There’s nothing wrong with the way the body grows old and
gets sick. It just follows its nature. So it’s not the body that
causes us suffering, but our own wrong thinking. When we see the right wrongly, there’s bound to be confusion.
It’s like the water of a river. It naturally flows downhill. It
never flows uphill. That’s its nature. If we were to go and stand on the bank of a river, and seeing the water flowing swiftly down its course, foolishly want it to flow back uphill, we would suffer. We would suffer because of our wrong view, our thinking “against the stream.” If we had right view, we would see that the water must flow downhill. Until we realize and accept this fact, we will always be agitated and never find peace of mind. The river that must flow downhill is like our body. It passes through youth, old age and finally dies. Don’t let us go wishing it were otherwise. It’s not something we have the power to remedy. Don’t go against the stream!
~A Tree in a Forest - A Collection of Ajahn Chah's Similes ~
Friday, November 30, 2012
River Flow–“old age and suffering“”
Wednesday, November 28, 2012
बुद्धघोष
बुद्धघोष, पालि साहित्य के एक महान् बौद्धाचार्य। बुद्धघोसुपत्ति सद्धम्मसंगह, गंधवंश और शासन वंश में बुद्धघोष का जीवनचरित्र विस्तार से मिलता है, किंतु ये रचनाएँ 14वीं से 19वीं शती तक की हैं। इनसे पूर्व का एकमात्र महावंश के चूलवंश नामक उत्तर भाग का 37वाँ परिच्छेद ऐसा है जिसकी 215 से 246 गाथाओं में बुद्धघोष का जीवनवृत्त पाया जाता है।
यद्यपि इसकी रचना धर्मकीर्ति नामक भिक्षु द्वारा १३वीं शती में की गई है, तथापि वह किसी अविच्छिन्न श्रुतिपरंपरा के आधार पर लिखा गया प्रतीत होता है। इसके अनुसार बुद्धघोष का जन्म बिहार प्रदेश के अंतर्गत गया में बोधिवृक्ष के समीप ही कहीं हुआ था। बालक प्रतिभाशाली था, और उसने अल्पावस्था में ही वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, योग का भी अभ्यास किया फिर वह अपनी ज्ञानवृद्धि के लिए देश में परिभ्रमण व विद्वानों से वादविवाद करने लगा। एक बार वह रात्रिविश्राम के लिए किसी बौद्धविहार में पहुँच गया। वहाँ रेवत नामक स्थविर से बाद में पराजित होकर उन्होंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् उन्होंने त्रिपिटक का अध्ययन किया। उनकी असाधारण प्रतिभा एवं बौद्धधर्म में श्रद्धा से प्रभावित होकर बौद्ध संघ ने उन्हें बुद्धघोष की पदवी प्रदान की। उसी विहार में रहकर उन्होंने "ज्ञानोदय" नामक ग्रंथ भी रचा। यह ग्रंथ अभी तक मिला नहीं है। तत्पश्चात् उन्होंने अभिधम्मपिटक के प्रथम नाग धम्मसंगणि पर अठ्ठसालिनी नामक टीका लिखी। उन्होंने त्रिपिटक की अट्टकथा लिखना भी आरंभ किया। उनके गुरु रैवत ने उन्हें बतलाया कि भारत में केवल लंका से मूल पालि त्रिपिटक ही आ सकता है, उनकी महास्थविर महेंद्र द्वारा संकलित अट्टकथाएँ सिंहली भाषा में लंका द्वीप में विद्यमान हैं। अतएव तुम्हें वहीं जाकर उनको सुनना चाहिए और फिर उनका मागधी भाषा में अनुवाद करना चाहिए। तदनुसार बुद्धघोष लंका गए। उस समय वहाँ महानाम राजा का राज्य था। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अनुराधपुर के महाविहार में संघपाल नामक स्थविर से सिंहली अट्टकथाओं और स्थविरवाद की परंपरा का श्रवण किया। बुद्धघोष को निश्चय हो गया कि धर्म के अधिनायक बुद्ध का वही अभिप्राय है। उन्होंने वहाँ के भिक्षुसंघ से अट्टकथाओं का मागधी रूपांतर करने का अपना अभिप्राय प्रकट किया। इसपर संघ ने उनकी योग्यता की परीक्षा करने के लिए "अंतो जटा, बाहि जटा" आदि दो प्राचीन गाथाएँ देकर उनकी व्याख्या करने को कहा। बुद्धघोष ने उनकी व्याख्या रूप विसुद्धिमग्ग की रचना की, जिसे देख संघ अति प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें भावी बुद्ध मैत्रेय का अवतार माना। तत्पश्चात् उन्होंने अनुराधपुर के ही ग्रंथकार विहार में बैठकर सिंहली अट्टकथाओं का मागधी रूपांतर पूरा किया, और तत्पश्चात् भारत लौट आए।
इस जीवनवृत्त में जो यह उल्लेख पाया जाता है कि बुद्धघोष राजा महानाम के शासनकाल में लंका पहुँचे थे, उससे उनके काल का निर्णय हो जाता है, क्योंकि महानाम का शासनकाल ई. की चौथी शती का प्रारंभिक भाग सुनिश्चित है। अतएव यही समय बुद्धघोष की रचनाओं का माना गया है। विसुद्धिमग्ग में अंत में उल्लेख है कि मोरंड खेटक निवासी बुद्धघोष ने बिसुद्धमग्ग की रचना की। उसी प्रकार मज्झिमनिकाय की अट्टकथा में उसके मयूर सुत्त पट्टण में रहते हुए बुद्धमित्र नामक स्थविर की प्रार्थना से लिखे जाने का उल्लेख मिलता है। अंगुत्तरनिकाय की अट्टकथाओं में उल्लेख है कि उन्होंने उसे स्थविर ज्योतिपालकी प्रार्थना से कांचीपुर आदि स्थानों में रहते हुए लिखा। इन उल्लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी अट्टकथाएँ लंका में नहीं,बल्कि भारत में, संभवत: दक्षिण प्रदेश में, लिखी गई थीं। कंबोडिया में एक बुद्धघोष विहार नामक अति प्राचीन संस्थान है, तथा वहाँ के लागों का विश्वास है कि वहीं पर उनका निर्वाण हुआ था और उसी स्मृति में वह बिहार बना।
बुद्धघोष द्वारा रचित माने जानेवाले ग्रंथ निम्न प्रकार हैं :
1. बिसुद्धिमग्ग में संयुक्त निकाय की "अंतो जटा" आदि दो गाथाओं की व्याख्या दार्शनिक रूप से की गई है। इस ग्रंथ की बौद्ध संप्रदाय में बड़ी प्रतिष्ठा है।
2. सामंत पासादिका - विनयपिटक की अट्टकथा,
3. कंखावितरणी - विनयपिटक के एक खंड पातिमोक्ख की अट्टकथा,
4. सुमंगलविलासिनी - दीघनिकाय की अट्टकथा,
5. पपंचसूदनी - मज्झिमनिकाय की अट्टकथा,
6. सारत्थपकासिनी - संयुत्तनिकाय अट्ठकथा,
7. मनोरथजोतिका - अंगुत्तरनिकाय की अट्ठकथा,
8. परमत्थजोतिका - खुद्दकनिकाय के खुद्दकपाठ एवं सुत्तनिपात की अट्टकथा,
9. धम्मपद-अट्टकथा,
10. जातक-अट्ठवण्णना,
11. अट्ठशालिनी-अभिधम्मपिटक के धम्मसंगणि की अट्ठकथा,
12. संमोहविनोदनी-विभंग की अट्टकथा,
13. पंचप्पकरण अट्ठकथा - अभिधम्मपिटक के कथावत्थु, पुग्गल पण्णति, धातुकथा, यमक और पट्ठाण इन पाँच खंडों पर की टीका है।
इस प्रकार बुद्धघोष ने पालि में सर्वप्रथम अट्ठकथाओं की रचना की है। पालि त्रिपिटक के जिस अंशों पर उन्होंने अट्ठकथाएँ नहीं लिखी थी, उनपर बुद्धदत्त और धर्मपाल ने तथा आनंद आदि अन्य भिक्षुओं ने अट्ठकथाएँ लिखकर पालि त्रिपिटक के विस्तृत व्याख्यान का कार्य पूरा किया।
सभार : विकीपीडिया
Monday, November 12, 2012
सबसे शक्तिशाली तत्व– “ हमारी इच्छाशक्ति ”
एक बार आनंद ने भगवान् बुद्ध से पूछा – “ जल , वायु, अग्नि इत्यादि तत्वों मे सबसे शक्तिशाली तत्व कौन सा है ? ”
भगवान् बुद्ध ने कहा – “ आनंद ! पत्थर सबसे कठोर और शकितशाली दिखता है , लेकिन लौहे का हथोडा पत्थर के टुकडे-२ कर देता है , इसलिये लोहा पत्थर से अधिक शक्तिशाली है । ”
“लेकिन लोहार आग की भट्टी मे लोहे को गलाकर उसे मनचाही शक्ल मे ढाल देता है , इसलिये लोहा पत्थर से अधिक शक्तिशाली है । ”
“ मगर आग कितनी भी विकराल क्यों न हो , जल उसे शांत कर देता है । इसलिये जल पत्थर, लोहे, और अह्नि से अधिक शक्तिशाली है । लेकिन जल से भरे बादलों को वायु कही से कही उडाकर ले जाती है , इसलिये वायु , जल से भी अधिक बल्शाली है ।”
“ लेकिन हे आनंद ! इच्छाश्क्ति वायु की दिशा को भी मोड सकती है । इसलिये सबसे अधिक शक्तिशाली तत्व है – व्यक्ति की इच्छाशक्ति । इच्छाश्क्ति से अधिक बलशाली तत्व कोई नही है । ”
साभार स्त्रोत : “बुद्ध का चक्रवर्ती साम्राज्य “, लेखक- “ श्री राजेश चन्द्रा ”
Thursday, November 8, 2012
जीवन की अद्भुततायें – यही तो जीवन है
गत सप्ताह कुछ अधिक ही सूकून से बीता । क्लीनिक की चिकिचिक और मरीजों के शोर से हटकर कौसानी की पहाडियाँ और घाँटियाँ , ऊँचे-२ देवदार के वृक्ष , विशाल हिमालय पर्वत की ऊँची अट्ट्टलिकाओं के पीछे से उदय होता सूर्य मानों मंत्र्मुग्ध सा कर देता है । मै अविरल प्रकृति की गहराईयों में डूब सा जाता हूँ । सुबह का छ: बजने को है , होटल का स्टाफ़ हमें ५ बजे से ही उठा देता है । “ जल्दी उठिये , हिमालय दर्शन जो करना है । " अपने कमरे मे से बाहर आता हूँ , होटल की छ्त से प्रकृति का अभूतपूर्व नजारा दिखता है । आँखो को बन्द करते हुये साँसों को नियत्रित करता हूँ और फ़िर आंखों को खोलते हुये प्रकृति के इस मोहक रुप को …. देखकर क्या यह नही लगता कि हम अपनी जिन्दगी मे व्यर्थ की दौड भाग किये जा रहे हैं । प्रकृति हमेशा शांत रहती है , यह हमारी भावनायें हैं जो अनजाने मे ही सही व्यर्थ की तकलीफ़े पहुँचाती रहती है ।
लेकिन ऐसा नही है कि यह शांति सिर्फ़ हमॆ बाहर जाने पर ही मिल सकती है । यहाँ घर पर भी प्रात:काल का समय मुझे बहुत सूकून देने वाला लगता है । इस वर्ष जबकि मैने सुबह की सैर का स्थान बदल दिया है लेकिन गत वर्ष पुलिस प्रांगण मे सुबह –२ दौड लगाने के बाद जब शरीर शिथिल सा हो जाता था तो उस मिनी स्टॆडियम के प्रांगण के एक कोने मे जहाँ अशोक के कई पेड लगे हुये हैं , वहाँ बैठ कर आँखों को बन्द कर के साँसों को नियत्रित करते हुये मै उन सब को साक्षी भाव से देख सकता हूं जो मुझे अति आनन्दित करती है । यह समय पेड पर वास करने वाली असंख्य चिडियों का है जिनकी दिनचर्या सुबह –२ शुरु हो जाती है । उन का चहचहाना , हवा के चलने से पत्तों की सरसराहट का स्वर सब अपना सा ही तो लगता है , क्या वह मिलने वाले अन्य आनन्दों से कमतर है । बिल्कुल नही । सच तो यह है कि जीवन को वर्तमान के क्षण मे ही खोजा जा सकता है किन्तु हमारा चित्त शायद ही कभी वर्तमान क्षण को जी रहा होता है । वर्तमान के क्षण मे या तो हम अतीत को खंगालने लगते हैं अथवा अनागत भविष्य विषयक कामनायें किया करते हैं ।
बुद्ध के जीवन से एक प्रंसग है । बुद्ध का नित्य नियम था कि वह तडके उठ जाते और बैठकर ध्यान साधना करते । एक दिन वह ऋषिपतन के मृगदाय ध्यान में साधना मे व्यस्त थे तभी वहाँ से एक २७-२८ वर्ष का युवक चट्ठान के पास से गुजरा । उसे बुद्ध की उपस्थिति का कुछ भी ज्ञान नही था और बडबडा रहा था – “सब अरुचिपूर्ण , घृणास्पद” ।
बुद्ध बोल उठे , “कुछ भी अरुचिपूर्ण और घृणास्पद नही होता ।”
बुद्ध ने उससे पूछा “क्या अरुचिपूर्ण , घृणास्पद है ?”
युवक ने अपना परिचय देते हुये कहा कि मेरा नाम यश है और मै वाराणसी के एक सबसे धनी और सम्मानित श्रेष्ठि का पुत्र हूँ । मेरे माता पिता ने मेरी सब मरजी पूरी की है और सभी मौज मस्ती के साधन जुटाये हैं । लेकिन मै अब इन आमोद प्रमोद के जीवन से ऊब गया हूँ और इन सबसे मुझे कोई संतुष्टि नही मिलती है ।
बुद्ध ने उसे समझाया कि “ यश , यह जीवन तो आधि व्याधियों से भरा है किन्तु इस जीवन में बहुत अद्भुतताएं भी हैं । काम भॊग और इन्द्रियजन्य विषक वासना मे लिप्त होने से शरीर और चित्त दोनों ही अस्वस्थ हो जाते हैं । यदि कामनाओं को त्यागकर तुम सादगी और पूर्णता के साथ जीवन व्यतीत करो तो तुम जीवन की अद्भुतताओं का अनुभव कर सकते हो । यश , तुम अपने ओर दृष्टि फ़ैलाओ । सामने प्रभाती सुहासे से खडे वृक्ष तुम देख रहे हो ? क्या वे सुंदर नही हैं ? चंद्रमा , तारकगण , सरितायें , पर्वत , सूर्य का प्रकाश , चिडियों का गान , झरने के गिरने की मधुर ध्वनि - यह सब सृष्टि का ऐसा प्रसार है जो हमे अनंत आनंद प्रदान कर सकता है ।
इन सबसे हमे जो आनंद प्राप्त होता है उससे हमारा चित्त और शरिर दोनों पुष्ट होते हैं । अपनी आँखे बन्द करॊ और गहरी साँस लेकर शवास को बाहर निकालो । यह शवसन क्रिया कुछ देर करॊ । अब आँखे खोलो । अब क्या दिखाई पडता है ? वृक्ष , कुहासा , आकाश और सूर्य की किरणॆं । तुम्हारे अपने ही नेत्र अद्भुतत हैं । तुम इन समस्त अद्भुतताओं के सान्धिय मे नही रहे इसलिये अपने चित्त और शरीर से घणा करने लगे हो । कुछ लोग तो अपने चित्त और शरीर से इतनी घृणा करते है कि आत्महत्या तक करना चाहते है । उन्हे जीबन मे कष्ट ही कष्ट दिखता है । किन्तु सष्टि की सम्यक प्रकृति कष्टदायी नही है । कष्ट तो हमारी जीबन पद्द्ति और जीबन विषयक भ्रांत धारणाओं का परिणाम होते हैं । ”
बुद्ध के शब्दों से यश को ऐसा लगा जैसा उसके तपते ह्रदय पर शीतल ओस की बूद आ गिरी हो । प्रसन्नता से अभिभूत होकर वह बुद्ध के चरणो पर गिर पडा ।
Tuesday, October 16, 2012
भगवान बुद्ध – अवतारवाद का अधूरा सत्य
( बलरामपुर में द्रौपदी मन्दिर मे भगवान बुद्ध की मूर्ति – हिन्दू मन्दिरों मे भगवान बुद्ध की मूर्ति पाये जाने का एक दुर्लभ चित्र )
यह अजीब सा विरोधाभास है कि एक तरफ़ तो हिन्दू धर्म मे भगवान बुद्ध को विष्णु का नंवा अवतार माना जाता हैं और दूसरी तरफ़ हिन्दू मन्दिरों में बुद्ध की मूर्ति को ढूँढ पाना एक दुर्लभ कार्य है । पिछ्ले साल हरिद्वार और देहारदून से लौटते समय मेरे मन मे यही विचार उमडते रहे । उन दिनों हरिद्वार मे कोई बौद्ध सम्मेलन चल रहा था । लौटते समय मेरी मुलाकात ट्रेन में जिन महिला से हुयी , वह भी उसी सम्मेलन का हिस्सा थी । बनारस की रहने वाली श्रीमती मालती तिवारी सारनाथ में केन्द्रीय तिब्बती अध्यन्न विशवविधालय ( Central University of Tibetan Studies (CUTS) , Sarnath ) में अध्यापन कार्य करती हैं । बुद्ध धम्म मे उनकी गहन रुचि थी और बातों –२ मे ज्ञात हुआ कि उनका शोध कार्य डां अम्बेड्कर और बौद्ध धर्म पर केन्द्रित था । लेकिन मेरे इस प्रशन पर वह चुप रही ।
गत वर्ष ही दीपावली के अगले दिन श्रावस्ती जाने का अचानक प्रोग्राम बन गया । श्रावस्ती से लौटते समय बलरामपुर में द्रौपदी मन्दिर मे भगवान बुद्ध की मूर्ति को देखकर मै अचरज मे पड गया । ऊपर का यह चित्र उसी मन्दिर से ही है ।
अवतार वाद की यह फ़िलोसफ़ी मेरे मन मे कभी भी मूर्त रुप न ले पाई । अगर ईमानदारी से भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया होता तो हर मंदिर में आज उनकी मूर्ति होती ।
लेकिन ऐसा क्यूं है कि भगवान बुद्ध को हिन्दू धर्म में पूर्ण रुप से स्वीकार नही किया गया । हिन्दू पुराणॊं मे इसे इस तरीके से पेश किया गया है जिसे ज़्यादातर बौद्ध अस्वीकार्य और बेहद अप्रिय मानते हैं। कुछ पुराणों में ऐसा कहा गया है कि भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार इसलिये लिया था जिससे कि वो "झूठे उपदेश" फैलाकर "असुरों" को सच्चे वैदिक धर्म से दूर कर सकें, जिससे देवता उनपर जीत हासिल कर सकें। इसका मतलब है कि बुद्ध तो "देवता" हैं, लेकिन उनके उपदेश झूठे और ढोंग हैं। ये बौद्धों के विश्वास से एकदम उल्टा है: बौद्ध गौतम बुद्ध को कोई अवतार या देवता नहीं मानते, लेकिन उनके उपदेशों को सत्य मानते हैं। कुछ हिन्दू लेखकों (जैसे जयदेव) ने बाद में यह भी कहा है कि बुद्ध विष्णु के अवतार तो हैं, लेकिन विष्णु ने ये अवतार झूठ का प्रचार करने के लिये नहीं बल्कि अन्धाधुन्ध कर्मकाण्ड और वैदिक पशुबलि रोकने के लिये किया था।
बुद्ध और कल्कि अवतार (अग्नि पुराण 16 वा अध्याय )
Vishnu as Buddha making gesture of dharmacakrapravartana flanked by two disciples ( साभार : विकीपीडिया )
अग्निदेव कहते हैं :- अब में बुद्ध अवतार का वर्णन करूंगा ,जो पड़ने और सुनाने वाले के मनोरथ को सिद्ध करने वाला है । पूर्वकाल मे देवता और असुरो मे घोर संग्राम हुआ । उसमे देत्यों ने देवताओ को परास्त कर दिया । तब देवता त्राहि-त्राहि पुकारते हुये भगवान की शरण मे गए । भगवान माया-मोह रूप मे आकार राजा शुद्धोधन के पुत्र हुये । उन्होने देत्यों को मोहित किया और उनसे वेदिक धर्म का परित्याग करा दिया । वे बुद्ध के अनुयाई देत्य " बोद्ध " कहलाए । फिर उन्होने दूसरे लोगों से वेद-धर्म का परित्याग करा दिया ।इसके बाद माया-मोह ही ' आर्हत ' रूप से प्रगत हुआ । उसने दूसरों को भी ' आर्हत ' बनाया । इस प्रकार उनके अनुयायी वेद-धर्म से वंचित होकर पाखंडी बन गए । उन्होने नर्क मे ले जाने वाले कर्म करना आरंभ कर दिया । वे सब-के-सब कलियुग के अंत मे वर्ण संकर होंगे और नीच पुरुषों से दान लेंगे । इतना ही नही , वे लोग डाकू और दुराचारी भी होंगे । वाजसनेय ( वृहदारण्यक ) -मात्र ही वेद कहलाएगा । वेद की दस पाँच शाखे ही प्रमाणभूत मानी जाएंगी । धर्म का चोला पहने हुये सब लोग अधर्म मे ही रुची रखने वाले होंगे । राजारूपधारी मलेच्छ ( मुसालेबीमान और इसाया ) मनुष्यो का ही भक्षण करेंगे ।
तदन्तर भगवान कल्कि प्रगट होंगे । वे श्री विष्णुयशा के पुत्र रूप मे अवतीर्ण हों याज्ञवलक्य को अपना पुरोहित बनाएँगे । उन्हे अस्त्र-शस्त्र विदध्या का पूर्ण ज्ञान होगा । वे हाथ मे अस्त्र लेकर मलेच्च्योन का संहार ( मुसालेबीमान और इसाया ) कर देंगे । तथा चरो वर्णो और समस्त आश्रमो मे शास्त्रीय मर्यादा साथपित करेंगे । समस्त प्रजा को धर्म के उत्तम मार्ग मे लगाएंगे । इसके बाद श्री हरी कल्कि तूप का परित्याग करके अपने धाम चले जाएंगे । फिर तो पूर्ववत सतयुग का साम्राज्य होगा । साधुश्रेष्ठ ! सभी वर्ण और आश्रम के लोग अपने-अपने धर्म मे दृद्तापूर्वक लग जाएंगे । इस प्रकार सम्पूर्ण कल्पो और मन्वंतरों मे श्री हरी के अवतार होते हैं । उनमे स ए कुछ हो चुके हैं और कुछ आगे होने वाले हैं । उन सबकी कोई नियत संख्या नही है ।
जो मनुष्य श्री विष्णु के अंशावतार तथा पूर्ण अवतार सहित दस अवतारों के चरित्र का पाठ अथवा श्रवण करता है , वह सम्पूर्ण कामनाओ को प्राप्त कर लेता है । तथा निर्मल हृदय होकर परिवार सहित स्वर्ग को जाता है । इस प्रकार अवतार लेकर श्री हरी धर्म की व्यवस्था का निराकरण करते हैं । वे ही जगे की श्रष्टी आदी के कारण हैं । ।। ८
इस प्रकार आदी आग्नेय महापुराण मे ' बुद्ध तथा कल्कि -इन दो अवतारो का वर्णन नामक सोलहवा अध्याय समाप्त हुआ ।। १६ । ।
लेकिन फ़िर सच क्या है ? क्या यह ब्राहम्ण्वादी मानसिकता का बौद्ध दर्शन को सोखने की एक चाल थी ? संभवत: यह ही सच है !! मगर कैसे ? श्री आलोक कुमार पाण्डेय की पुस्तक , “ प्राचीन भारत ” जो मैने अभी हाल ही मे फ़िल्पकार्ड से मँगाई थी , इस विषय पर काफ़ी प्रकाश डालती है । आलोक जी जो सन २००२ बैच के IAS हैं , उन्होने निष्पक्ष रुप से इसकी विवेचना की है । आप लिखते हैं ,
लगभग छ्ठी ई.पू. में गंगा घाटी में रहने वालों के धार्मिक जीवन मे अनेकों परिवर्तन देखने को मिले । तत्कालीन परम्परावादी ब्राहम्ण धार्मिक व्यवस्था के विरोध मे लोग उठ खडे हुये तथा आन्दोलन का स्वरुप इतना तीव्र हो उठा कि ईशवर की सत्ता तक को अस्वीकार करने वाले सम्प्रदाय एवं मत अस्तित्व में आये । तत्कालीन ग्रंथों में लगभग ६२ मुख्य और अनेक छोटे –२ धार्मिक सम्प्रदायों का परिचय मिलता है जो इस बात का परिचायक है कि धर्म की जडता के विषय मे कितना असंतोष था । ……. प्रशन उठता है कि वह कौन से कारण थे जिनके चलते इस प्रकार का धार्मिक आन्दोलन उठ खडा हुआ । इन्हें निम्म रुप से समझा जा सकता है :
१. आर्थिक २. धार्मिक ३. सामाजिक ४. राजनैतिक
सम्भवत: नास्तिक सम्प्रदाओं के उदय के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण आर्थिक ही थे । यह शती लोहे के उपकरणों के कृषि मे प्रयोग होने की शती थी । हाँलाकि इसके पूर्व लोहे का ज्ञान हो चुका था किन्तु ज्यादतर वे शास्त्रास्त्रॊं में प्रयुक्त होते थे । ……लौह उपकरणो के ज्ञान से विस्तूत मैदानों की प्राप्ति हुई । इस विस्तूत मैदान पर अब गहन कृषि प्रारम्भ हुई जिससे एक वर्ग को खाध सामग्री की चिन्ता से मुक्ति मिली और वे व्यापार , वाणिज्य और शिल्प कलाओं मे लग गये । …खेती के लिये पशुओं की आवशयकता पडी । विशेष रुप से उन पशुओं की जो कृषि के काम आते थे जबकि ब्राहम्ण धर्म की कर्मकाण्डीय यज्ञ परम्परा मे बलि दी जाती थी । इससे एक धार्मिक द्धंदं खडा हुआ । कृषक वर्ग और शिल्प या वाणिज्य से जुडे हुये लोगों ने ब्राहम्णीय परम्परा का विरोध किया ।
राम शरण शर्मा के अनुसार , “ वैदिक प्रथानुसार पशु अंधाधुंध माए जा रहे थे , यह खेती की प्रगति मे बाधक हुआ । यदि नई कृषि मूलक अर्थव्यवस्था को बचाना था तो पशुधन को संचित करना आवाशयक था । ” इस समय जितने भी नास्तिक संप्रदाओं ने पनपना प्रारम्भ किया सबने ब्राहम्णीय व्यवस्था का विरोध किया । इन सबमें बौद्ध और जैन धर्मों का स्वर सर्वाधिक तीव्र था । इन संप्रदाओं ने पशुओं को सुखदा और अन्नदा कहा और उनके वध का विरोध किया ।
यह समय व्यापार , वाणिज्य एवं नगरीय क्रांति का समय था । ६००-३२३ ई.पू. में लगभग ६२ नगरों का अस्तित्व था । व्यापार वाणीज्य से प्राप्त धन को एकत्र कर के वैशय वर्ग ने अपने निवास नगरों मे बनाये ।….. व्यापारियों ने निरंतर ब्राहम्णीय व्यवस्था का विरोध किया । एक अन्य कारण वैशव वर्ग का इन सम्प्रदाओं की ओर आकर्षित होना था क्योंकि व्यापार से इस वर्ग ने अकूत धन प्राप्त कर लिया था जब्कि हर तरफ़ महत्ता ब्राहम्णॊ की थी वह इस समृद्ध वर्ग को स्वीकार नही हुआ । अनाथपिण्डक , घोषित जैसे विभिन्न श्रेषठियों ने इसी कारण बौद्ध/जैन सम्प्रदाओं को मुक्त हस्त दान दिया । ऋण का कार्य ब्राहम्णीय परम्पराओं मे दूषित कार्य कहा गया था जबकि यह वैशवों तथा व्यपारियों का मुख्य कार्य था ।…. इन सबके अतिरिक्त नास्तिक सम्प्रदाओं का उदय चूँकि ब्राहम्णीय परम्परा के विरुद्ध हुआ था इसी कारण उनकी सहानुभूति हर उस वर्ग के प्रति थी जो आर्थिक रुप से कमजोर था और इसी कारण इन समस्त वर्गॊ ने तन , मन और धन से इन सम्प्रदाओं के वर्धन हेतु कार्य किया । इन सम्प्रदाओं का ऐसा दृष्टिकोण बुद्ध के उस कथन से मिलता है जिसमे उहोने कहा कि , “ कृषकों को बीज , श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक और व्यवसासियों को धन देना चाहिये । “
धार्मिक कारणॊं के चलते हुये भी जैन/ बौद्ध सम्प्रदाऒ के उदय को बल मिला । ब्राहम्णीय व्यवस्था , देवों की कृपा को मानवों के शुभ के लिये आवशयक मानती थी । देवों को प्रसन्न करने के लिये विभिन्न उपाय किये जा रहे थे जो अब कर्मकाण्डॊं में बदल गये थे और जटिल से जटिलतर होते जा रहे थे । वैदिक ऋचाओं का स्थान मंत्रों ने ले लिया था तथा मंत्रों के माध्यम से देवों को वश मे करने की बात कही जा रही थी जो मंत्रों का ज्ञान नही रखते थे , वे अब जादू टोने तथा तंत्र मंत्रों का सहारा लेने लगे थे । समाज का निम्म वर्ग इनके चक्कर मे फ़ँस कर भट्काव की स्थिति मे था । यह एक असंतोष का कारण बना ।पशु बलि और यज्ञीय कर्म कांडं वे दूसरे तत्व थे जो सामान्य जनता को कष्ट ही देते थे । अनेक श्रोत यज्ञ कई –२ वर्षॊं तक चलते थे जिसमें यज्ञ कराने वाले को अनेकों दास – सासियाँ उपहार स्वरुप प्रदान की जाती थी । जहाँ पहले ६ ऋषियों द्वारा यज्ञ कराया जाता था , उत्तर वैदिक काल मे आगे चलकर इनकी सँख्या १६ हो गयी थी | दूसरी ओर नास्तिक सम्प्रदाऒ ने सदैव इसका विरोध किया । बुद्ध ने कहा , “ ब्राहम्ण , लकडी नही अपितु आन्तरिक ज्योति जला । “
सामाजिक कारणॊं का भी नास्तिक सम्प्रदाओं के उदय मे महती योगदान था । तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में चार वर्णॊं की स्थापना पूर्णरुपेण हो चुकी थी तथा ब्राहम्ण एंव छत्रिय , दो सामाजिक उच्च वर्णॊ में सम्मलित थे जबकि वैशय एवं शूद्र को महत्व प्राप्त नही था । इस प्रकार समाज दो वर्गों मे विभाजित हो चुका था :
१. गैर उत्पादक वर्ग : ब्राहम्ण , छत्रिय
२. उत्पादक वर्ग : वैशय , शूद्र
समाज के उत्पादक वर्ग होते हुये भी उचित सम्मान न हो पाने के कारण वैशय एंव शूद्र वर्गों मे असंतोष व्याप्त था । इतना ही नही समाज का वर वर्ग जो उत्पादन मे कही शामित ही नही था सर्वाधित उपभोग करता था तथा इसे इसके पशचात अनेकों विशेषधिकार मिले हुये थे । तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है कि गौतम , आपस्तंब आदि ऋषियों ने ऐसी व्यवस्था बनाई थी कि ब्राहम्ण वर्ग को सर्वाधिक घोर अपराध करने पर भी सबसे कम द्ण्ड मिलता था । वैशव वर्ग व्यपार – वाणिजय के फ़लस्वरुप अत्याधिक संपदा एकत्रित कर चुका था किन्तु उसे भी उचित आदर प्राप्त नही होता था । “ महाजनी , ऋण आदि जैसे कार्यों को ब्राहम्णीय व्यवस्था मे अपमान की दृष्टि से देखा जाता था “ राम शरण शर्मा
शूद्रों की दशा तो अत्यन्त खराब थी । शूद्र वध जैसे अपराध के लिये भी अपराधी को वही दण्ड दिया जाता था जो कौवे , उलूक आदि की हत्या के लिये दिया जाता था । मातंग जातक एवं चित्तसंभूत जातकों मे दी हुई कथायें शूद्रॊं पर होने वाले अत्याचारों का वर्ण करती है । नास्तिक सम्प्रदाय ने इन सबका प्रबल विरोध किया । जहाँ एक ओर वैशवों के ऋण , महाजनी एवं दास सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता दी , वही बौद्ध धर्म ने सभी वर्णॊ के लिये अपने दरवाजे खोल दिये । सामाजिक संदर्भ में भी बुद्ध ने जातिवाद का घोर विरोध किया , वस्तुत: तपस्सु एवं भाल्लुक जैसे शूद्रॊ को बुद्ध ने संघ मे प्रथम प्रवेश दिया । विभिन्न धार्मिक पाखंडो एवं यज्ञीय कर्मकांडो का उन्होने विरोध किया तथा सरल और आडम्बररहित मार्ग का प्रतिपादन किया । बुद्ध ने अपने सिद्धांत पालि भाषा मे दिये जो जनसामान्य एवं लोकोन्मुखी स्वरुप को दर्शाता है । बुद्ध ने कर्मकांडो का विरोध करने के पीछे मुख्य तर्क यह दिया कि समाज मे जन्म के अनुसार कोई उच्च या निम्म नही होता है । उच्चता का निर्धारण कर्म से होता है । इसी प्रकार ब्राहम्ण एवं छत्रियों ने भी नास्तिक सम्प्रदाओं जैसे बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाओं का सहयोग किया ।
आशर्चजनक तथ्य यह कि बुद्ध जिन उच्च जातियों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे संघ मे सम्मिलित होने का उनका प्रतिशत सर्वाधिक था यथा -
भिक्षुओं का जातीय आधार ( विनय एवं सुत्त पिटक के आधार पर ) साभार : श्री आलोक पान्डॆ
जाति आवृति प्रतिशत छत्रिय 706 51.5% ब्राहम्ण 400 29.1% वैशव 155 11.02% शूद्र 110 8.3%
राजनैतिक कारणो का नास्तिक सम्प्रदाओं के उदय मे दो प्रकार से सकरात्मक उपयोग रहा ।हाल ही में रिलीज हुई “ OH MY GOD “ जिन्होने देखी हो वह आसानी से समझ सकते हैं कि अवतार कैसे और क्यूं बनाये जाते हैं । फ़िल्म में परेश रावल ( कांजीलाल की भूमिका में ) जब ईशवर के होने या न होने पर प्रशन खडा करता है , धर्म के नाम पर धन्धा कर रहे धंधेवाजों की जब पोल खोलने लगता है तो अंत मे वही दुकान चलाने वाले उसको ही अवतार घोषित कर देते हैं । देखिये एक झलक OH MY GOD से
१. ब्राहम्ण –राजन्य द्धंद
२. गणराज्यों का स्वतंत्र वातावरण
ब्राहम्ण एवं क्षत्रिय राजन्य वर्ग के मध्य उत्तरवैदिक काल से द्धंद आरम्भ हो चुका था । प्रवाहण्जाबालि , अशवपति तथा मिथिला के विदेह जैसे विद्धान ने कई ब्राहम्णॊ को ज्ञान के स्तर पर पिछाडा था । परिस्थितियाँ ऐसी थी कि ब्राहम्ण हर ओर से लेने वाले थे जबकि क्षत्रियों को देना भी पडता था ऐसी स्थिति में द्धंद सामने जब आया तो वास्तविक शक्ति क्षत्रियों को देकर ब्राहम्ण ने आदरसूचक प्रथम स्थान ले लिया । ऐसी स्थिति में नास्तिक संप्रदाओं ने राजन्य वर्ग का पक्ष लिया और इसी कारण इस वर्ग का समर्थन हासिल किया । अजातशत्रु , बिम्बसार , प्रसेनजित और आगे चलकर अशोक आदि का समर्थन बौद्ध एंव जैन धर्मॊ को न मिला होता तो इन धर्मॊ का वास्तविक रुप कुछ और ही होता ।
बुद्ध को अवतार साबित करना महज एक दिखावा और ढोंग है , सच तो यह है कि बुद्ध धम्म और हिंदू धर्म में कही दूर दूर तक कोई समानता नही है , हाँ समानता है कि हिन्दू , जैन , सिक्ख और चार्वाक दर्शन की तरह बुद्ध धम्म का दर्शन भी भारत की गौरवशाली पंरपरा से ही उत्पन्न हुआ है . यह विदेशी संस्कृतियों की तरह किसी को जबरन या लालचवश धर्मातरण पर मजबूर नही करता , किसी के ऊपर बिलावजह अत्याचार करने की अनुमति नही देता , हाँ कुछ सोचने को मजबूर अवशय करता है । यह आप पर निर्भर करता है कि अपने द्धीप आप स्वंय बनना चाहते हैं या दूसरे के सहारे अपनी नैया पार करना चाहते हैं ।
अप्प दीपो भव ! ( अपना प्रकाश स्वयं बनो )
Be your own LAMP !
Realize yourself and the World !!
Thursday, September 20, 2012
संतुलन ध्यान
लाओत्से के साधना-सूत्रों में एक सूत्र है लाओत्से की ध्यान की पद्धति का। वह सूत्र यह है।
लाओत्से कहता है कि पालथी मार कर बैठ जाएं और भीतर ऐसा अनुभव करें कि एक तराजू है, बैलेंस, एक तराजू। उसके दोनों पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए हैं और उसका कांटा ठीक आपकी दोनों आंखों के बीच, तीसरी आंख जहां समझी जाती है, वहां उसका कांटा है। तराजू की डंडी आपके मस्तिष्क में है। दोनों उसके पलड़े आपकी दोनों छातियों के पास लटके हुए हैं। और लाओत्से कहता है, चौबीस घंटे ध्यान रखें कि वे दोनों पलड़े बराबर रहें और कांटा सीधा रहे।
लाओत्से कहता है कि अगर भीतर उस तराजू को साध लिया, तो सब सध जाएगा। लेकिन आप बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे! जरा इसका प्रयोग करेंगे, तब आपको पता चलेगा। जरा सी श्वास भी ली नहीं कि एक पलड़ा नीचा हो जाएगा, एक पलड़ा ऊपर हो जाएगा। अकेले बैठे हैं, और एक आदमी बाहर से निकल गया दरवाजे से। उसको देख कर ही, अभी उसने कुछ किया भी नहीं, एक पलड़ा नीचा, एक ऊपर हो जाएगा।
लाओत्से ने कहा है कि भीतर चेतना को एक संतुलन! दोनों विपरीत द्वंद्व एक से हो जाएं और कांटा बीच में बना रहे।
जीवन में सुख हो या दुख, सम्मान या अपमान, अंधेरा या उजाला, भीतर के तराजू को साधते चला जाए कोई, तो एक दिन उस परम संतुलन पर आ जाता है, जहां जीवन तो नहीं होता, अस्तित्व होता है; जहां लहर नहीं होती, सागर होता है; जहां मैं नहीं होता, सब होता है।
साभार : ओशो हिंदी
Saturday, September 8, 2012
जीवन जीने की कला – विपश्यना साधना
ध्यान प्रक्रियायों मे विपशयना ध्यान पद्द्ति भगवान बुद्ध द्वारा अन्वेषित प्रक्रिया सबसे अलग और तर्क और वैज्ञानिक सम्पत है ।
बुद्ध कहते थे ’ इहि पस्सिको’ - आओ और देख लो । मानने की आवशकता नही है । देखो और फ़िर मान लेना । विपशयना का अर्थ है शांत बैठकर , शवास को बदले बिना ..शवास के प्रति साक्षीभाव । जहाँ प्राणायाम मे शवास को बदलने की चेष्टा की जाती है वही विपशयना मे शवास जैसी है वैसे ही देखने की आंकाक्षा है ।
बुद्ध इसके लिये किसी धारणा का आग्रह नही करते । और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी उसका नाम है विपस्सना ।
विपसन्ना बहुत सीधा साधा प्रयोग है । अपनी आती जाती शंवास के प्रति साक्षीभाव । शवास सेतु है , इस पार देह , उस पार चैतन्य और मध्य मे शवास है । शवास को ठीक से देखने का मतलब है कि अनिवार्य रुपेण से हम शरीर को अपने से भिन्न पायेगें । फ़िर शवास अनेक अर्थों मे महत्वपूर्ण है , क्रोध मे एक ढंग से चलती है दौडने मे अलग , आहिस्ता चलने मे अलग , अगर चित्त शांत है तो अलग और अगर तनाव मे है तो अलग । विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर , शवास को बिना बदले देखना । जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे , कि नदी तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे । आई एक तरगं तो देखोगे और नही आई तो भी देखोगे । राह पर निकलती कारें , बसें तो देखोगे नही तो नही देखोगे । जो भी है जैसा भी है उसको वैसे ही देखते रहो । जरा भी उसे बदलने की कोशिश न करें । बस शांत बैठकर शवास को देखो । और देखते ही देखते शवास और भी अधिक शांत हो जाती है क्योंकि देख्ने मे ही शांति है ।
हिन्दी मे ध्यान पर बहुत ही कम वीडियो उपलब्ध हैं । Meditation Techniques in Hindi यू ट्यूब पर उपलब्ध है , मूलत: “ Spiritual Reality –journey within ” का हिन्दी अनुवाद है । न सिर्फ़ यह विपशयना के बारे मे आपको बतायेगा बल्कि और भी ध्यान पद्द्तियों से भी रुबरु करायेगा । य टूयूब पर सीधे देखने के लिये http://youtu.be/L4thsq2m0ic पर क्लिक करें ।
Thursday, August 23, 2012
धर्म तभी सद्धर्म हो सकता है , जब यह शिक्षा दे कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवशयकता है ….
बुद्ध ने ‘ करुणा ’ को ही धर्म की ‘इति’ नही कहा । ‘करुणा’ का अर्थ दुखी मनुष्यों के प्रति दया किया जाना है । बुद्ध ने और आगे बढ कर ‘ मैत्री’ की शिक्षा दी । ‘मैत्री’ का अर्थ है प्राणि मात्र के प्रति दया । जिस समय भगवान बुद्ध श्रावस्ती मे विराजमान थे , उस समय अपने एक प्रवचन मे यह बात उन्होने अच्छी तरह से स्पष्ट कर दी ।
मैत्री के बाए मे बोलते हुये बुद्ध ने भिक्षुऒं से कहा -
“मान लो एक आदमी पृथ्वी खोदने के लिये आता है , तो क्या पृथ्वी उसका विरोध करती है ?”
भिक्षुओं ने उत्तर दिया – “ भगवान ! नही !”
“मान लो एक आदमी लाख और दूसरे रंग लेकर आकाश मे चित्र बनाना चाहता है तो क्या वह बना सकेगा ?”
“नही”
“क्यों ? “ भिक्षु बोले – “क्योंकि आकाश का रंग काला नही है ।”
“इसी प्रकार तुम्हारे मन मे कुछ कालिख नहीं होनी चाहिये , जो कि तुम्हारे राग द्धेष का परिणाम है ।”
“मान लो एक आदमी जलती हुई मशाल लेकर गंगा नदी मे आग लगाने आता है तो क्या वह आग लगा सकेगा ?”
“ भगवान ! नही | ”
“क्यों ? “ भिक्षु बोले – “क्योंकि गंगा जल मे जलने का गुण नही है ।”
अपना प्रवचन सामाप्त करते हुये तथागत ने कहा – “भिक्षुओं ! जैसे पृथ्वी आघात अनुभव नही करती और विरोध नही करती , जिस प्रकार हवा मे किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नही होती , जिस प्रकार गंगा नदी का जल अग्नि से अप्रभवित रहकर बहता रहता है ; उसी प्रकार भिक्षुओं ! यदि तुम्हारा कोई अपमान भी कर दे , यदि तुम्हारे साथ कोई अन्याय भी करे तो भी तुम अपने विरोधियों के प्रति मैत्री भाव को अपनाये रखो ।”
“ भिक्षुओं ! मैत्री की धारा को हमेशा प्रवाहित रहना चाहिये । तुम्हारा मन पृथवी की तरह दृढ , वायु की तरह स्वच्छ हो और गंगा नदी की तरह गम्भीर हो । यदि तुम मैत्री का अभ्यास रखोगे तो कोई भी तुम्हारे साथ कैसा भी अप्रतिकर व्यवहार करे , तुमाहारा चित्त विचिलित नही होगा और तुमहारे विरोधी लोग थक जायेगें ।”
“तुम्हारी मैत्री विशव की तरह व्यापक होनी चाहिये और तुम्हारी भावनायें असीम होनी चाहिये जिनमें द्धेष का लेश भर भी जगह न हो ।”
“ मेरे धर्म के अनुसार करुणा ही पर्याप्त नही है , आदमी मे मैत्री होनी चाहिये ।”
“भिक्षुओं ! कोई भी पुण्य कर्म मैत्री भावना के सोलहवें हिस्से के भी बराबर नही है । मैत्री जो कि चित्त की विमुक्ति है , उन सबकॊ अपने अन्तर्गत ले लेती है – वह प्रकाशमान होती है , वह प्रदीप्त होती है वह प्रज्जवलित होती है ।”
“इसी प्रकार हे भिक्षुओं ! जैसे सभी तारों का प्रकाश मिलकर भी अकेले चद्रमा को सोलवहें हिस्से के बराबर नही , चन्द्रमा का प्रकाश प्रकाशमान होता है , प्रदीप्त होता है , प्रज्जव्लित होता है । इसी प्रकार भिक्षुओं ! कोई भी पुण्य कर्म मैत्री भावना के सोलवहें हिसे के भी बराबर नही है । मैत्री जो कि चित्त की विमुक्ति है , उन सबकॊ अपने अन्तर्गत ले लेती है – वह प्रकाशमान होती है , वह प्रदीप्त होती है वह प्रज्जवलित होती है ।”
“और भिक्षुओं ! जैसे वर्षा ऋतु की समाप्ति पर स्वच्छ , अन्ध्र आकाश मे उगने वाला सूर्य , तमाम अन्धकार को विकीर्ण कर देता है , वह प्रकाशमान होता है , प्रदीप्त होता है , प्रज्जव्लित होता है ; और जैसे रात्रि की समाप्ति पर भोर का तारा प्रज्जवलित होता है ; ठीक उसी प्रकार कॊई भी पुण्य कर्म मैत्री भावना के सोलवहें हिस्से के बराबर नही हो सकता । मैत्री जो कि चित्त की विमुक्ति है , उन सबकॊ अपने अन्तर्गत ले लेती है – वह प्रकाशमान होती है , वह प्रदीप्त होती है वह प्रज्जवलित होती है ।”
साभार स्त्रोत : भगवान बुद्ध और उनका धर्म – लेखक : बोधिसत्व डां भीमराव रामजी अम्बेडकर
Thursday, August 2, 2012
वर्तमान मे जीना–Dwelling in the present moment
"अतीत का पीछा न करो ।
भविष्य के भ्रम जाल मे न फ़ंसो।
अतीत व्यतीत हो गया ।
भविष्य अभी अनागत है ।
यहाँ अभी इस क्षण जीवन जैसा है , उसी को धारण करो
साधनाभ्यासी ,स्थिरता और मुक्त भाव मे जीता है ।
कल की प्रतीक्षा की , तो विलम्ब होगा।
मृत्यु अचानक धर दबोचती है
उससे हम क्या समझोता कर सकते हैं ?
भिक्खुजन उसी का आह्वान करते हैं
जो दिन और रात
सचेतानावस्था मे जागृत रहता है
जो जानता है कि
एकान्तवास का उत्तमतर मार्ग क्या है । ”
स्त्रोत : मॆट्टा सुत्त(M. 131); भदिद्कारता सुत्त, आंनद भद्दकारता सुत्त
“Do not pursue the past.
Do not lose yourself in the future.
The past no longer is.
The future has not yet come.
Looking deeply at life as it is
in the very here and now,
the practitioner dwells
in stability and freedom.
We must be diligent today.
To wait until tomorrow is too late.
Death comes unexpectedly.
How can we bargain with it?
The sage calls a person who knows
how to dwell in mindfulness
night and day
‘one who knows
the better way to live alone.’”
Friday, July 13, 2012
ध्यानपूर्ण मन….
ध्यानपूर्ण मन शांत होता है। यह मौन विचार की कल्पना और समझ से परे है। यह मौन किसी निस्तब्ध संध्या की नीरवता भी नहीं है। विचार जब अपने सारे अनुभवों, शब्दों और प्रतिमाओं सहित पूर्णत: विदा हो जाता है, तभी इस मौन का जन्म होता है। यह ध्यानपूर्ण मन ही धार्मिक मन है-धर्म, जिसे कोई मंदिर, गिरजाघर या भजन-कीर्तन छू भी नहीं पाता।
धार्मिक मन प्रेम का विस्फोटक है। यह प्रेम किसी भी अलगाव को नहीं जानता। इसके लिए दूर निकट है। यह न एक है न अनेक, अपितु यह प्रेम की अवस्था है जिसमें सारा विभाजन समाप्त हो चुका होता है। सौंदर्य की तरह उसे भी शब्दों के द्वारा नहीं मापा जा सकता। इस मौन से ही एक ध्यानपूर्ण मन का सारा क्रियाकलाप जन्म लेता है।
ध्यान जीवन की महानतम कलाओं में से एक है- बल्कि शायद यही महानतम् कला है। यह कला संभवत: दूसरे से नहीं सीखी जा सकती-और यही इसका सौन्दर्य है। ध्यान की कोई तकनीक और तरकीब नहीं होती, इसलिए इसका कोई अधिकारी और दावेदार भी नहीं होता। जब आप स्वयं का निरीक्षण करते हुए अपने बारे में सीखते हैं, अर्थात् किस तरह आप खाते-पीते हैं, किस ढंग से आप चलते-फिरते हैं, क्या बातचीत और गपशप करते हैं, आपका ईर्ष्या करना, नफरत करना-जब आप अपने भीतर और बाहर इन सारी चीज़ों के प्रति सचेत होते हैं, बिना किसी कांट-छांट के, तो यह ध्यान का ही अंग है।
और यह ध्यान हर जगह हर समय हो सकता है: जब आप किसी बस में बैठे हों या जब आप धूप और छाया से परिपूर्ण किसी वनस्थली में टहल रहे हों या जब आप पक्षियों के कलरव-गान को सुन रहे हों या जब आप अपनी पत्नी या अपने बच्चे के चेहरे को देख रहे हों।
ध्यान का सहसा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो जाना कितना अद्भुत और विचित्र है ! ध्यान-जिसका न आदि है न अन्त। यह वर्षा की एक बूँद के समान है। इसी बूंद में छिपी हैं सारी की सारी नदियां और जलधाराएं, इसी में समाये हैं बड़े से बड़े समुद्र और जल-प्रपात। जल की यह बूँद पृथ्वी को भी पोषण देती है और मानव को भी। इसके बिना तो यह धरती रेगिस्तान बन जाती ! ध्यान के बिना हमारा हृदय भी ऊसर-बंजर मरुस्थल हो जाता है।
ध्यान का अर्थ यह पता लगाना है कि अपनी सारी गतिविधियों और अपने सारे अनुभवों समेत मस्तिष्क क्या पूर्णत: शान्त हो सकता है। बाध्य होकर नहीं, क्योंकि जिस क्षण आप इसे बाध्य करते हैं, फिर से द्वैत आ खड़ा होता है, और वह सत्ता भी, जो कहती है, ‘‘अद्भुत अनुभूतियों के जगत में प्रवेश के लिए मुझे अपने मस्तिष्क को नियंत्रित कर शान्त कर लेना चाहिए’’-ऐसा कभी संभव नहीं होगा।
लेकिन अगर आप विचार की सारी खोजों और गतिविधियों को, इसके भय, सुखों और संस्कारों को देखने, सुनने और समझने लग जायें, अगर आप अपने मस्तिष्क का निरीक्षण करने लग जायें कि यह किस तरह कार्य करता है, तो आप देखेंगे कि मस्तिष्क असाधारण रूप से शान्त, मौन हो जाता है। यह शांति निद्रा नहीं है बल्कि यह प्रचंड रूप से सक्रिय है और इसलिए शांत है। विद्युत उत्पन्न करने वाला एक बड़ा यंत्र जब अच्छी तरह कार्य करता है तो इससे शायद ही कोई ध्वनि निकलती हो। ध्वनि और शोर-गुल तभी पैदा होता है जब कहीं घर्षण होता है।
मौन और विस्तार का आपसी मेल है। मौन की अनंतता वह अनंतता है जिसके भीतर का केन्द्र मिट चुका है।
जे. कृष्णमूर्ति
ध्यान
ध्यान, निस्तब्ध और सुनसान मार्ग पर इस तरह उतरता है जैसे पहाड़ियों पर सौम्य वर्षा। यह इसी तरह सहज और प्राकृतिक रूप से आता है जैसे रात। वहां किसी तरह का प्रयास या केन्द्रीकरण या विक्षेप विकर्षण पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं होता। वहां पर कोई भी आज्ञा या नकल नहीं होती। ना किसी तरह का नकार होता है ना स्वीकार। ना ही ध्यान में स्मृति की निरंतरता होती है। मस्तिष्क अपने परिवेश के प्रति जागरूक रहता है पर बिना किसी प्रतिक्रिया के शांत रहता है, बिना किसी दखलंदाजी के, वह जागता तो है पर प्रतिक्रियाहीन होता है।
वहां नितांत शांति स्तब्धता होती है पर शब्द विचारों के साथ धंुधले पड़ जाते हैं। वहां अनूठी और निराली ऊर्जा होती है, उसे कोई भी नाम दें, वह जो भी हो उसका महत्व नहीं है, वह गहनतापूर्वक सक्रिय होती है बिना किसी लक्ष्य और उद्देश्य के। वह सृजित होता है बिना कैनवास और संगमरमर के... बिना कुछ तराशे या तोड़े। वह मानव मस्तिष्क की चीज नहीं होती, ना अभिव्यक्ति की.. कि अभिव्यक्त हो और उसका क्षरण हो जाये। उस तक नहीं पहुंचा जा सकता, उसका वर्गीकरण या विश्लेषण नहीं किया जा सकता। विचार और भाव या अहसास उसको जानने समझने के साधन नहीं हो सकते। वह किसी भी चीज से पूर्णतया असम्बद्ध है और अपने ही असीम विस्तार और अनन्तता में अकेली ही रहती है। उस अंधेरे मार्ग पर चलना, वहां पर असंभवता का आनंद होता है ना कि उपलब्धि का। वहां पहुंच, सफलता और ऐसी ही अन्यान्य बचकानी मांगों और प्रतिक्रियाओं का अभाव होता है। होता है तो बस असंभव असंभवता असंभाव्य का अकेलापन। जो भी संभव है वह यांत्रिक है और असंभव की परिकल्पना की जा सके तो कोशिश करने पर उसे उपलब्ध किये जा सकने के कारण वह भी यांत्रिक हो जायेगा। उस आनन्द का कोई कारण या कारक नहीं होता। वह बस सहजतः होती है, किसी अनुभव की तरह नहीं बस अपितु किसी तथ्य की तरह। किसी के स्वीकारने या नकारने के लिए नहीं, उस पर वार्तालाप या वादविवाद या चीरफाड़-विश्लेषण किये जायें इसके लिए भी नहीं। वह कोई चीज नहीं कि उसे खोजा जाये, उस तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं। सब कुछ उस एक के लिए मरता है; वहां मृत्यु और संहार प्रेम है। क्या आपने भी कभी देखा है - कहीं बाहर, गंदे मैले कुचैले कपड़े पहने एक मजदूर किसान को जो सांझ ढले... अपनी मरियल हड्डियों का ढांचा रह गई गाय के साथ घर लौटता है।
जे कृष्णमूर्ति
Friday, June 15, 2012
बुद्ध वाणी–दण्डवग्गो
साभार : Kithshaa
सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बे भायन्ति मच्चुनो।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥
सभी दंड से डरते हैं । सभी को मृत्यु से डर लगता है । अत: सभी को अपने जैसा समझ कर न किसी की हत्या करे , न हत्या करने के लिये प्रेरित करे ।
सब्बे तसन्ति दण्डस्स, सब्बेसं जीवितं पियं।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥
सभी दंड से डरते हैं । सभी को मृत्यु से डर लगता है । अत: सभी को अपने जैसा समझ कर न तो किसी की हत्या करे या हत्या करने के लिये प्रेरित करे ।
सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन विहिंसति।
अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो न लभते सुखं॥
जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से , दंड से विहिंसित करता है ( कष्ट पहुँचाता है ) वह मर कर सुख नही पाता है ।
सुखकामानि भूतानि, यो दण्डेन न हिंसति।
अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो लभते सुखं॥
जो सुख चाहने वाले प्राणियों को अपने सुख की चाह से , दंड से विहिंसित नही करता है ( कष्ट नही पहुँचाता है ) वह मर कर सुख पाता है ।
धम्मपद “दण्ड्वग्गो’
Thursday, June 14, 2012
अष्टांगिक मार्ग - The eightfold path
अष्टांगिक मार्ग ( The eightfold path )
१. सम्यक दृष्टि ( अन्धविशवास तथा भ्रम से रहित ) ।
२. सम्यक संकल्प (उच्च तथा बुद्दियुक्त ) ।
३. सम्यक वचन ( नम्र , उन्मुक्त , सत्यनिष्ठ ) ।
४. सम्यक कर्मान्त ( शानितपूर्ण , निष्ठापूर्ण ,पवित्र ) ।
५. सम्यक आजीव ( किसी भी प्राणी को आघात या हानि न पहुँचाना ) ।
६. सम्यक व्यायाम ( आत्म-प्रशिक्षण एवं आत्मनिग्रह हेतु ) ।
७. सम्यक स्मृति ( सक्रिय सचेत मन ) ।
८. सम्यक समाधि ( जीवन की यथार्थता पर गहन ध्यान ) ।
Monday, June 4, 2012
काष्ठ खंड- सागर तक सीधी यात्रा
अलवी गांव से आगे बढते हुये बुद्ध गंगा के किनारे उत्तर पशिचम में कौशम्बी की ओर चल पडे । वह रास्ते मे थोडी देर तक रुककर धारा मे बहते हुये काष्ठ खंडॊ को देखने लगे । उन्होनें अन्य भिक्खुओं को बुला कर काष्ठ खंडॊं को दिखाते हुये कहा , “ भिक्खुओं यदि यह काष्ठ खंड कहीं किनारे पर रुक न जायें , कही रेत में धंस न जायें , या वे भीतर से सड न जायें , यदि इन्हें बीच में से उठा न लिया जाये या वे किसी भंवर में न फ़ंसे तो ये बहते हुये सीधे समुद्र तक चले जायेगें । यही बात आपके लिये धर्म पथ पर भी लागू होती है । यदि तुम कही रेत में फ़ंसों , यदि उम उठा न लिये जाओ, यदि तुम डूबो नही , यदि तुम रेत मे न फ़ंसों , यदि तुम उठा न लिये जाओ , यदि तुम भंवर में न फ़ंसो , या तुम ही भीतर से सडने न लग जाओ तो तुम भी आत्म जागृति और मुक्ति के सागर तक पहुंच सकते हो ।
भिक्खुओ ने कहा , “ गुरुदेव , कृपया अपने कथन को पूर्णतया स्पष्ट करने का अनुग्रह करे । किनारे रुक जाने , डूब जाने , या रेत में धंस जाने से आपका तात्पर्य क्या है ? ”
बुद्ध ने उत्त्तर देते हुये कहा , “ नदी के किनारे रुक जाने का अर्थ है – छ: इंद्रियों और उनके विषयों में फ़ंस जाना ।
डूब जाने का अर्थ इच्छा – आकांक्षाओं का दास हो जाना है जिससे आपकी साधना की क्षमता का क्षरण हो जाता है ।
रेत मे फ़ंस जाने का अर्थ है स्वार्थी हो जाना , सदैव अपनी ही इच्छाओं , अपने ही लाभ की और अपनी प्रतिष्ठा की बात सोचना और आत्म जागृति के लक्ष्य को भूल जाना ।
जल से निकल लिये जाने का अर्थ है – साधना अभ्यास के स्थान पर स्वंय को निरुदेशय बना लेना और घटिया लोगों की संगति में घूमते फ़िरते रहना ।
भंवर मे फ़ंसे रहने का अर्थ है – पांच प्रकार की इच्छाओं –सुस्वादु भोजन , विषय वासना , वित्तेषणा , यशेषणा , और निद्रा में फ़ंसे रहना ।
भीतर से सडने का अर्थ है – दिखावे के सदगुणॊं वाला जीवन जीना , संघ को धोखा देना और धर्म को अपनी इछ्छाओं और आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिये प्रयोग करना ।”
“ भिक्खुओं यदि आप लोग परिश्रमपूर्वक साधना करो तो इन छ: भ्रमजालों मे न फ़ंसो तो निशिचित ही संबोधि( निर्वाण शांतम ) का फ़ल प्राप्त कर सकते हो ; ठीक उसी प्रकार जिस तरह बहता काष्ठ खंड सभी बाधाओं से बचता हुआ समुद्र तक पंहुच जाता है । ”
स्त्रोत : संयुक्त निकाय –ति न्यात हन्ह द्वारा लिखित “जंह जंह चरन परे गौतम के ”
Sunday, June 3, 2012
बौद्ध परिपथ की राह दिखाएगा ‘द पाथ’
उत्तर प्रदेश राज्य पर्यटन विभाग बौद्ध परिपथ के जरिए उड़ान भरने की तैयारी में है। थाइलैंड, कंबोडिया, वियतनाम, जापान, चीन, बर्मा जैसे देशों में रहने वाले बौद्ध धर्म के अनुयायियों को प्रदेश में फैली बौद्ध विरासत की तरफ आकृष्ट करने के लिए विभाग ने इन देशों के दूतावासों से सीधे तार जोड़े हैं। इन देशों में मिली जबर्दस्त प्रतिक्रिया से पर्यटन विभाग के हौसले बुलंद हैं। माना जा रहा है कि पर्यटन विभाग की यह कोशिश प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगी। इस कोशिश में विभाग ने कपिलवस्तु, सारनाथ, श्रावस्ती, संकीसा, कौशांबी व कुशीनगर में फैले बौद्ध स्थलों को द पाथ नामक खूबसूरत ब्रोशर में समेटा है। कहते हैं कि कपिलवस्तु, जहां गौतम बुद्ध का बचपन गुजरा। 40 वर्ष से अधिक समय बुद्ध ने गंगा के मैदानी इलाकों की यात्रा की। पर्यटन विभाग में ओएसडी भारती सिंह बताती हैं कि बुद्ध से जुड़े सभी स्थलों की जानकारी एक ही ब्रोशर में पर्यटकों को मिल सकेगी। उन्होंने बताया कि थाइलैंड, कंबोडिया, जापान, चीन, बर्मा सभी देशों के दूतावासों ने इस प्रयास की सराहना की है। यही नहीं थाईलैंड दूतावास ने अपनी वेबसाइट में उत्तर प्रदेश पर्यटन का लिंक देने का वादा किया है, जिससे थाईलैंड की वेबसाइट एक्सेस करने वालों को बौद्ध परिपथ की जानकारी मिल सकेगी। पर्यटन विभाग वेबसाइट पर ई-ब्रोशर देगा।
साभार : ई जागरण
Thursday, May 24, 2012
बुद्ध वाणी – “दूसरों के दोषॊं को मत देखो”
सुदस्सं वज्जमञ्जेसं उत्तनो पन दुइसं।
परेसं हि सो वज्जानि ओपुनाति यथा भुसं।
अत्तनो पन छादेति कलि व कितवा सठी॥
भगवान बुद्ध कहते हैं कि दूसरे का दोष देखना आसान है, अपना दोष देखना कठिन। मनुष्य दूसरों के दोषों को भूस की तरह फैलाता है। और अपने दोषों को ऐसे छिपाता है जैसे जुआरी पासों को।
परवज्जानुपस्सिस्स निच्चं उज्झानसञ्जिनो।
आसवा तस्य वड्ढन्ति आरा सो असावक्खया॥
जो आदमी दूसरों के दोष देखता रहता है और नित्य दूसरों से खीजता रहता है, उसके चित्त के मल बढ़ जाते हैं। उसके मन का मैल मिटाना कठिन है।
Wednesday, May 23, 2012
वर्तामान और सचेतावस्था मे जीना
संबोधि प्राप्ति के पशचात गौतम बुद्ध ने उरुबेला गांव के बच्चों से वन से जाने की आज्ञा माँगी । सुजाता, नंद बाला , सुभाष , स्वास्ति और रुपक उनके इस कथन से विस्मित से रह गये । सिदार्थ ने सुजाता और अन्य बच्चों से कहा कि आज वह तीसरे पहर बच्चों से वन मे मिलना चाहते हैं ताकि जो संबोधि का मार्ग उन्होने चुना है उसको वह उन्हें बाँट सकें ।
उनके बताये समय के अनुसार बहुत से बच्चे आये और सब पीपल के वृक्ष के पास घेरा बना के बैठ गये । सुजाता अपने साथ नारियल और ताडगुड की बट्टियाँ उपहार स्वरुप लायी थी और वहीं नंद बाला और सुभाष अपने साथ टॊकरी में मिठ्ठे ( संतरे जैसा फ़ल ) लाया था । सब बच्चॊ ने आदर भाव से सिद्धार्थ को नमन किया और फ़लस्वरुप सिद्धार्थ ने उनको बैठ जाने को कहा । सिद्धार्थ ने बच्चों से कहा , “ तुम सब बच्चे समझदार हो और मुझे विशवास है कि जो मै तुम्हें बताउगाँ उन पर तुम अमल करोगे । जो मार्ग मैने सदधर्म का चुना है वह बहुत गूढ और सूक्ष्म है लेकिन जो भी उस पर अपना ह्रदय और चित्त लगायेगा वह उसे समझ सकता है और उस पर चल सकता है । ”
बच्चों जब तुम संतरे को छीलकर खाते हो तो उसे सचेतावस्था के साथ भी खा सकते हो और बगौर जागरुक रह कर भी । जब तुम मिट्ठा खाओ तो तुम को भली भाँति ज्ञान हो कि तुम मिट्ठा खा रहे हो । तुम उसकी गंध और स्वाद को आत्मसात करो । जब तुम उसका छिल्का उतारो तब भी सजग रहो और जब उसकी फ़ाँक मुँह में रखो तब भी । जब तुम इस फ़ल की गंध और मिठास को अनुभव करो तो उस अनुभूति के प्रति भी सजग रहो । इस मिठ्ठे को देखकर चेतनावस्था का अभ्यास करने वाला सृष्टि की अदभुतताओं को समझ सकता है कि किस प्रकार समस्त वस्तुयें एक दूसरे के प्रति क्या क्रिया प्रतिक्रिया करती हैं । सचेतावस्था का अभ्यास करने वाला व्यक्ति इस मिठ्ठे में वे चीजें देख सकता है जिसे अन्य लोग देखने मे असमर्थ रहते हैं । सचेत व्यक्ति मिठ्ठे का पेड देख सकता है , वसन्त ऋतु मे मिठ्ठे को फ़लता देख सकता है , उस धूप और वर्षा को देख सकता है जिससे मिठ्ठे के पॆड का पोषण होता है और गहराई से देखने पर वह उन बातों को जान लेता है जिनके स्व्बरुप मिठ्ठा पककर तौयार होता है ।
नंद ने जो मुझे मिठ्ठा दिया है उसमें नौ फ़ाँके हैं । जिस प्रकार मिठ्ठे की नौ फ़ांके हैं उसी प्रतिदिन के चौबीस घंटॆ होते हैं । एक घंटा मिठ्ठे की एक फ़ांक के समान है । दिन के चौबीस घंटॊं को जीना इस मिठ्ठे की सभी फ़ांको को खा लेने के समान है । मेरा मार्ग दिन के प्रत्येक घंटे को सचेतावस्था के साथ जीना है जिसमे चित्त और शरीर हमेशा वर्तमान पर केन्द्रित हो । यदि हम अचेतावस्था में जी रह होते हैं तो हम जानते नही कि हम जी रह रहे हैं । हम जीवन का पूर्ण अनुभव इसी कारण नही कर पाते क्योंकि हमारा चित्त और शरीर वर्तमान को पूर्णता के साथ जीता ही नही है । “ बच्चों , सचेत होकर मिट्ठा खाने का अर्थ है कि तुम वास्तव में उसके संपर्क में हो । उस समय बीते हुये कल या आगामी कल के विचारों मे खोये हुये नही बल्कि पूरी तरह से इस क्षण को जी रहे हो । चेतन जागरुकता का अर्थ है वर्तमान के इस क्षण को पूर्णता के साथ जीना जिसमें तुम्हारा चित्त्त और शरीर इस समय यहाँ हों ।”
इसी तरह बच्चों सचेतावस्था में जीने वाला व्यक्ति जानता है कि वह क्या सोच रहा है , क्या कह रहा है और क्या कर रहा है । ऐसा व्यक्ति उन विचारों , शब्दों या कार्यों से बच सकता है जिनसे उसे स्वयं तथा दूसरे को कष्ट हो और इसी समझ और ज्ञान से सहनशीलता और प्रेम का उदय होता है । फ़लस्वरुप संसार में अधिक कष्ट नही रह जाते ।
स्त्रोत : सतिपत्थन सुत्त्त , सचेतावस्था से जुडा विचार से लिया गया है । तिक न्यात हन्ह ( Thich Nhat Hanh ) की पुस्तक जहं जहं चरन पडे गौतम के ( Old paths white clouds )- प्रकाशक ‘हिन्द पाकेट बुक ’
Saturday, May 5, 2012
बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनायें !!
आज से लगभग 2500 वर्ष पहले इसी पुण्य दिन धरती की गोद में महाराज शुद्धोधन के यहाँ राजकुमार सिद्धार्थ ने जन्म लिया था। इसके बाद एक-एक करके कई बैसाख पूर्णिमा आयी और चली गयीं। लेकिन फिर से एक महापुण्यवती बैसाख पूर्णिमा आयी, जब महातपस्वी सिद्धार्थ के अन्तर्चेतना में बुद्ध ने जन्म लिया। इस अनूठे जन्मोत्सव को मनुष्यों के साथ देवों ने भी अलौकिक रीति से मनाया। इस पुण्य घड़ी में सिद्धार्थ सम्यक् सम्बुद्ध बन गए और बैसाख पूर्णिमा बुद्ध पूर्णिमा में रूपान्तरित हो गयी।
इस पूर्णिमा से जुड़ी दोनों ही कथाएँ बड़ी ही मीठी और प्यारी हैं। आज से 2500 साल पहले, जिस दिन सिद्धार्थ का जन्म हुआ, समूची कपिलवस्तु में उत्सव की धूम मच गयी। पूरा नगर सज गया। रात भर लोगों ने दिए जलाए, नाचे। उत्सव की घड़ी थी, चिर दिनों की प्रतीक्षा पूरी हुई थी। बड़ी पुरानी अभिलाषा थी पूरे राज्य की। इसलिए राजकुमार को सिद्धार्थ नाम दिया गया। सिद्धार्थ का मतलब होता है, जीवन का अर्थ सिद्ध हो जाना, अभिलाषा का पूरा हो जाना।
पहले ही दिन, जब द्वार पर बैंड बाजे बज रहे थे, शहनाइयाँ गूँज रही थी, फूल बरसाए जा रहे थे, महलों में, चारों तरफ प्रसाद बांटा जा रहा था। तभी हिमालय से भागते हुए एक वृद्ध तपस्वी महलों के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। उसका नाम असिता था। नगर वासियों के साथ स्वयं सम्राट उनका सम्मान करते थे। वह अब तक कभी राजधानी न आए थे। स्वयं सम्राट को भी उनसे मिलने के लिए जाना पड़ता था। आज उन्हें अचानक महलों की डयोढ़ी पर देखकर सभी चकित थे। सम्राट ने आकर खड़े अचकचाए स्वर में उनसे पूछा-हे महातपस्वी, क्या सेवा करूँ आपकी।
असिता ने उनकी दुविधा का निवारण करते हुए कहा, परेशान न हो शुद्धोधन। तुम्हारे घर बेटा पैदा हुआ है, उसके दर्शन को आया हूँ। शुद्धोधन तो समझ ही न पाए। सौभाग्य की घड़ी थी यह कि असिता जैसा महान् वीतरागी उनके बेटे को देखने के लिए आया। वह भागे हुए अन्त:पुर में गए और नवजात शिशु को बाहर लेकर आए। असिता झुके और उन्होंने शिशु के चरणों में सिर रख दिया। और कहते हैं, शिशु ने उनके पांव अपनी जटाओं में उलझा दिए। असिता पहले तो हंसे, फिर रोने लगे। शुद्धोधन तो हतप्रभ हो गए, वह पूछने लगे, महामुनि आप रोते क्यों हैं ?
असिता ने कहा, तुम्हारे घर में जो यह बेटा आया है, यह कोई साधारण आत्मा नहीं है, अरे यह तो सब तरह से अलौकिक है। कई सदियाँ बीत जाती है, तब कहीं यह आता है। यह तुम्हारे लिए ही सिद्धार्थ नहीं, यह तो अनन्त-अनन्त लोगों के लिए समूची मनुष्यता के लिए सिद्धार्थ है। अनन्त जनों के जीवन का अर्थ इससे सिद्ध होगा। हंसता हूँ कि इसके दर्शन मिल गए। बहुत प्रसन्न हूँ कि इसने मुझ बूढ़े की जटाओं में अपने पांव उलझा दिए। मेरे लिए यह परम सौभाग्य का क्षण है। पर रुलाई इसलिए आ रही है कि जब यह कली खिलेगी, फूल बनेगी, जब दसों दिशाओं में इसकी महक उठेगी, तब मैं न रहूँगा। मेरे शरीर छूटने की घड़ी करीब आ गयी है।
महातपस्वी असिता की यह बात बड़ी अनूठी पर सच्ची है। बुद्धत्व का लुभावनापन ही कुछ ऐसा है। उनकी मोहकता है ही कुछ ऐसी। असिता जीवनमुक्त हो गए, पर उन्हें पछतावा होने लगा, कि काश एक जन्म अगर और मिलता तो इससे महाबुद्ध के चरणों में बैठने की, इनकी वाणी सुनने की, इनकी सुगन्ध पीने की, इनके बुद्धत्व में डूबने की सुविधा हो जाती। ऐसे अनूठे पल होते हैं, बुद्धत्व के विकसित होने के। महातपस्वी असिता में भी चाहत पैदा हो गयी कि मोक्ष दांव पर लगता हो लगे, कोई हर्जा नहीं। वह रोने लगे थे उनके पांवों पर सिर रखकर कि सदा ही चेष्टा कि कब छुटकारा हो इस शरीर से जीवन के आवागमन से, पर आज पछतावा हो रहा है।
काल प्रवाह के क्षण, दिवस, वर्ष बीते। और एक बैसाख पूर्णिमा को सत्य का, सम्बोधि का, बुद्धत्म का वहीं चाँद निकला, जिसकी चांदनी में जीने की चाहत कभी असिता ने की थी। यह पूर्णचन्द्र महातपस्वी शाक्यमुनि सिद्धार्थ के अन्तर्गगन में उदय हुआ। इस बीच अनेकों घटनाएँ काल सरिता में घटकर बह गयीं। शिशु सिद्धार्थ किशोर हुए, युवा हुए, यशोधरा उनकी राजरानी बनीं, राहुल के रूप में उन्हें पुत्र मिला। पर ये तो दृश्य घटनाएँ थी। अदृश्य में भी बहुत कुछ घटा। प्रचण्ड वैराग्य, अनूठा विवेक-जिसकी परिणति महाभिनिष्क्रमण के रूप में हुई। युवराज तपस्वी हो गए। तपस्या में दुर्बल, जर्जर सिद्धार्थ को सुजाता ने खीर खिलायी। और उनकी देह को ही नहीं जीवन चेतना को भी नव जीवन मिला। और वह गौतम बुद्ध हो गए।
गौतम बुद्ध के रूप में वे ऐसे है जैसे हिमाच्छादित हिमालय। जिससे करुणा की अनेकों जलधाराएँ निकलती हैं। जहाँ से महाकरुणा की गंगा बहती है। जो पतितपावनी, कलिमलहारिणी, सर्वपापनाशिनी है। पर्वत तो और भी है हिमाच्छादित पर्वत भी और है। पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे हैं। पूरी मनुष्य जाति में उनके जैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। उन्होंने जितने हृदयों की वीणा को बसाया है, उतना किसी और ने नहीं। उनके माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम भगवत्ता उपलब्ध की, उतनी किसी और के माध्मय से नहीं।
बुद्ध के बोल अत्यन्त मीठे हैं, उनके वचन बहुत अनूठे हैं। उनके द्वारा कही गयी धम्म गाथाओं में जीवन के बहुआयामी सच है। प्रत्येक धम्मगाथा एक कथा कहती है और जिन्दगी को राह दिखाती है। इस पुस्तक में इन अनूठी कथाओं को पिरोया गया है। एच.जी. वेल्स ने बुद्ध के संबंध में एक अद्भुत सच्चाई बयान की। उन्होंने कहा- कि समूची धरती पर उन जैसा ईश्वरीय व्यक्ति और उनकी तरह ईश्वर शून्य व्यक्ति एक साथ पाना कठिन है- सो गॉड लाइफ एण्ड सो गॉड लेस। अगर कोई ईश्वरीय प्रतिभाओं को खोजने निकले तो बुद्ध से शून्य। ईश्वर शून्यता का अर्थ ईश्वर विरोधी होना नहीं है। जैसा कि कुछ समझदार समझे जाने वाले नासमझों ने समझ लिया है। इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि उन्होंने परम सत्य का उच्चार नहीं किया।
उपनिषद् कहते हैं कि ईश्वर के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, लेकिन इतना तो कह ही दिया। बुद्ध ने इतना भी नहीं कहा। वे परम उपनिषद् हैं। वह ईश्वर की चर्चा करने वाले केवल नाम मात्र के आस्तिक नहीं हैं। अगर परमात्मा के संबंध में कुछ कहना संभव नहीं, तो फिर बुद्ध ने कुछ नहीं कहा। बस चुप रहकर-इशारा किया। पशिचम में एक बहुत बड़ा दार्शनिक हुआ है- लुडविग पिट्गिंस्टाइन। उसने अपनी बड़ी अनूठी किताब ‘ट्रैफ्टेटस’ में लिखा है कि जिस संबंध में कुछ कहा न जा सके, उस संबंध में बिल्कुल चुप रह जाना उचित है। दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड, मस्ट नॉट भी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, कहना ही नहीं चाहिए।
अगर विट्गिंस्टाइन ने बुद्ध को देखा होता तो वे अपने कहे हुए सच की अनुभूति कर लेते। अगर विट्गिंस्टाइन की बातों को बुद्ध ने सुना होता तो अवश्य मुस्करा देते। बड़े ही प्यार से वे उसके कथन को अपनी स्वीकृति दे देते। परिश्रम के लोगों ने विट्गिंस्टाइन को समझने में भूल की। यही भूल पूरू के लोगों को हुई, बुद्ध को समझने में। बुद्ध दार्शनिक और विचारक नहीं, वह रुग्ण मनुश्यता के लिए बड़े ही करुणावान वैद्य थे। बहुत लोगों ने मनुष्य के रोग का विश्लेषण किया है। पर इतना करुणापूर्ण होकर और इतने सटीक ढंग से नहीं। बड़े ढंग सेल लोगों की बातें कही हैं, बड़े गहरे प्रतीक उपाय में लाए हैं। पर बुद्ध के कहने का ढंग ही कुछ और है, जिसने एक बार सुना, पकड़ा गया। जिसे उनके बुद्धत्व की थोड़ी सी झलक मिल गयी, उसका समूचा जीवन ही रूपान्तरित हो गया। ‘अप्प दीपो भव’ यही बुद्ध का अन्तिम वचन है। बुद्ध पूर्णिमा के शुभ क्षणों में इस भांति भी स्मरण किया जा सकता है-
महाबुद्ध ने मुझसे-तुमसे,
एक-एक से, हम सबसे
सुनो, यह सत्य कहा,
अपने दीपक आप बनो तुम
तिमिर का व्यूह भेद करना है,
कैसा यहाँ विराम
शिखा को झंझा में पलना है।
साभार : आचार्य श्रीराम शर्मा
बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनायें !!
Wednesday, April 25, 2012
धम्मं शरणं गच्छामि
थाइलैंड में बाधों के बीच एक बौद्ध भिक्षु । इंसान और पशु के बीच सहअस्तित्व का ऐसा अनोखा मेल यहां के बौद्ध मंदिर मे देखा जा सकता है ।
साभार : दुनिया का एकमात्र टेंपल जहां बाघ और इंसान रहते हैं साथ-साथ
Friday, April 20, 2012
बुद्ध द्वारा प्रदान पंचशील सिद्धांत , सदाचार और नैतिक गुण
बहुत से लोग बुद्ध धम्म को दुखवादी (pessimistic ) समझते हैं लेकिन अगर हम भगवान बुद्ध द्वारा प्रदान किये गये पंचशील सिद्दांत को गौर से देखें तो यह जीवन के प्रति सहज दृष्टिकोण का परिचय देते हैं । यह पंचशील सिद्दांत क्या गलत है या क्या सही है की परिभाषा तय नही करते बल्कि यह हमे सिखाते हैं कि अगर हम होश रखें और जीवन को गौर से देखें तो हमारे कुछ कर्म हमको या दूसरों को दु:ख पहुंचाते हैं और कुछ हमे प्रसन्नता का अनुभव भी कराते हैं ।
बुद्ध के पाँच उपदेश हैं :
प्राणीमात्र की हिंसा से विरत रहना ।
चोरी करने या जो दिया नही गया है उसको लेने से विरत रहना ।
लैंगिक दुराचार या व्यभिचार से विरत रहना ।
असत्य बोलने से विरत रहना ।
मादक पदार्थॊं से विरत रहना ।
बुद्ध के यह पाँच उपदेशों को हम व्यवाहार के “प्रशिक्षण के नियम” के रुप मे समझे न कि किसी आज्ञा के रुप मे । यह ऐसा अभ्यास है जिसका विकास करके ध्यान, ज्ञान, और दया को पा सकते हैं ।
हम इन पाँच उपदेशों को कैसे समझते है यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है । जैसे कुछ लोग चीटीं को मार नही सकते लेकिन माँस खाते हैं या फ़िर कुछ सिर्फ़ शाकाहारी ही होते हैं । कुछ मदिरा को हाथ भी नही लगाते और कुछ दिन मे सिर्फ़ एक आध पैग लगाते हैं क्योकि इससे उनको लगता है कि इससे उनको सूकून मिलता है या कुछ हमेशा नशे मे धुत रहते हैं । यह पाँच उपदेश यह नही सिखाते कि क्या सही है बल्कि अगर हम ईमानदारी से तय करे कि हमारे लिये क्या मददगार है और क्या हानिकारक ।
इसी तरह अगर हमे दूसरों की आलोचना करने की गहरी आदत है तो हम चौथे उपदेश को अभ्यास के लिये चुन सकते हैं । और अगर हमे टी.वी. या इन्टर्नेट का नशा सा है तो हम पाँचवे नियम को भी चुन सकते हैं । बुद्ध ने जब यह पाँच उपदेश दिये थे तन उनका तात्पर्य मादक तत्वों से ही रहा होगा लेकिन वक्त के साथ मनोरंजन की गतिविधिया भी असंख्य हो गयी ।
हाँ , अगर हमसे कोई सिद्दांत टूट भी जते है तब इस बात का अवशय ख्याल रखें कि हम अपराध बोध से ग्रस्त न हों । अपरध बोध और पछतावे मे अन्तर हमें स्व दुख से बचाता है ।
इन उपदेशॊ का प्रयोजन हमे प्रसन्न रखना है और दुख से दूर रखना है । अगर हमारी वजह से किसी को चोट पहुची हो तो हमे दुख भी होता है और स्वाभाविक रूप से पश्चाताप भी । हम इस बात का ध्यान रखे और इससे सबक लें । पछ्तावे के यह क्षण बिना किसी अवशिष्ट भावनाओं को छोड़कर चले जाते हैं । लेकिन कभी –२ पछतावा और प्रायशिचित आत्म घृणा और दुख का कारण बनाता है । तब हम इस बात का ध्यान रखें और आत्म घृणा और अपराध बोध की बेकार की आदत से बचें क्योंकि यह भी आदत स्व दुख पहुँचाने की आदत सी है ।
Wednesday, April 18, 2012
DIFFERENT ATTITUDE OF THE HUMAN MIND
DIFFERENT ATTITUDE OF THE HUMAN MIND
"Some persons are like letters carved on a rock, they easily give way to anger and retain their angry thoughts for a long time. Some are likeletters written in sand; they give way to anger also, but the angry thoughts quickly pass away. Some men are like letters written in the water; they do not retain their passing thoughts. But the perfect ones are like letters written in the wind, they let abuse and uncomfortable gossip pass by unnoticed. Their minds are always pure and undisturbed." Venerable Dr. K. Sri Dhammananda
Thursday, April 5, 2012
मिलिन्द -प्रशन
सम्राट मीनान्डर और नागसेन का यह प्रसिद्ध संवाद सागलपुर ( वर्तमान स्यालकोट ) मे हुआ था जो उस समय सम्राट मीनान्डर की राजधानी थी । इस ग्रंथ मे राजा मिनान्डर ने भिक्खु नागसेन से अनेक ऐसे प्रशन पूछॆ है जो सीधे मनुष्य के मनोविज्ञान से संबध रखते हैं'मिलिन्द प्रशन ’ में भिक्षु नागसेन ने बुद्ध धम्म के एक गूढ तत्व ‘अनात्म ’ को समझाने का प्रयत्त्न किया है । ‘ मिलिन्द प्रशन ’ के दूसरे परिच्छॆद के ‘लक्षण प्रशन’ अध्याय का यह संवाद अंश वास्तव मे जटिल विषय को सहजता से प्रस्तुत करता है ।
गत सप्ताह सारनाथ भ्रमण के दौरान मूलगन्ध कुटी मन्दिर के स्टाल से “ मिलिन्दपंह” नामक ग्रंथ की यह पुस्तक विक्रय की जो सम्यक प्रकाशन केन्द्र से प्रकाशित की गई थी । हकीकत मे इस पुस्तक को पढने की ललक मुझे अपने मित्र श्री राजेश चन्द्रा जी द्वारा उपहार में दी गई श्री धम्मानन्द जी की पुस्तक के आरम्भिक संपादिकीय पन्नों से हुई जिसमें मिलिन्द प्रशन के कुछ पन्नों का समावेश किया गया था ।
बौद्ध साहित्य में ‘ मिलिन्दपंह ’ नामक ग्रंथ का अपना महत्वपूर्ण स्थान है । हाँलाकि इस ग्रंथ की गिनती त्रिपिट्क के ग्रंथों में नही आती , लेकिन त्रिपिटिक के बाद लिखे जाने वाले अनुत्रिपिटक ग्रंथॊं मे इसका स्थान सबसे ऊपर है । ’ मिलिन्द प्रशन’ का महत्व बौद्ध जगत मे ठीक उसी प्रकार से है जैसे हिन्दू धर्म में श्री भगवद गीता का । जिस प्रकार श्री भगवद गीता मे भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन की शंकाओं को दूर करने के लिये उप्देशात्मक उत्त्र दिये गये हैं वैसे ही ‘मिलिन्द प्रशन’ मे सम्राट मिलिन्द के द्वारा उठाई गई शंकाओं का समाधान भिक्खु नागसेन द्वारा किया गया है ।
भारत मे आर्यों के आकर बसने के बाद विदेशियों के आक्रमण होते रहे । इसमे पहला आक्रमण लगभग आठ सो ईसा पूर्व असीरिया की सम्राज्ञी सेमिरामिस का था । दूसरा ईरान के प्रसुद्ध विजेता कुरु का था । इसके उपरांत ईसा से ३२० वर्ष पूर्व यूनान के जगत प्रसिद्ध विजेता सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया लेकिन उसकी सेना को मगध राज्य की विशाल सेना के भय से बीच मे ही लौट के जाना पडा । सिकंदर के कुछ साथी पशिचम एशिया में बस गये और इस प्रकार भारत मे यूनानियों का आकर बस जाना जारी रहा । उत्तर भारत में शासन करने वाले ग्रीक राजाओं मे मिनाणडर के साम्राज्य का विस्तार का संकेत कशमीर तक मिलता है । मथुरा में खुदाई मे मिले महत्वपूर्ण बाईस सिक्कों से यह कहा जा सकता है कि उसका राज्य मथुरा तक फ़ैला हुआ था । प्रसिद्ध इतिहासकार प्लूटॊ के अनुसार उतर भारत मे शासन करने वाले ग्रीक राजाऒ मे मिनान्डर अत्यन्त न्यायी , विद्धान और लोकप्रिय राजा था । मिनाणर के भारत में आने के दो प्रमुख कारण थे , पहला अपने राज्य का विस्तार करना और दूसरा कि यहाँ के संतों , श्रमणॊं और दार्शिनिकों से वाद विवाद एंव शास्त्रार्थ करके अपनी ज्ञान पिपासा और दार्शिनिक शंकाओं को दूर करना था ।
सम्राट मीनान्डर और नागसेन का यह प्रसिद्ध संवाद सागलपुर ( वर्तमान स्यालकोट ) मे हुआ था जो उस समय सम्राट मीनान्डर की राजधानी थी । इस ग्रंथ मे राजा मिनान्डर ने भिक्खु नागसेन से अनेक ऐसे प्रशन पूछॆ है जो सीधे मनुष्य के मनोविज्ञान से संबध रखते हैं । इस ग्रंथ का दूसरा और तीसरा वर्ग मनोविज्ञान से भरा हुआ है जिनमें सात विवेक और ज्ञान विषयक प्रशन एंव उत्तर के अतिरिक्त शील, श्रद्धा , वीर्य, स्मृति, समाधि एंव ज्ञान की पहचान पर चर्चा है । तृतीय वर्ग के अंतर्गत अविधा , संस्कार, अनात्मा आदि का वैज्ञानिक विशलेषण किया गया है । इस उपभाग में ही स्पर्श , वेदना , संज्ञा, चेतना , विज्ञान , वितर्क और विचार की पहचान विशुद्ध मनोवैज्ञानिक विषय है जिसकी विस्तृत जानकारी इस ग्रंथ से मिलती है ।
मिलिन्द प्रशन के उपभाग लक्षण प्रशन के अंतर्गत ’ पुदगल प्रशन मीमांसा ’ मेरी समझ से सबसे अधिक लोकप्रिय और बुद्ध धम्म के सबसे अधिक गूढ तत्व अनात्म को समझने मे सहायक है ।
पुदगल प्रशन मीमांसा
राजा मिलिन्द भिक्षु नागसेन से मिलने गये , उनको नमस्कार और अभिवादन किया और एक ओर बैठ गये । नागसेन ने भी जिज्ञासु एंव विद्धान राजा का अभिनन्दन किया ।
तब राजा मिलिन्द ने प्रशन किया – भन्ते , आप किस नाम से जाने जाते हैं , आपका शुभ नाम क्या है ?
महाराज मैं ‘नागसेन’ नाम से जाना जाता हूँ और मेरे सहब्रह्मचारी मुझे इसी नाम से पुकारते हैं । यद्दपि माँ-बाप नागसेन , सूरसेन , वीरसेन या सिंहसेन ऐसा कुछ भी नाम दे देते हैं , किन्तु यह व्यवहार के लिये संज्ञायें भर हैं , क्योंकि व्यवहार में ऐसा कोई पुरुष ( आत्मा ) नही है ।
भिक्षु नागसेन के इस असामान्य उत्तर से चकित सम्राट मिलिन्द ने उपस्थित समुदाय को सम्बोधित करते हुये कहा – मेरे पाँच सौ यवन और अस्सी हजार भिक्षुओं , आप लोग सुनें , भन्ते नागसेन का कहना है कि ‘ यथार्थ मे कोई आत्मा नही है ’ उनके इस कथन को क्या समझना चाहिये ?
फ़िर भन्ते को सम्बोधित करते हुये कहा – यदि कोई आत्मा नही है तो कौन आपको चीवर , भिक्षापात्र , शयनासन , और ग्लानप्रत्यय ( औषधि) देता है ? कौन उसका भोग करता है ? कौन शील की रक्षा करता है ? कौन ध्यान साधाना का अभ्यास करता है ? कौन आर्यमार्ग के फ़ल निर्वाण का साक्षात्कार करता है ? कौन प्राणातिपात ( प्राणि हिंसा ) करता है ? कौन अदत्तादान ( चॊरी ) करता है ? कौन मिथ्या भोगों मे अनुरक्त होता है ? कौन मिथ्या भाषण करता है ? कौन मद्ध पीता है ? कौन अन्तराय कारक कर्मों को करता है ? यदि ऐसी कोई बात है तो न पाप है और न पुण्य , न पाप और पुण्य कर्मों के कोई फ़ल होते हैं । भन्ते , नागसेन ! यदि कोई आपकी ह्त्या कर दे तो किसी की हत्या नही हुई । भन्ते , तब तो आपका कोई आचार्य भी नही हुआ , कोई उपाध्याय भी नही और आपकी उपसम्पदा भी नही हुई ।
आप कहते हैं कि आपके सह ब्रहमचारी आपको नागसेन नाम से पुकारते हैं , तो यह ‘नागसेन’ है क्या , क्या ये केश ‘नागसेन’ हैं ?
‘नहीं महाराज !’
‘ये रोयें नागसेन हैं ?’
‘नहीं महाराज!’
‘ये नक, दाँत , चमडा, मांस, स्नायु, हडडी , मज्जा , वृक्क, ह्रदय , क्लोमक, तिल्ली, फ़ुफ़्फ़ुस, आंत, पसती, पेट, मल, पित्त, पीब, रक्त, पसीना, मेद, आँसू, लार, नेटा, लसिका, दिमाग नागसेन हैं ?’
‘नहीं महाराज!’
‘तब क्या आपका रुप नागसेन है ?’
‘नहीं महाराज!’
‘तो क्या ये सब मिल कर पंच स्कन्ध नागसेन हैं?’
‘नहीं महाराज!’
‘तो इन रुपादि से भिन्न कोई नागसेन है ?’
‘नहीं महाराज!’
‘भन्ते , मैं आपसे प्रशन पूछ्ते-२ थक गया हूँ, किन्तु नागसेन क्या है इसका पता नहीं लगा । तब क्या नागसेन केवल शब्द मात्र है ? आखिर नागसेन है कौन ? भन्ते आप झूठ बोलते हैं कि नागसेन कोई नही है ।’
अस्तु प्रशन कर-२ थके राजा मिलिन्द से भिक्षु नागसेन ने पूर्ववत सौम्य स्वर मे कहा – महाराज , आप सुकुमार युवक हैं , इस तपती दोपहर में गर्म बालू तथा कंकडॊं से भरी भूमि पर पैदल चल कर आने से आप के पैर दुखते होगें , शरीर थक गया होगा , मन असहज होगा और शरीर में पीडा हो रही होगी । क्या आप पैदल चल कर यहाँ आये हैं या किसी सवारी पर ?
‘भन्ते मैं पैदल नही बल्कि रथ पर आया हूँ ।’
‘महाराज ! यदि आप रथ पर आये हैं तो मुझे बतायें कि आपका रथ कहाँ है?’
‘राजा मिलिन्द ने रथ की ओर अंगुली निर्देश किया तब भन्ते नागसेन ने पूछा – राजन ! क्या ईषा( दण्ड ) रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या अक्ष रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या चक्के रथ हैं ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘राजन ! क्या रथ का पंजर रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या रथ की रस्सियाँ रथ हैं ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या लगाम रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या चाबुक रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘राजन ! क्या ईषादि सभी एक साथ रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘क्या ईषादि से परे कही रथ है ?’
‘नहीं भन्ते!’
‘महाराज ! मै आपसे पूछते-२ थक गया हूँ किन्तु यह पता नही लगा कि रथ कहाँ है । क्या रथ केवल शब्द मात्र है ? अन्तत: यह रथ है क्या ? महाराज आप झूठ बोलते हैं कि रथ नही है । महाराज , सारे जम्बुद्दीप मॆं आप सबसे बडॆ राजा हैं , भला किसके डर से आप झूठ बोलते हैं ?’
‘पांच सौ यवनों और मेरे अस्सी हजार भिक्षुओं ! आप लोग सुनें , राजा मिलिन्द ने कहा , ‘मैं रथ पर यहाँ आया ‘ किन्तु मेरे पूछने पर कि रथ कहाँ है , वे मुझे नहीं बता पाये । क्या उनकी बातें मानी जा सकती हैं ?
इस पर उन पाँच सौ यवनों ने आयुष्मान नागसेन को साधुवाद दे कर राजा मिलिन्द से कहा – महाराज , यदि हो सके तो आप इसका उत्तर दें ।
तब राजा मिलिन्द ने कहा – भन्ते ! मैं झूठ नही बोल रहा हूँ । ईषादि रथ के अवयवों के आधार पर केवल व्यवहार के लिये ‘रथ’ ऐसा नाम कहा गया है ।
‘महाराज बहुत ठीक , आपने जान लिया कि रथ क्या है । इसी प्रकार मेरे केश इत्यादि के आधार पर केवल व्यवहार के लिये “नागसेन” ऐसा एक नाम कहा जाता है लेकिन परमार्थ मे नागसेन नामक कोई आत्मा नही है । भिक्षुणी वज्रा ने भगवान बुद्ध के सामने कहा था – जैसे अवययों के आधार पर “ रथ” संज्ञा होती है उसी प्रकार स्कन्धों के होने से “सत्व” समझा जाता है ।
‘भन्ते !! आशचर्य है , अदभुत है । इस जटिल प्रशन को आपने बडी खूबी से सुलझा लिया , विस्मयहर्षित राजा मिलिन्द ने कहा , यदि इस समय भगवान बुद्ध भी यहाँ होते तो वे भी आपको साधुव्बाद देते । भन्ते नागसेन ! आप को साधुवाद !!
साभार : श्री शान्ति स्वरुप बौद्ध ,सम्यक प्रकाशन केन्द्र ,श्री राजेश चन्द्रा , और श्री टी.वाई.ली.
Wednesday, March 14, 2012
चीन में मिली बुद्ध की 2000 से अधिक प्राचीन प्रतिमाएं
चीन के हेबेई प्रांत में पुरातत्वविदों ने बुद्ध की 2,000 से अधिक प्राचीन प्रतिमाएं खोजी हैं.
इन प्रतिमाओं की खोज से पता चलता है कि साम्यवादी देश में बौद्ध धर्म तब से ही लोकप्रिय है जब इसका भारत में प्रसार हुआ था.
लिनझांग काउंटी के येशेंग स्थित एक ऐतिहासिक स्थल पर मिलीं बुद्ध की ये 2,895 प्रतिमाएं और उनके अवशेष पूर्वी वेई और उत्तरी क्वी काल (534-577) के हैं.
‘इन्स्टीट्यूट ऑफ आर्कियोलॉजी ऑफ द चाइनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज’ और ‘हेबेई प्रॉवीन्शियल इन्स्टीट्यूट ऑफ कल्चरल हैरिटेज’ के पुरातत्वविदों के अनुसार, ये प्रतिमाएं सफेद संगमरमर और नीले पत्थरों से बनी हैं. कुछ प्रतिमाओं पर रंग किया गया है या कलई की गई है.
खबर के मुताबिक हेबेई प्रॉवीन्शियल ब्यूरो ऑफ कल्चरल हैरिटेज’के एक अधिकारी झांग वेनरूई ने बताया कि प्रतिमाओं की लंबाई 20 सेन्टीमीटर से लेकर एक वास्तविक व्यक्ति के आकार तक की है.
पुरातत्वविद संरक्षण और अनुसंधान के लिए इन प्रतिमाओं की मरम्मत कर रहे हैं. समझा जाता है कि करीब 2,000 साल पहले भारत से बौद्ध धर्म का चीन में प्रसार हुआ था.
साभार : समय लाइव
Friday, March 9, 2012
समस्याग्रस्त जीवन और चेतना
एक ज़ेन शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, "जीवन इतना अधिक समस्याग्रस्त क्यूं दिखाई देता है ?".
ज़ेन गुरु ने कहा " एक आदमी नाव के होते हुये भी पानी मे बैठता है तो उसको तुम क्या कहोगे ?"
शिष्य ने कहा , “ अगर उसके पास नाव है तो वह पानी में क्यूं बैठेगा ? ”
“ अगर तुम्हारे पास चेतना है तो समस्याग्रस्त जीवन मे क्यूं बैठते हो ” जेन गुरु ने उत्तर दिया ।
John Weeren की कहानी “ Story; a man, a boat ” का हिन्दी अनुवाद ।
Tuesday, February 28, 2012
जेन कथा : ग्रंथ का प्रकाशन
जापान में टेटसुगेन नाम का एक जेन शिष्य था। एक दिन उसके मन में ख्याल आया कि धर्म सूत्र केवल चीनी भाषा में ही हैं, उन्हें अपनी भाषा में प्रकाशित करना चाहिए। सूत्र के सात हजार ग्रंथ प्रकाशित करने का अनुमान लगा।
ग्रंथ के प्रकाशन के लिए टेटसुगेन देश में घूमकर धन इकट्ठा करने निकला। लोगों ने उदार हृदय से टेटसुगेन की मदद की। किसी-किसी ने तो उसे 100 सोने के सिक्के तक दिए। लोगों को टेटसुगेन ने बदले में धन्यवाद दिया। वह इस काम में दस साल तक लगा रहा और तब जागर टेटसुगेन के पास ग्रंथ प्रकाशन के लिए पर्याप्त धन इकट्ठा हो गया।
उसी समय देश में एक नदी में बाढ़ आई। बाढ़ अपने पीछे अकाल छोड़ गई। टेटसुगेनने जो धन ग्रंथ प्रकाशन के लिए इकट्ठा किया था वह लोगों की सहायता में खर्च कर दिया। इसके बाद जब परिस्थितियाँ सामान्य हुईं तो वह फिर से ग्रंथ के प्रकाशन के लिए धन संग्रह करने निकला।
टेटसुगेन को धन इकट्ठा करते हुए कुछ साल बीत गए। इधर फिर से देश में एक महामारी फैल गई। टेटसुगेन ने अभी तक जो भी धन इकट्ठा किया था वह फिर से लोगों की सेवा में खर्च कर दिया। इस तरह उसने कई लोगों को मरने से बचाया।
ग्रंथ के प्रकाशन के लिए टेटसुगेन ने तीसरी बार धन इकट्ठा करने का निश्चय किया। बीस साल बाद जाकर उसकी ग्रंथ प्रकाशित करने की इच्छा पूरी हो पाई। उसने ग्रंथों के संकलन का पहला संस्करण निकाला और वह क्योटो की ओबाकू विहार में आज भी देखा जा सकता है। जापान में आज भी लोग टेटसुगेन को याद करते हुए कहते हैं कि उसने तीन बार सूत्रों के ग्रंथ प्रकाशित करवाए। तीसरा ग्रंथ हमें दिखता है, जबकि पहले दो ग्रंथ जो ज्यादा महत्वपूर्ण हैं हमें दिखलाई नहीं पड़ते।
साभार : हिन्दी वेब दुनिया
Sunday, February 26, 2012
सेब का वृक्ष
मैं लक्ष्य तक पहुँचने में और अधिक किस तरह प्रभावी हो सकता हूँ ?" एक ज़ेन छात्र ने अपने गुरु से पूछा.
" क्या तुमने कभी सेब के वृक्ष को सेब के फ़ल के अतिरिक्त किसी और फ़ल का उत्पादन करते हुये देखा है ? ” जेन गुरु ने कहा ।
"नहीं," छात्र ने कहा. "लेकिन इसका मेरे प्रशन के साथ क्या संबध है ? "
” फ़िर तुम किस तरह के वृक्ष हो ? ” जेन गुरु ने एक भेदी मुस्कान के साथ पूछा !!
John Weeren की जेन कहानी “ apple tree ” का हिन्दी मे अनुवाद ।
Wednesday, February 22, 2012
धम्म जीवन कैसे जियें– डां के.श्री धम्मानन्द
डां के.श्री धम्मानन्द जी की “ धम्म जीवन कैसे जियें ” मूलत: ‘How to practice Buddhism ‘ का हिन्दी अनुवाद है । जैसा कि पुस्तक के नाम से स्पष्ट है कि यह पुस्तक बुद्ध धम्म को प्रतिदिन के व्यवहार में प्रयुक्त करने हेतु दिशानिर्देश प्रस्तुत करती है । बौद्ध आध्यात्मिक साहित्य मे बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन दिशा निर्देशों के अभाव मे सब कुछ स्पष्ट नही है । श्री प्रेम गोपाल दुग्गल जी द्वारा अनुवादित और श्री राजेश चन्द्रा जी द्वारा संपादित डां के.श्री धम्मानन्द जी की यह पुस्तक बुद्ध धम्म के कई अनछुये पहुलऒं को छूती है जिनमें सामाजिक , बौद्धिक , और स्थानीय परम्परायें भी शामिल है ।
डाउनलोड लिंक : http://www.box.com/s/een214d0g74bamzasjgv
Dhaam Jeevan Kaise JiyenMonday, February 20, 2012
धम्म का वास्तविक अर्थ …
आचार्य बोधिधम्म ने नौ वर्षों तक के अपने प्रवास में चीन में मात्र पाँच शिष्य और एक शिष्या को दीक्षा दिया । भारत आते समय उन्होनें अपने सभी शिष्यों से एक ही प्रशन किया – “ तुमने धम्म का क्या अर्थ समझा? ”
प्रथम शिष्य ताओ फ़ू ने कहा , “ धम्म भाषा और शब्दों से परे है लेकिन वह भाषा और शब्द से पृथक नही है ।”
बोधिधम्म ने कहा , “ तुमने धम्म की त्वचा को स्पर्श कर लिया है । ”
शिष्या त्संग चीह ( सोजी ) ने कहा , “ अक्षोभ्य बुद्ध भूमि का दर्शन धम्म है , उनके दर्श्न की पुनरावृति नहीं होती । ”
बोधिधम्म ने कहा , “ तुमने धम्म का ह्र्दय छू लिया । ”
तीसरे शिष्य ताओ यू ने कहा , “ मौलिक रुप से पाँच तत्व शून्य है और पाँचवे का अस्तित्व नही है । धम्म इन पाँचों तत्वों से परे है ।”
बोधिधम्म ने अनुमोदन किया , “ तुम धम्म की अस्थियों तक पहुँच गये हो “
हुई को दो कदम आगे बढा , बोधिधम्म के पाँव छुये फ़िर दो कदम पीछे हो कर चुपचाप खडा हो गया , कहा कुछ नहीं ।
बोधिधम्म ने कहा , “ तुमने धम्म का मर्म पा लिया "। ”
शिष्य हुई को अपना उत्तराधिकार सौंप कर आचार्य बोधिधम्म वापस भारत आ गये और हिमालय मे कही विलीन हो गयॆ ।
यह भिन्न –२ प्रसंग बुद्ध धम्म के केन्द्रीय तत्व की ओर संकेत दे रहे हैं – चित्त का परिशोधन , अकुशल कर्मों से विरति और कुशल कर्मों का सम्पादन ।
Saturday, February 18, 2012
बचना
एक जेन छात्र ने अपने गुरु से पूछा .“ क्या जेन ध्यान का मकसद स्वर्ग प्राप्ति की अभिलाषा है ? “
उसके गुरु ने कहा , “ नहीं “
“ तो क्या जीवन की परेशानियाँ और अंशाति से बचने का उपाय जेन ध्यान मे है ? ”
गुरु ने कहा , “ बचना कैसा ? “ जेन वास्तविकता को उसी रुप में स्वीकार करने की कला है । ”
John Weeren की जेन कहानी “ escape “ का हिन्दी अनुवाद
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Wednesday, February 15, 2012
बौद्ध - विनय एवं आचरण- डां के. श्री. धम्मानन्द
डां के. श्री. धम्मानन्द जी की यह लघु पुस्तिका ’ बौद्ध विनय एवं आचरण ’ उनकी अंगेजी मे लिखी ’ Moral & Ethical conduct of a Buddhist ‘ का हिन्दी मे अनुवाद है । डां श्रीमती इन्दु अग्रवाल ने इस पुस्तिका का सुरुचिपूर्ण भाषा मे प्रवाहमेय अनुवाद किया है और हमेशा की तरह श्री राजेश चन्द्रा जी ने इस पुस्तिका का उत्कृष्ट रुप से संपादन किया है ।
गत सप्ताह मेरे अभिग्न मित्र श्री राजेश जी ने मुझे दो पुस्तिकायें भेटं स्वरुप दी । पिछ्ले काफ़ी समय से हम नेट के माध्यम से जुडे रहे लेकिन अधिक व्यवस्सता के कारण मिलना संभव न हो पाया । गत सप्ताह यह मिलन आकस्मिक और बहुत ही सुखद पूर्ण रहा । पिछ्ले साल श्रावस्ती भ्रमण के दौरान जिस तरह वह मेरे साथ फ़ोन के माध्यम से लगातार सुबह से रात तक जुडे रहे उससे मुझे कही नही लगा कि हम दोनों मे पूर्व का परिचय नही है ।
लेकिन बात पहले ’ बौद्ध विनय एवं आचरण ’ की । डां के. श्री. धम्मानन्द जी इस पुस्तिका का केन्द्रीय विषय बौद्धों की आचरण नियमावली है । यह पुस्तिका न सिर्फ़ भिक्खुओं के लिये उपयोगी है बल्कि उपासकों के लिये भी लाभकारी है । जनमानस को भगवान बुद्ध का यही संदेश मिलता है “ सत्कर्म करो , शुद्ध विचार रखो और दुषकर्म से दूर रहो । ” बुद्ध के समय मे भी ये शब्द उतने ही सच थे जितने आज हैं और कल भी रहेगें ।
इस पुस्तिका की scanned image बहुत ही उत्कृष्ट quality की नही है लेकिन जैसे ही यह सिगांपुर से श्री टी वाई ली की साइट पर उपलोड होगी तब उसका डाउनलोड लिंक यहाँ उपलब्ध करा दिया जायेगा ।
डाउनलोड लिंक : http://www.box.com/s/lcp84ip2t6cg676j5rs9
बौद्ध नियम एवं आचरण