❇ " दक्षिणाविभङ्गसुत्तं "
❇ " दक्षिणाओंके प्रकार और दक्षिणा विशुद्धियाँ " ❇
⚫⚫ यह प्रसंग बडा ही रोचक है। ⚫⚫
ऐसा मैंने सुना है कि एक समय भगवान् बुद्ध शाक्य प्रदेश स्थित कपिलवत्थु नगरी के न्यग्रोधाराम में साधना हेतु विराजमान थे।
वहां किसी समय महाप्रजापति गौतमीजी भगवान बुद्ध के लिए एक नवनिर्मित दुशाला लेकर जहां भगवान विराजमान थे वहां पहुंच कर, भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गयी। एक ओर बैठी महाप्रजापति गौतमी ने भगवान को यह निवेदन किया ➡
" भन्ते ! यह नया दुशाला आप के लिए मैंने स्वयं काता है, स्वयं बुना है। अतः आप इसे कृपा करते हुए स्विकार करें । "
ऐसा कहे जाने पर भगवान ने महाप्रजापति गौतमी को यों उत्तर दिया " गौतमी इसे आप संघ को ही दे दें। संघ को दान करने से मेरा भी सम्मान हो जायेगा और संघ का भी। "
ऐसा कहे जाने पर आयुष्मान आनंद ने भगवान से यों निवेदन किया
भन्ते आप कृपा करके महाप्रजापति गौतमी द्वारा भेट किया गया यह दुशाला स्विकार कर लें। यह आपकी अभिभावक तथा आपका पालन-पोषण करने वाली, आपको दुध पिलाने वाली, माता हैं, मौसी है।
इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप उन्हें निराश ना करें। उनके द्वारा लायी गयी भेट स्वीकार करें।
▪ तब भगवान आनंद को संबोधित कर कहते हैं ----
" बात यहाँ यह है आनंद कि कोई प्राणी किसी न किसी अन्य प्राणी के सहारे ही बुद्ध का, धम्म का, संघ का शरणागत होता है ; परंतु आनंद उसके बदले यह जो अपने से बड़ों के प्रति अभिवादन, उठकर आदर-सत्कार करना, सेवा करना, चीवर पिण्डपात शयनासन और औषधि इत्यादि देना है ; उसे मैं इस प्राणी के प्रति किया गया प्रत्युपकार नहीं कहता ।
▪ यहां आनंद कोई प्राणी किसी के सत्परामर्श के सहारे ⚫ दुःख, ⚫दुःखसमुदय, ⚫दुःख निरोध ⚫तथा दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा के लिए निश्चिन्त होता है तब
इस प्राणी का उस प्राणी के प्रति किये गये अभिवादन, दान . को मैं प्रत्युपकार नहीं मानता।
आनंद यहाँ मैं तुम्हें 14 ( चौदह) व्यक्तिगत दक्षिणाएँ बताता हूँ, सुनो
☑ चौदह प्रातिपुद्गलिक दक्षिणाएँ इस प्रकार है ➡
1 - तथागत अर्हत् सम्यक् संम्बुद्ध के निमित्त कोई दान देता है वह ⚫प्रथम दक्षिणा
2 - प्रत्येकसम्बुद्ध के लिए ⚫दूसरी दक्षिणा
3 - तथागत के ञ्ञानी ( अर्हत्) शिष्य के निमित्त ⚫तिसरी दक्षिणा ,
4 - अर्हत्वफल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के निमित्त, ⚫चौथी दक्षिणा,
5 - आनागामी भिक्षु के निमित्त ⚫पाँचवीं दक्षिणा
6 - अनागामी फल प्राप्ती हेतु लगे भिक्षु के प्रति --- ⚫छठी दक्षिणा
7 - सकृदागामी के निमित्त ⚫ सातवीं दक्षिणा
8 - सकृदागामी फल के लिए लगे ⚫आठवीं दक्षिणा
9 - स्रोतापन्न के निमित्त ⚫ नवीं दक्षिणा
10 - स्रोतापत्ति फल के साक्षात्कार में लगे भिक्षु के निमित्त ⚫ दसवीं दक्षिणा
11 - ग्राम या संघ के बाहर रहने वाले वीतराग के लिए ⚫ग्यारहवीं दक्षिणा
12 - शीलवान के निमित्त ⚫ बारहवीं दक्षिणा
13 - दुःशील व्यक्ति के लिए ⚫तेरहवीं दक्षिणा
14 - पशु-पक्षियों के लिए ⚫चौदहवीं दक्षिणा
➡ अब आगे दान की फलप्राप्ती बताते हैं
▪ वहां आनंद पशु - पक्षियों के निमित्त किये गये दान की सौ गुणा,
▪ दुःशील के लिए दिये गये के 1000 गुणा,
▪ शीलवान व्यक्ति के निमित्त दिया गया दान का फल एक लाख गुणा,
▪ संघ बाहर के वीतराग के निमित्त --एक करोड़ गुणा, ▪ स्रोतापत्ति फल के साक्षात्कार में लगे हुए के निमित्त दिये गये दान के, सकृदागामी फल की आशा रखनी चाहिए।
▪ सकृदागामी के निमित्त दिया गया दान का फल --
अनागामी ।
▪ अनागामी के लिए दिये गये के निमित्त का फल अर्हत्व फल,
▪ अर्हत्व पद प्राप्त करने के लिए लगे के निमित्त दिया गया दान के निमित्त प्रत्येकसम्बुद्ध,
▪ तथा ' तथागत सम्यक् संम्बुद्ध ' के निमित्त किये गये दान की तो बात ही क्या है , अकल्पनीय है ।
☑ आगे भगवान बुद्ध , " 7 संघगत दक्षिणाएँ " बताते हुए कहते हैं ; आनंद , संघ के लिए की गई ये सात दक्षिणाएँ है । कौनसी सात ध्यान से सुनो ➡
⚫ बुद्धप्रमुख दोनों ( भिक्षुसंघ और भिक्षुणीसंघ ) के लिए दान करना । यह ➡ पहली संघगत दक्षिणा हुई ।
⚫बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद दोनों संघों को दान देना यह ➡ दूसरी संघगत दक्षिणा हुई ।
⚫केवल भिक्षुसंघ को ही दान देना यह ➡ तीसरी
⚫केवल भिक्षुणीसंघ को दान देना यह ➡ चौथी
⚫इतने भिक्षु तथा इतनी भिक्षुणियों को दान देना
यह ➡ पाँचवी संघगत दक्षिणा हुई ।
⚫इतने भिक्षुओं को ही दान देना यह ➡ छठी
⚫इतनी भिक्षुणियों को ही दान देना यह ➡ सातवीं
संघ के उद्देश्य से की गई दक्षिणा हुई ।
भगवान आगे दान कहते हैं
आनंद मैं किसी भी तरह से संघ के लिए किये गये दान का महत्व व्यक्तिगत दक्षिणा से कम नहीं आँकता । अपितु संघ के लिए किया गया दान ही अधिक और महान फलदायी होता है ।
" न त्वेवाहं , आनन्द , केनचि परियायेन सङ्घगताय दक्खिणाय पाटिपुग्गलिकं दानं महप्फलतरं वदामि ।"
▶ " चार प्रकार की दक्षिणा विशुद्धियाँ "
▶ " चतस्सो दक्खिणाविसुद्धियो "
▪ भगवान यहां " चार प्रकार की दक्षिणा विशुद्धियाँ "
बताते हैं
▪ आनंद ये चार प्रकार कौन-कौन से है , सुनो
▶ " यो सीलवा दुस्सीलेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं सुप्रसन्नचित्तो।
अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
सा दक्खिणा दायकतो विसुज्झिति।। "
अर्थ ➡ " जो दाता स्वयं शीलवान हैं, जिसने देय धन
धर्मपूर्वक अर्जित किया है। दानविधि भी प्रसन्न मन से करता हैं। और वह उस दान के प्रति भविष्य में
( अगामिकाल में) सत्फल की आशा रखता हुआ श्रद्धा रखता है, ऐसा दान दाता की ओर से शुद्ध कहलाता है।
▶ " यो दुस्सीलो सीलवन्तेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं अप्रसन्नचित्तो।
अनभिसद्दह कम्मफलं उळारं,
सा दक्खिणा पटिग्गाहकतो विसुज्झति। "
अर्थ ➡ " परंतु जो दाता स्वयं दुःशील हो, उसका देय धन भी धर्मोपार्जित न हो, और वह उस दान के प्रति भविष्य में ( अगामिकाल में) सत्फल की आशा न रखता हुआ अश्रद्धापूर्वक किसी सुशील को दान करता हैं। ऐसा दान लेने वाले ( प्रतिग्राहक) की तरफ से शुद्ध कहलाता है।
▶ " यो दुस्सीलो दुस्सीलेसु ददाती दानं,
अधम्मेन लद्धं अप्पसन्नचित्तो।
अनभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
न तं दानं विपुलप्फलं ति ब्रूमि।।
अर्थ ➡ " जो स्वयं दुःशील हो और वह दूसरे दुःशील को दान देता हो और उसका देय धन भी धर्मोपार्जित न हो, और उसका दान भी अश्रद्धापूर्वक किया हो। और उसे उस दान के प्रति भविष्य में ( अगामिकाल में) किसी भी सत्फल की आशा भी ना हो, ऐसा दान कोई विशेष फल नहीं देता …… ऐसा मैं कहता हूँ।
▶ " यो सीलवा सीलवन्तेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं सुपसन्नचित्तो।
अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
तं वे दानं विपुलप्फलं ति ब्रूमि।। "
अर्थ ➡ " जो दाता स्वयं शीलवान हैं और दूसरे शीलवान को अपना धर्मोपार्जित धन प्रसन्नता पूर्वक देता है। और भविष्य में ( अगामिकाल में) सत्फल की आशा रखता हुआ श्रद्धा पूर्वक दान करें तो वह दान अत्यधिक सुफल देनेवाला होता है। ऐसा मेरा कहना है।
▶ " यो वीतरागो वीतरागेसु ददाती दानं,
धम्मेन लद्धं सुपसन्नचित्तो।
अभिसद्दहं कम्मफलं उळारं,
तं वे दानं अभिसदानानमग्गं " ति।।
अर्थ ➡ " जो स्वयं वीतराग है तथा ऐसे ही दूसरे वीतराग को अपना धर्मोपार्जित धन प्रसन्नता पूर्वक दान करें, और भविष्य में उस दान के प्रति सत्फल की आशा रखता हुआ, श्रद्धा पूर्वक दान करता हैं तो वह दान सब दानोंमें श्रेष्ठ दान हैं।
मज्झिमनिकाय पालि, भाग 3,
सुत्त 42 दक्षिणाविभङ्गसुत्तं
साभार :
Pingala Wanjari