कुलीन घरों की महिलाओं की संख्या भी काफी थी यदि पूर्णिका दासी की पुत्री थी तो चापा बहेलिया सरदार की और शुभा-1 सुनार की पुत्री थी। सारांश यह है कि अनेक जाति-कुलों से आकर महिलाओं ने बुद्ध शासन में दीक्षा ग्रहण की थी, यह एक क्रांन्तिकारी सफलता थी कि महिलाऐं मुक्ति की खोज में स्पष्ट रूप से शामिल थीं, दूसरे शब्दों में भगवान बुद्ध व उनके शिष्य आनन्द- जैसे कुछ अन्य शिष्यों का यह स्पष्ट मानना था कि जाति की तरह लिंग भी किसी व्यक्ति द्वारा दुःख से छुटकारा पाने के लक्ष्य में बाधा नहीं हो सकता।
सामाजिक जीवन में ‘स्त्री जीवन की यदि बात की जाये तो ग्रंथ में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के विषय में संपूर्ण जानकारी मिलती है, थेरीगाथा में सम्मिलित गाथाओं के आधर पर तत्कालीन स्त्री की स्थिति, घर परिवार की जानकारी, दास-प्रथा, वैश्यावृत्ति,पुनर्विवाह,जाति-वर्ग,अश्पृश्यता आदि को लेकर समाज में क्या मान्यतायें थी, क्या रूढि़याँ थी, सभी का विश्लेषण करने का प्रयास किया है। महिलाएँ घर से बाहर निकल कर उपदेशकर्ता गुरु के रूप में स्वीकारी गयीं ,जो संघ कि में आकर संभव हो सका। उनको संपूर्ण स्वतंत्राता के साथ पूर्ण विकास का माहौल लगभग शत प्रतिशत संघ में मिला, पर यदि बुद्ध से पूर्व और बुद्ध काल के सामाजिक जीवन के चिह्न तलाशें जाएँ तो थेरीगाथा में बहुतायत में मिलते हैं जिनका सहज अनुमान किये गये विश्लेषण के आधर पर लगाया जा सकता है-
गृहकार्यो और उनके कारण उत्पन्न-दुखों से उद्विग्न होकर मुक्ता, गुप्ता और शुभा जैसी स्त्रियों ने घर छोड़कर सन्यास ले लिया था। इसके अतिरिक्त हमें थेरीगाथा से पता चलता है कि इस समय पर दास प्रथा लागू थी। धनिकों की औरतें अपने घरों का काम नहीं करती थीं, उनके घर का काम दासियाँ करती थीं। पुण्णिका ऐसी ही दासी थी, वह अपनी गाथा में कहती है- ‘मैं पनहारिन थी। सदा पानी भरना ही मेरा काम था। स्वामिनियों के दण्ड के भय से,उनकी क्रोध् भरी गलियों से पीडि़त होकर मुझे कड़ी सर्दी में भी सदा पानी में उतरना पड़ता था।‘
थेरी सुमंगल माता अपनी गाथा में कहती हैं ‘ सुमुत्तिका सुमुत्तिका, साधुमुत्तिकाम्हि मुसलस्स। अहिरिको मे छत्तकं वा पि, उक्खलिका में देड्डुभं वा ति।। ‘अहो! मैं मुक्त नारी हूँ। मेरी मुक्ति कितनी ध्न्य है! पहले मैं मूसल ले कर धान कूटा करती थी, आज मैं उससे मुक्त हो गई हूँ। मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे ,खाना पकाने , बरतन धोने के कामों से मैं मुक्त हो गई हूँ , मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों की छतरी से भी तुच्छ समझता था, जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।‘
मुत्ता थेरी की अपनी गाथा इस प्रकार है- ‘सुमुत्ता साधुमुत्ताहि, तीहि खुज्जेहि मुत्तिया, उदुक्खलेन मुसलेन, पतिना खुज्जकेन च। मुत्ताम्हि जातिमरणा, भवनेत्तिसमूहता ति।। ‘मैं अच्छी तरह से विमुक्त हो गई हूँ। तीन टेढ़ी चीजों से ओखली से, मूसल से और अपने कुबड़े स्वामी से, मैं अच्छी तरह मुक्त हो गई हूँ। मैं आज.....जाति और मरण से भी मुक्त हो गई हूँ। मेरी संसार-तृष्णा ही समाप्त हो गई है।‘
गुत्ता थेरी ने पुत्र और धन संग्रह आदि भौतिक ऐश्वर्यों को त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण की थी- गुत्ते यदत्थं पब्बज्जा, हित्वा पुत्तं वसुं पियं.’
सुनार की बेटी सुभा थेरी ने क्या-क्या छोड़ा, गाथा में उत्तर इस प्रकार है- ‘मैं अपने सभी भाई-बंधु, सम्बन्धी जनों,दास, सेवक, ग्राम, विस्तृत और समृदद्ध खेत, जीवन की सभी रमणीय प्रमोदकारी वस्तुएँ और विपुल सम्पत्ति आदि सब को छोड़ कर प्रव्रजित हो गई।‘
संघा थेरी इस मामले में मनोवैज्ञानिक बात कहती हुई वर्णन करती है- ‘प्रव्रज्या ले कर मैंने घर छोड़ा, अपनी प्रिय सन्तान को छोड़ा, अपने प्रिय पशुओं को छोड़ा। राग और द्वेष को छोड़ा, अविद्या को छोड़कर विरक्त हुई। तृष्णा को समूल नष्ट कर अब मैंने निर्वाण की परम शक्ति का अनुभव किया है। निर्वाण का अनुभव करके मैं परम शान्त हो गई हूँ।' थेरी इसिदासी की गाथाओं में असमान समाज-व्यवस्था और परिवार में अपने ही पति द्वारा तिरस्कृत-स्त्री की कथा मिलती है। वह निर्दोष व सदाचारिणी रूप में रहकर दासी के समान सबकी सेवा करती रही। जिस पुरुष की उसने सेवा की उसी ने उपेक्षा की और तिरस्कृत किया और अपमानपूर्वक त्याग भी दिया था। इसी वितृष्णा से पूर्ण इसिदासी ने उसी को छोड़कर सभी वासनाओं पर मुक्ति पा ली थी, और उसी अन्याय से क्षुब्ध् होकर उसने उपसम्पदा ग्रहण की और भिक्षुणी-संघ में प्रवेश लिया था। अतः नारी की समाज में क्या स्थिति थी कुछ हद तक इसका साक्षात् प्रतिबिम्ब इसिदासीथेरी की गाथाओं में वर्णित है।
सोमा थेरी श्यामा ने अपनी प्रिय सखी की मृत्यु के कारण शोक मग्न होकर प्रव्रज्या ली और चित्त की शान्ति प्राप्त करने में सपफल रही। उब्बिरी थेरीगाथा में उब्बिरी के रूप में उस स्त्री की करुण स्वर है जो पसेनदि राजा की राजमहिषी होने के उपरान्त भी अपनी कन्या की मृत्यु के कारण निरन्तर श्मशान में विलाप करती थी। पुत्री से पुत्रा की श्रेष्ठता तो युगीन सामाजिक-सन्दर्भों की अपनी विशेषता थी। तथागत के उपदेश से उब्बिरी ने अपनी शोक-विमुक्ति की उद्घोषणा की थी। कठोर-साध्नारत चीरवरधरिणी भिक्षुणियों में प्रधान मानी जाने वाली किसागोतमी थेरी की गाथा में दुःख का अनुभव करने वाली सहस्रों उन अनेक स्त्रिायों की मानसिक-वेदनाओं की यातना भरी है जो सदैव दुखमय-जीवन की यात्रा में ही अपनी नियति देखती है।
शाक्यवंशीय सुन्दरी नन्दा अपने परिवारजनों के प्रव्रजित होने के कारण भिक्षुणी-संघ में सम्मिलित हुई थी। तथागत ने जिस मानव-मुक्ति का द्वार खोला, उसके प्रभाव से उसके सभी परिवार जन बौद्ध ध्म्म में दीक्षित हो बुद्ध के अनुयायी बन गए। तब नन्दा ने सोचा- ‘इस सांसारिक जीवन का मेरे लिए भी क्या महत्व है! बाद में भगवान ने जिस रूप की अनित्यता का उपदेश दिया था उसके कारण उसका स्वयं के प्रति भी आकर्षण नहीं रहा। जीवन की अनित्यता और दुःख के कारण नन्दा का चित्त वैराग्य में स्थित हुआ और देह-सौन्दर्य से विमुख उस नन्दा ने अपनी ही प्रज्ञा से शाश्वत-सत्य का अवलोकन किया व निर्वाण प्राप्त किया।
पटाचाराथेरी की मर्मान्तक वेदना कठोर से कठोर चित्त वाले के हृदय को विचलित करने वाली वेदना की कथा है। धनी श्रेष्ठि-परिवार की कन्या पटाचारा अपने दुःखों को सहती अकेली विक्षिप्त सी घूमती रही थी। सब कुछ अनित्य है इस तथ्य का बोध् होने पर पटाचारा की चित्त-साध्ना निर्वाणोन्मुख दीपशिखा की भांति पूर्ण निवृत्त रूप में उसके उद्गारों में व्यंजित हुई है। महाप्रजापतीगौतमी भारतीय नारी-जीवन के इतिहास में युगान्तरकारी चेतना की अग्रदूत बनीं। अनेक जाति-संस्कार से विमुक्त होकर प्रजापति द्वारा भगवान् बुद्ध के दर्शनोपरान्त भाव-विभोर होकर की गयी वन्दना निश्चय ही पालि-साहित्य का उत्कृष्ट अंश है। अतः सर्वोत्तम व कालजयी ऐसे ही उद्गार अन्य थेरियों ने भी व्यक्त किये हैं। बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा व्यक्त की गई सभी गाथाएँ मानव इतिहास की सबसे सशक्त अभिव्यक्तियाँ हैं।
भगवान बुदद्ध स्त्रिायों को संघ में ऐतिहासिक प्रव्रज्या देकर, शिक्षा के अध्किार की दृष्टि से उनके ज्ञान प्राप्ति में सहयोगी बने थे। अतः स्त्रियों के सम्पूर्ण उत्थान पतन के लिये भगवान बुद्ध से पूर्व काल से लेकर आधुनिक काल तक की स्थिति पर ध्यान देना आवश्यक है। आदिकाल से लेकर इतिहास के सभी कालखडों में विभिन्न रूपों में स्त्री की स्थिति में बहुत परिवर्तन हुये हैं ,समाज में उसे कभी तो मानवीय तथा कभी अमानवीय दृष्टियों से देखा गया। जिनका सम्पूर्ण प्रभाव स्त्री की शिक्षा, विवाह, परिवार, संपत्ति और सत्ता संबंधी अध्किारों पर पड़ा है। इन अधिकारों के प्रकाश में किसी भी समाज में स्त्री की सामान्य स्थिति को परखा जा सकता है। लेकिन समाज में स्त्री का स्थान और स्वरूप जानने के लिये उसकी दीर्घ जीवन परम्पराओं को देखना जरूरी है। और इसके लिये सभी उपलब्ध् ऐतिहासिक ग्रंथों , दस्तावेजों और साहित्यिक रचनाओं को ही आधर माना जा सकता है। थेरीगाथा ग्रन्थ व सम्पूर्ण पालि साहित्य इसी क्रम की महत्वपूर्ण कड़ी हैं।
साभार : http://www.streekaal.com/2014/07/blog-post_14.html
रजनीश कुमार
रजनीश कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय में बौद्ध अध्ययन विभाग में शोधरत हैं. रजनीश से इनके मोबाइल न 09911639095 पर संपर्क किया जा सकता है